तुम,
आँखों में झांकते हुये
पढ़ लेती हो विचारों को
इसके पहले कि वो बदल सकें शब्द में
शब्दों को जैसे पहचान लेती हो
तुम्हारे कानों तक पहुँचने के पहले
और अपनी पूरी ताकत झोंक देती हो
उस शब्द को बेअसर करने के लिये
तुम,
रोक देना चाहती हो
कि शब्द बदल सकें पानी में
और बने रहे तुम्हारी आँखों में
या घुल जाये काजल में
और बहे तुम्हारे गालों पर
फिर सूखते हुये जिन्दा रहें लकीरों में
शब्दों में छिपे बादल के टुकड़े को तुम जैसे पहचान लेती हो
और बदल जाती पत्थर में
तुम,
तलाशती हो कोई कोना अपने ही अंतर
कि जहाँ तुम छिप सको पीछा करते हुये शब्दों से
जो खोज रहे हैं तुम्हें
तुम्हारे होने से लेकर आजतक
और गूंज रहे हैं अनुनाद बनकर तुम्हारे ख्वाबों में
तुम खुद को मिटा लोगी एक दिन
लेकिन शब्द तब भी गूंजेंगे /
तुम्हारा पीछा करेंगे
तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
जिसमे विलीन हो जायें तुम्हें कचोटते शब्द
और तुम महसूस कर सको
हवा को तुम्हारे कानों में सीटियाँ बजाते किसी दिन
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २४-सितम्बर-२००९ / समय : १०:४५ रात्रि / घर /
....बने रहने के लिये
शनिवार, 12 सितंबर 2009
अपने आस-पास बनी हुई या चलती हुई व्यवस्था में, मैं कबि जब अपने को खोजता हूँ तो निरर्थक सा महसूस करता हुँ या समय से पीछे चलता हुआ एक ऐसी मौजूदगी जो गैरजरूरी रूप से मौजूद है और वही घुटन जब शब्दों के साँचे में ढलती है तो ........
मैं,
उस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ
सारा तंत्र,
अपनी असफलताओं में ही
तलाश लेता हैं मुझे इस व्यवस्था में
कहीं से भी
चाहे हाशिये पर हूँ या कबाड़ में या कूड़े में
फिर लानतों का ठीकरा फोड़ा जाता है
शायद, इतने अनुभव ने प्रासंगिक बना दिया है
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ
व्यवस्था में,
यह बात घर कर गई है कि
जब तक चिल्लाकर कुछ नही कहा जायेगा
कोई जूँ भी नही रेंगेगी मेरे कानों पर
अक्सर लोग निकाल लेते हैं गुबार
मेरे कानों को और ऊँचा बना देते हैं
और मुझे अभ्यस्त
व्यव्स्था में गैरजरूरी ढंग से मौजूद बने रहने के लिये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२००९ / समय : ०६:३० सुबह / घर
मैं,
उस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ
सारा तंत्र,
अपनी असफलताओं में ही
तलाश लेता हैं मुझे इस व्यवस्था में
कहीं से भी
चाहे हाशिये पर हूँ या कबाड़ में या कूड़े में
फिर लानतों का ठीकरा फोड़ा जाता है
शायद, इतने अनुभव ने प्रासंगिक बना दिया है
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ
व्यवस्था में,
यह बात घर कर गई है कि
जब तक चिल्लाकर कुछ नही कहा जायेगा
कोई जूँ भी नही रेंगेगी मेरे कानों पर
अक्सर लोग निकाल लेते हैं गुबार
मेरे कानों को और ऊँचा बना देते हैं
और मुझे अभ्यस्त
व्यव्स्था में गैरजरूरी ढंग से मौजूद बने रहने के लिये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२००९ / समय : ०६:३० सुबह / घर
हथेलियों से गुम होती रेखाएँ
बुधवार, 9 सितंबर 2009
आगरा केवल ताज ही नही अपने पेठों के लिये भी मशहूर है, पेठे जिनकी मिठास मुँह में घुलने के बाद भी बड़ी देर तक बनी रहती है। उसी पेठे को एक दूसरी नज़र से देखने का प्रयास किया है, आशा करता हूँ कि आप पसंद करेंगे.........
मुकेश
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पेठा,
मीठा-मीठा
जुबान पे रखते ही घुल जाने वाला
जैसे ही याद आता है
मुँह में आने लगता है पानी
और,
जेहन में घूमने लगती हैं
आगरा की गलियाँ /
गलियों में दफ्न होती जिन्दगियाँ
इन,
गलियों में घरों के पीछे बनी
हौजों से आती चुनयाती गंध
आंगन में पकती हुई चाश्नी के काढाव
औसारी में गोदे जाते भूरे कोलों(कद्दू) का ढेर
नालियों पर धुलते मर्तबानों की भीड़
और,
याद आता है
वो बच्चा,
जिसकी किताबों के हर्फ
गर्क हो गये चूने की हौजों में
वो आदमी,
जो समय से पहले बूढा हो आया हो
जिसकी हथेलियों में
कोई भाग्यरेखा बची ही नही चूने के आगे
वो औरत,
जिसकी हंसी बदलती गई चाश्नी में
वो बूढा,
जो नही देख पाता कुछ और
मर्तबानों के सिवाय
शक्कर,
बदलती है चाश्नी में /
भूरा कोला,
बद्लता है खोखे में /
आदमी,
बदलता है भीड़ में
और, जिन्दगी,
बदलती है पेठे में
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १७-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर
मुकेश
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पेठा,
मीठा-मीठा
जुबान पे रखते ही घुल जाने वाला
जैसे ही याद आता है
मुँह में आने लगता है पानी
और,
जेहन में घूमने लगती हैं
आगरा की गलियाँ /
गलियों में दफ्न होती जिन्दगियाँ
इन,
गलियों में घरों के पीछे बनी
हौजों से आती चुनयाती गंध
आंगन में पकती हुई चाश्नी के काढाव
औसारी में गोदे जाते भूरे कोलों(कद्दू) का ढेर
नालियों पर धुलते मर्तबानों की भीड़
और,
याद आता है
वो बच्चा,
जिसकी किताबों के हर्फ
गर्क हो गये चूने की हौजों में
वो आदमी,
जो समय से पहले बूढा हो आया हो
जिसकी हथेलियों में
कोई भाग्यरेखा बची ही नही चूने के आगे
वो औरत,
जिसकी हंसी बदलती गई चाश्नी में
वो बूढा,
जो नही देख पाता कुछ और
मर्तबानों के सिवाय
शक्कर,
बदलती है चाश्नी में /
भूरा कोला,
बद्लता है खोखे में /
आदमी,
बदलता है भीड़ में
और, जिन्दगी,
बदलती है पेठे में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १७-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर
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