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कविता : पेण्डूलम में बदले हुए लोग

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

झाबुआ............मध्य प्रदेश का एक जिला जोकि आदिवासी बहुल है और खुशकिस्मत इतना कि एक बड़े होते शहर के नजदीक मेरा मतलब आप भी समझ रहे होंगे कि मज़दूरी के लिये आसानी से उपलब्ध भीड़ जो कभी-कभी केवल एक जून भोजन के लिये भी वो सब कर सकती है जो कि इंसान(मुआफ कीजियेगा) नही कर सकते।


यह लोग होली के पर्व पर अपना एक त्यौहार "भगोरिया" मनाते हैं जोकि परंपरानुसार प्रणय-निवेदन का त्यौहार माना जाता है। शहरों में गये हुए यह लोग लौटते है तो महुआ की शराब, माँदल(एक प्रकार का वाद्य यंत्र ढोल नुमा) की लय पूरी रात नृत्य करते हैं और फिर लौट जाते हैं......शहर की ओर.....उम्मीदों के लिये...........

कविता : पेण्डूलम में बदले हुए लोग


इस,
फागुन में जब लौटगे वो
महुए,
अब भी उबाले जा रहे होंगे
देर रात तक
सुबह,
पहली धार से मिटाकर तड़प
मदमाती हो जायेगी
लाली फैल जायेगी होंठों से फिसलकर
गालों तक
यूँ लगेगा कि
सूरज कुछ देर के लिये ही सही
ठहर गया हो यहीं आस-पास
और ताक रहा हो
बौराये यौवन को फागुनी बयार में
भीगते / जलते हुये


मांदल की थाप पर
सनसनी दौड़ने लगी है देह में
बालियों में पक रहा है गेंहू /
यौवन संदली बदन में /
और मन में कई ख्वाब
रात लगती ही नही कि खत्म होगी कभी
होली की आँच में
गर्म हो रही होंगी कई हथेलियाँ मेहंदी रची हुई
और पसीना बस सरक रहा होगा
गर्दन से फिसलते हुये
सीने के करीब
या और थोड़ा नीचे....

बस,
यहीं खत्म होने लगेगा साथ
कुछ इंतजर के वादे /
या कुछ जल्द लौटने की मनुहारों के बीच
वो पकड़ लेगा अपनी राह
शहर की ओर
अभी जहाँ
जैसे धरती को अपने अक्ष से खोदना है उसे
दोनों ध्रुवों के बीच
और फिर खो जाना है
गुरूत्वाकर्षण को समझे बगैर
किसी झुग्गी या पाईप में
कि अब उसे शेष जिन्दगी बस
यूँ ही डोलते रहना है
किसी पेण्डूलम सा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-अप्रैल-2011 / समय : 07:20 सायँ / ऑफिस लौटते

कविता : अण्णा रुके नही......

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

आज सुबह फेसबुक पर श्री समीरलाल जी की पोस्ट पढ़ी और फिर दिन भर श्री अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चलाये जा रहे अभियान और की जा रही भूख हड़ताल ने विवश कर दिया यह सोचने को क्या भ्रष्टाचार का मुद्दा श्री अण्णा हजारे का कोई निजि मसला है क्या है (हम अक्सर ऐसा ही सोचते है)?

गाँधीजी के देश में ही अब लोग मानने लगे हैं कि हम क्यों औरों के फटे में पैर डाले? सबसे ज्यादा इस बात का दुःख है कि गाँधीजी के सिद्धाँतों में अब कोई विश्वास नही करता भूख हड़ताल(सच्ची तो अब कल्पनाओं में ही होगी कहीं), सत्याग्रह जैसे शब्द किसी अन्य भाषा के लगते हैं जिनका अर्थ कोई समझ ही नही पाता है......

श्री अण्णा हजारे के अभियान का हिस्सा बन सकूं/भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अपनी एक मोमबत्ती जला सकूं इसी भावना के साथ

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी
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मैनें,
यह मान लिया था
अब कोई बदलाव संभव नही है
व्यवस्था ने अपनेआप को ढाल लिया है
वो जो भी हो रहा है
आस-पास
और हम अभ्यस्त हो गये हैं
अपनी भूमिका से

किसी,
परिवर्तन का हिस्सा बनने का
माद्दा बचा ही नही है
सब मोम के बने
या तो पिघल जाते हैं
या ढाल लिये जाते है
जरूरतों ने कतरकर दुनिया समेट दी है
चार बाय पाँच इंच के जेब में
और साढ़े पाँच फुट का बेजुबान आदमी
नाचने लगा है उंगलियों पर

एक,
हाँका लगाने के बाद
अण्णा रुके नही
किसीका इंतजार करते
हमकदम होने का
बस चले पड़े अपनी राह बनाते हुए
किसी अचरज सा लगता है
एक आदमी.....आम आदमी
अपनी भूख से
उड़ा सकता है नींद
पेट भर खाये लोगों की
जिन्होंने अभी डकार भी नही ली है
खाने के बाद
और उनकी निगाहों में
देश में अभी काफी कुछ बाकी है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 07-अप्रैल-2011 / समय : 08:20 रात्रि / अहमद नगर प्रवास पर

कविता : सपनों का सैलाब

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

तुम,
जब अपनी मांग में
सवालों को सजा लेती हो तो
तुम्हारी आँखों में
तैरते सपने डूब जाते हैं
समन्दर में


तुम,
टाँक लेती हो जरूरतों को
जब अपनी साड़ी पर
और लपेट लेती हो तो
यूँ लगता है कि
जैसे आसमान लिपट आया हो
तुम्हारे बदन से
और तुम जरूरतों में घिरी
मुस्कुरा रही हो
चाँद की तरह


तुम,
जब उम्मीदों से
गूंथ लेती हो वेणी(गजरा)
और सजा लेती हो
अपने जूड़े में
तो यूँ लगता है कि
जैसे मुझे मिल गया हो
जीने का मक़सद
तुम्हारी उम्मीदों और जरूरतों के बीच
तुम्हारे सपनों का सैलाब
मुझे बहाए लिये जाता है
जिन्दगी की ओर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 31-मार्च-2011 / समय : 09:45 रात्रि / घर लौटते हुए