खजूर,
सीधे, तने हुये धरती के सीने पर
या मुड़े हुये बेतरतीब अलसाये से
जब भी मैनें देखा उन्हें
उनींदे अधूरे ख्वाबों सा लगे
आसमानी बुलंदी को छूने के पहले /
ठिठके हुये हौंसले से
जलती दुपहरी में छांव के पैबंद से लगे
जब से,
ख्वाब जागने लगे हैं रातों में
बैचेनियाँ सवार हो आई हैं नींद पर
आदमी उलझकर कंघी में टूट रहा है जड़ों से
और फेंका जा रहा है
शहरों में कूड़े के साथ
खजूर,
अब नही दिखाई देता है
खेतों की मेड़ पर / ताल के किनारें
गाँव के मुहाने पर / खपरैले घरों में
बदले हुये चटाईयों में
डुलिया में / छबड़ियों में / सूपे में
या झाडूओं में
सभी जगह उग रही हैं
गाजर घांस
ना आदमी में कुछ बचा
ना खजूर में
दोनों ही नज़र नही आते
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २८-ऑक्टोबर-२००९ / समय : ११:०९ रात्रि / घर
माया, नज़रिया और ज्ञान
बुधवार, 21 अक्तूबर 2009
हम,
सिर्फ पैकिंग बदलने को
बदलाव / परिवर्तन का नाम दे देते हैं
और खुद भी भ्रमित हो जाते हैं
शायद,
माया इसी को कहते हैं
हम,
जितना देख पाते हैं
बस वहीं समेट लेते हैं दुनिया को
और सिखाते हैं क्षितिज की परिभाषा
शायद,
नज़रिया इसी को कहते हैं
हम,
जितना जानते हैं
उससे एक इंच भी आगे बढ़े बगैर
देने लगते हैं सीख आसमान छूने की
शायद,
ज्ञान इसी को कहते हैं
-------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक १०-ऑक्टोबर-२००९ / समय : १०:१५ रात्रि / ऑफिस
सिर्फ पैकिंग बदलने को
बदलाव / परिवर्तन का नाम दे देते हैं
और खुद भी भ्रमित हो जाते हैं
शायद,
माया इसी को कहते हैं
हम,
जितना देख पाते हैं
बस वहीं समेट लेते हैं दुनिया को
और सिखाते हैं क्षितिज की परिभाषा
शायद,
नज़रिया इसी को कहते हैं
हम,
जितना जानते हैं
उससे एक इंच भी आगे बढ़े बगैर
देने लगते हैं सीख आसमान छूने की
शायद,
ज्ञान इसी को कहते हैं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक १०-ऑक्टोबर-२००९ / समय : १०:१५ रात्रि / ऑफिस
मैं, पहले तो ऐसा ना था
मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009
यह वाकिया एक न्यूरोसाईकेट्रिक फिजिशियन के क्लीनिक को विजिट करने पर जो कुछ देखा था/महसूस किया था वो सब आपके सामने है। मुझे भी ऐसा लगने लगा है कि इस आपा-धापी के युग में हमारी संवेदनायें मरती जा रही हैं और हम केवल अपने में ही सिमट रहे हैं :-
वो,
लड़की अक्सर
मुझे मिल जाती है
अपनी बारी का इंतजार करते
सिमटी सिमटी सी
कुछ सहमी सहमी सी
दवा की पर्चियों को मुट्ठी में भींचे हुये
वो,
कभी कभी देखती है मुझे
कनखियों से फिर सहम जाती है
कुरेदने लगती है
हथेलियों को नाखून से
या ज़मीन में धंसी जाती है
वो,
कराहती भी है
अपनी सिसकियों के बीच
या सलवार घुटनों तक उपर कर
सहलाती है किसी चोट को
फिर भावशून्य हो जाती है
किसी बुत की तरह
और एकटक देखती है दीवार के पार
मुझे,
लगने लगता है कि
एक विषय मिल गया है
कविता लिखने के लिये
और मेरी रूचि
अब सिमटने लगती है
उसकी हरकतों को बारीकी से देखने में
शायद,
यह कविता पसंद भी आये
पढने पर या सुने जाने पर
मैं,
अपने अंतर उदास था कहीं
कि मैं पूरे समय
देखता रहा उसे / उसकी टाँगो को
उसकी हरकतों को
और लिखता रहा जो भी देखा
एकबार भी हमदर्दी से महसूस नही किया
उसके दर्द को
मैं पहले तो ऐसा नही था
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मई-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर
वो,
लड़की अक्सर
मुझे मिल जाती है
अपनी बारी का इंतजार करते
सिमटी सिमटी सी
कुछ सहमी सहमी सी
दवा की पर्चियों को मुट्ठी में भींचे हुये
वो,
कभी कभी देखती है मुझे
कनखियों से फिर सहम जाती है
कुरेदने लगती है
हथेलियों को नाखून से
या ज़मीन में धंसी जाती है
वो,
कराहती भी है
अपनी सिसकियों के बीच
या सलवार घुटनों तक उपर कर
सहलाती है किसी चोट को
फिर भावशून्य हो जाती है
किसी बुत की तरह
और एकटक देखती है दीवार के पार
मुझे,
लगने लगता है कि
एक विषय मिल गया है
कविता लिखने के लिये
और मेरी रूचि
अब सिमटने लगती है
उसकी हरकतों को बारीकी से देखने में
शायद,
यह कविता पसंद भी आये
पढने पर या सुने जाने पर
मैं,
अपने अंतर उदास था कहीं
कि मैं पूरे समय
देखता रहा उसे / उसकी टाँगो को
उसकी हरकतों को
और लिखता रहा जो भी देखा
एकबार भी हमदर्दी से महसूस नही किया
उसके दर्द को
मैं पहले तो ऐसा नही था
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मई-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर
बिस्तर में सिमटे हुये प्रश्न
बुधवार, 7 अक्तूबर 2009
क्यों?
देर रात घर लौटने के बाद भी
मन उदिग्न रहता है
और बिस्तर में भी
वो सारे प्रश्न
जिनके उत्तर मैं खोज नही पाया आजतक
दग्ध करते हैं
क्यों?
ऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं
क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले
क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-ऑक्टोबर-२००९ / सुबह : ०६:१६ / घर
देर रात घर लौटने के बाद भी
मन उदिग्न रहता है
और बिस्तर में भी
वो सारे प्रश्न
जिनके उत्तर मैं खोज नही पाया आजतक
दग्ध करते हैं
क्यों?
ऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं
क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले
क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-ऑक्टोबर-२००९ / सुबह : ०६:१६ / घर
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