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कविता : अपनी पहचान से परे

शनिवार, 11 अगस्त 2012

मैं, केवल विस्तार भर हूँ
उस अशेष-शेष का
और कुछ भी नही
इससे ज्यादा
यहाँ तक कि
मेरा होना भी
तुम्हारे होने की वज़ह का
मोहताज है

शायद,
यही हमें जोड़ता भी है
और अलहदा भी करता है
ठीक वहीं से
जहाँ तुम पाते हो
अपने विचारों को गड्ड-मड्ड होते
और छोड़ देते हो
प्रश्नों को उलझे हुए धागों सा
या सिर्फ अपने बाप होने के
अहसानों से दबा देते हो
या मुझे सीने होते हैं
होंठ अपने
और गुम हो जाना होता है
अपनी पहचान से परे
तुम्हारी परछाइयों में कहीं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 11-जुलाई-2012 / समय : 11:00 रात्रि / घर