झाबुआ............मध्य प्रदेश का एक जिला जोकि आदिवासी बहुल है और खुशकिस्मत इतना कि एक बड़े होते शहर के नजदीक मेरा मतलब आप भी समझ रहे होंगे कि मज़दूरी के लिये आसानी से उपलब्ध भीड़ जो कभी-कभी केवल एक जून भोजन के लिये भी वो सब कर सकती है जो कि इंसान(मुआफ कीजियेगा) नही कर सकते।
यह लोग होली के पर्व पर अपना एक त्यौहार "भगोरिया" मनाते हैं जोकि परंपरानुसार प्रणय-निवेदन का त्यौहार माना जाता है। शहरों में गये हुए यह लोग लौटते है तो महुआ की शराब, माँदल(एक प्रकार का वाद्य यंत्र ढोल नुमा) की लय पूरी रात नृत्य करते हैं और फिर लौट जाते हैं......शहर की ओर.....उम्मीदों के लिये...........
कविता : पेण्डूलम में बदले हुए लोग
इस,
फागुन में जब लौटगे वो
महुए,
अब भी उबाले जा रहे होंगे
देर रात तक
सुबह,
पहली धार से मिटाकर तड़प
मदमाती हो जायेगी
लाली फैल जायेगी होंठों से फिसलकर
गालों तक
यूँ लगेगा कि
सूरज कुछ देर के लिये ही सही
ठहर गया हो यहीं आस-पास
और ताक रहा हो
बौराये यौवन को फागुनी बयार में
भीगते / जलते हुये
मांदल की थाप पर
सनसनी दौड़ने लगी है देह में
बालियों में पक रहा है गेंहू /
यौवन संदली बदन में /
और मन में कई ख्वाब
रात लगती ही नही कि खत्म होगी कभी
होली की आँच में
गर्म हो रही होंगी कई हथेलियाँ मेहंदी रची हुई
और पसीना बस सरक रहा होगा
गर्दन से फिसलते हुये
सीने के करीब
या और थोड़ा नीचे....
बस,
यहीं खत्म होने लगेगा साथ
कुछ इंतजर के वादे /
या कुछ जल्द लौटने की मनुहारों के बीच
वो पकड़ लेगा अपनी राह
शहर की ओर
अभी जहाँ
जैसे धरती को अपने अक्ष से खोदना है उसे
दोनों ध्रुवों के बीच
और फिर खो जाना है
गुरूत्वाकर्षण को समझे बगैर
किसी झुग्गी या पाईप में
कि अब उसे शेष जिन्दगी बस
यूँ ही डोलते रहना है
किसी पेण्डूलम सा
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-अप्रैल-2011 / समय : 07:20 सायँ / ऑफिस लौटते
यह लोग होली के पर्व पर अपना एक त्यौहार "भगोरिया" मनाते हैं जोकि परंपरानुसार प्रणय-निवेदन का त्यौहार माना जाता है। शहरों में गये हुए यह लोग लौटते है तो महुआ की शराब, माँदल(एक प्रकार का वाद्य यंत्र ढोल नुमा) की लय पूरी रात नृत्य करते हैं और फिर लौट जाते हैं......शहर की ओर.....उम्मीदों के लिये...........
कविता : पेण्डूलम में बदले हुए लोग
इस,
फागुन में जब लौटगे वो
महुए,
अब भी उबाले जा रहे होंगे
देर रात तक
सुबह,
पहली धार से मिटाकर तड़प
मदमाती हो जायेगी
लाली फैल जायेगी होंठों से फिसलकर
गालों तक
यूँ लगेगा कि
सूरज कुछ देर के लिये ही सही
ठहर गया हो यहीं आस-पास
और ताक रहा हो
बौराये यौवन को फागुनी बयार में
भीगते / जलते हुये
मांदल की थाप पर
सनसनी दौड़ने लगी है देह में
बालियों में पक रहा है गेंहू /
यौवन संदली बदन में /
और मन में कई ख्वाब
रात लगती ही नही कि खत्म होगी कभी
होली की आँच में
गर्म हो रही होंगी कई हथेलियाँ मेहंदी रची हुई
और पसीना बस सरक रहा होगा
गर्दन से फिसलते हुये
सीने के करीब
या और थोड़ा नीचे....
बस,
यहीं खत्म होने लगेगा साथ
कुछ इंतजर के वादे /
या कुछ जल्द लौटने की मनुहारों के बीच
वो पकड़ लेगा अपनी राह
शहर की ओर
अभी जहाँ
जैसे धरती को अपने अक्ष से खोदना है उसे
दोनों ध्रुवों के बीच
और फिर खो जाना है
गुरूत्वाकर्षण को समझे बगैर
किसी झुग्गी या पाईप में
कि अब उसे शेष जिन्दगी बस
यूँ ही डोलते रहना है
किसी पेण्डूलम सा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-अप्रैल-2011 / समय : 07:20 सायँ / ऑफिस लौटते