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प्रश्नों से भरा हुआ, आकाश

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

आकाश,
मेरे लिये सदा ही
प्रश्नों से भरा रहा
दिन की अंनत गहराईयों में
समेटे / लुढकते बादलों से प्रश्न
रात की कालिख़ पर
कभी टिमटिमाते
या कभी टूटते तारों से प्रश्न?

सुबह,
मेरे लिये सदा ही
एक कौतुहल सी रही
जिसमें रोज खोजना है
अपने आप को
रेत पर लिखे हुये नाम सा
या हवा से अलगकर कैद करना है
खुश्बू अपने हिस्से की

रात,
मुझे लिये आती है
अपने खूंटे को तलाशते
जानवर सी
हौज़ में तलाशती अपने होने को
या, ठंडी हवाओं में घुले हुये सपनों से
चुन लेना है अपना सच

फिर,
मैं बंटने लगता हूँ
सुबह और रात के बीच
अटके हुये आकाश में
जहाँ,
सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न है
रूप बदलते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : 08-मार्च-2009 / समय : 10:43 रात्रि / घर

दिन, किस तरह कचोटता है

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

हाँ,
मैने देखा है
तुम्हारी आँखों में
जमे हुये ख्वाबों को
और उनके इर्द-गिर्द स्याह दायरों में
दफन हो आई हसरतों को

हाँ,
मैने देखा है
तुम्हारे चेहरे पर
झांईयों में बदल आये आत्मविश्‍वास को
और टूटे हुये विश्‍वास को
बदलते हुये झुर्रियों में

हाँ,
मैने देखा है
तुम्हें कई बार
अपने वुजूद से लड़ते
टूट कर बिखरते हुये
फिर घुटनों पर सिर टिकाये
किसी कोने में सिमटते हुये

हाँ,
मैने सुना है
तुम्हारी सिसकियों में
दम तौड़ती शिकायतों को
और, गले में ही घुट के रह गई चीखों को
बदलते हुये हिचकियों में

हाँ,
मैने महसूस किया है
तुम्हारे कानों के आस-पास
सुने गये तानों की तपन को /
तुम्हारे चेहरे का रंग बदलते हुये
दर्द के उबटन से /
या टीस की सौंधी गमक को
तुम्हारे बालों से आते हुये

इतना,
करीब से जानने के बाद भी
तुम्हें शिकायत है मुझसे कि
मैं,
कभी नही समझ पाऊंगा
दिन किस तरह कचोटता है
तुम्हें
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १६-अप्रैल-२००९ / समय : ११:२५ रात्रि / घर

सुकून से सोने के लिये

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

बाप,
जिसने देखी होती है
कम से कम बच्चे से ज्यादा दुनिया
और वह,
यह भी जानता है कि
जिन्दा रहने की जंग में
घर से बाहर निकलना ही पड़ता है
चाहे-अनचाहे

वही, बाप
जब किसी शाम बच्चा कहता है कि
मैं आया, थोड़ी देर में
तो, दागता है सवालों की बौछार
क्यों? जरूरी है क्या?
पैर घर में टिकते नही
क्या रखा है चौराहे पर?
तब, यह भी नही सोचता कि
अपने हिस्से की जंग में
उसे भी निकलना ही होगा
कभी ना कभी
बस यही उम्र है
जब तक बाहर नही निकलेगा तो,
सीखेगा क्या?

पूरी दुनिया,
नाप लेने वाला शख्स
जब बदलता है बाप में
तब उसे दिखनी लगती है
सड़कों पर भागती जिन्दगी
बेखौफ भागते ट्रैफ़िक से बचती हुई /
सड़कों पर जन्म लेते गड्‍ढे /
किसी मोड़ पर लूटे जाते हुये राहगीर /
ऐक्सीडेंट की दिल बैठाने वाली खबरें
तब वह,
बुनने लगता है एक दुनिया
घर की चारदीवारी में
अपने बच्चों के लिये
और,
ओढ लेता है अपने बच्चों के हिस्से की दुनिया
सुकून से सोने के लिये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-अप्रैल-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

एक आसिफ मिय़ाँ ही बचे हैं

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

एक,
आसिफ मिय़ाँ ही बचे हैं
और जो बूढे थे तो तस्वीर हो गये है
मोहल्ला तो करीब करीब लौंडो से भरा है,
दिनभर की मटरगश्ती / छेड़-छाड़
फिर देर रात चौराहे पर
सारे मोहल्ले की खत्म ना होने वाली छिछोरी बातें


एक,
आसिफ मियाँ ही है
तो मोहल्ले में जान है
जब भी मिलते हैं बिना किसी मलाल के
नसीहतें दिये जाते हैं
पूछ जाते हैं सारे घर के हाल
कमाई का हिसाब
पेशानी पे आयी सलवटों का /
या बढी हुई दाढी का सबब

एक,
वही हैं, जो बिना मतलब के ही
सलाम किये फिरते है
बाकी तो कोई किसी मतलब नही रखता
बस उन्हीं को रहती है
पूरे मोहल्ले की चिंता

सिरफिरे,
से हो गये हैं इन दिनों
शाम से ही बैठ जाते है
कब्रस्तान के मोड़ पर
और ना जाने किससे बातें करते है
वो भी किस जमाने की
जैसे वक्‍त टंक गया हो
तहमद पे पैबंद के साथ

सोचता हूँ,
कभी कभी वक्त निकालकर मिल लिया करुं
कुछ सीखने को ही मिलेगा
जिन्दगी की किताब का बहुत कुछ
अनकहा / अनपढा
कम से कम किसी इन्सान से कैसे मिला जाता है
यह तो सीखा ही जा सकता है
क्या भरोसा पके आम हैं
भला कब टिकेंगे डाल पर
फिर तो
उनके बाद हम में से किसी को ही
निभानी है जिम्मेवारी
मोहल्ले के बुजुर्ग की
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-अप्रैल-२००९ / समय : ११:२७ रात्रि / घर