वो,
बिल्कुल भी नही जानता कि,
किसी को उसका इंतजार है भी या नही
कोख़ के अंधेरे छोड़कर
सह्सा किसी दिन देना है
द्वार पर दस्तक अनचाहे मेहमान सा
उसे,
यह भी नही पता होता है कि,
उसका जन्म उसका अपना प्रारब्ध है
या एक ढोयी जा रही मजबूरी
बस अंधेरों में किसी तरह
करना है इंतजार
माँस को बद्लते हुये जिन्दगी में
फिर,
धीरे-धीरे जिन्दगी ढलने लगती है
किसी शक्ल में
जिसे शायद वो तो नही जानता
पर पेट पर उसके आस-पास
अक्सर गूँजती है रह-रहकर
कोसती / मन्नते माँगती आवाजें
किसी,
दिन उसे सुनाई देती है
बडे जोर से आती गूंजे
दबाती उसे करीब करीब हर कोने से
जैसे कोई टटोल रहा हो
उसका वुजूद
फिर,
आने लगती है किसी के रोने की आवाजें /
किसी के गूंजने लगते हैं तानें
बस,
इसी वक्त वह समझ पाता है
वह केवल भ्रूण भर नही रहा
उसमें पड़ रही है जान
वह हो रहा विकसित किसी लड़की के रूप में
और, यह जो आवाजें गूंज रही हैं
फिर,
उसे पहुँचा देगी
उन्ही अंधेरों में /
किसी ऑपरेशन टेबल पर से
मेडिकल वेस्ट इंसिनरेटर में
या किसी नाले में
शायद इस चक्र से गुजरना है बार-बार
यदि वह अभिशप्त है
अपने हर जन्म में
लड़की होने को
---------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-फरवरी-२००९ / समय : ११:२५ रात्रि / घर
छतों के सीने पर
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009
कभी,
तो लगता है कि
मैं घर लौटता ही क्यूं हूँ
सिमटने को एक कमरे में
जिसमें भरा होता है
सामान इस कदर कि
बड़ी मुश्किल से किसी तरह खोजना होता है
अपने लिये कोई कोना
जहाँ मै फैल सकूं
कुछ देर सुकून के साथ /
बदल सकूं इंसान में
कमरे में,
सारी दुनिया फैली होती है /
करीने से सजा होता है
दिन भर का गुबार /
फूले हुये मुँह भर गुस्सा /
मेरे कद से बड़ी होती शिकायतों की फेहरिस्त /
शायद मेरा ही इंतजार करते आँसू
फिर,
मैं पहले बदलने लगता हूँ
पत्थर में
फिर दीवारों में धीरे-धीरे
जो ढूंढती हैं कंधा
छतों के सीने पर रोने के लिये
मेरे आँसू बदलने लगते हैं
छत में कैद सीलन में
जो,
दिन भर गवाही देती हैं कि
मैं कल रात था यहीं कमरे में
कुछ देर इंसान की तरह
मशीन में बदलने के पहले
-----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-फरवरी-२००९ / समय : ११;४० रात्रि / घर
तो लगता है कि
मैं घर लौटता ही क्यूं हूँ
सिमटने को एक कमरे में
जिसमें भरा होता है
सामान इस कदर कि
बड़ी मुश्किल से किसी तरह खोजना होता है
अपने लिये कोई कोना
जहाँ मै फैल सकूं
कुछ देर सुकून के साथ /
बदल सकूं इंसान में
कमरे में,
सारी दुनिया फैली होती है /
करीने से सजा होता है
दिन भर का गुबार /
फूले हुये मुँह भर गुस्सा /
मेरे कद से बड़ी होती शिकायतों की फेहरिस्त /
शायद मेरा ही इंतजार करते आँसू
फिर,
मैं पहले बदलने लगता हूँ
पत्थर में
फिर दीवारों में धीरे-धीरे
जो ढूंढती हैं कंधा
छतों के सीने पर रोने के लिये
मेरे आँसू बदलने लगते हैं
छत में कैद सीलन में
जो,
दिन भर गवाही देती हैं कि
मैं कल रात था यहीं कमरे में
कुछ देर इंसान की तरह
मशीन में बदलने के पहले
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-फरवरी-२००९ / समय : ११;४० रात्रि / घर
धुंध से छाये ख्वाब़
बुधवार, 18 फ़रवरी 2009
मुझे,
बहुत देर लगती है
किसी ख्वाब से पीछे छुडाने में
आँख खुलने के पहले ही
छाने लगता हैं धुंध सा दिमाग पर /
दृष्टी पर छाया होता हैं
मोतियाबिंद के जाल सा
मुझे,
कई बार बदलना होता है
अपना रास्ता,
या यूँ ही भटकना होता है
सड़कों पर अजनबी सा देर तक
जब तक यह भरोसा ना हो जाये कि
मैं छोड़ आया हूँ ख्वाब को बहुत पीछे
भटकने के लिये
फिर,
पूरे रास्ते मुझे देखना होता है
मुड़-मुड़ के /
ठिठकना होता है सशंकित
ढूंढते अपनी परछाई में
चिपके हुये ख्वाब को
वह,
कहीं भी मिल जाता है
अक्सर किसी सूने से मोड़ पर तलाशता
जब मुझे यह लगने लगे कि
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
ख्वाब को
सच्चाईयों के पीछे भागते
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-फरवरी-२००९ / समय : १०:४५ / घर
बहुत देर लगती है
किसी ख्वाब से पीछे छुडाने में
आँख खुलने के पहले ही
छाने लगता हैं धुंध सा दिमाग पर /
दृष्टी पर छाया होता हैं
मोतियाबिंद के जाल सा
मुझे,
कई बार बदलना होता है
अपना रास्ता,
या यूँ ही भटकना होता है
सड़कों पर अजनबी सा देर तक
जब तक यह भरोसा ना हो जाये कि
मैं छोड़ आया हूँ ख्वाब को बहुत पीछे
भटकने के लिये
फिर,
पूरे रास्ते मुझे देखना होता है
मुड़-मुड़ के /
ठिठकना होता है सशंकित
ढूंढते अपनी परछाई में
चिपके हुये ख्वाब को
वह,
कहीं भी मिल जाता है
अक्सर किसी सूने से मोड़ पर तलाशता
जब मुझे यह लगने लगे कि
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
ख्वाब को
सच्चाईयों के पीछे भागते
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-फरवरी-२००९ / समय : १०:४५ / घर
वैलेन्टाइन डे - विशेष
शनिवार, 14 फ़रवरी 2009
हम,
जितना बचाना चाहते हैं
उतनी ही तेजी से बदल रहीं हैं
हमारी परंपरा
प्रेम,
अब भूलने लगा है
बसंती फूलों की भाषा
रट रहा है
लाल गुलाबों का ककहरा
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १४-फरवरी-२००९
जितना बचाना चाहते हैं
उतनी ही तेजी से बदल रहीं हैं
हमारी परंपरा
प्रेम,
अब भूलने लगा है
बसंती फूलों की भाषा
रट रहा है
लाल गुलाबों का ककहरा
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १४-फरवरी-२००९
मैं, डरता हूँ सच से
बुधवार, 11 फ़रवरी 2009
मैं,
डरता हूँ सच से /
बचना चाहता हूँ सामना करने से
और वह हर कोशिश करता है
मुझसे मुकाबिल होने की
सच,
से बड़ा बहरुपिया मैनें नही देखा
आज तक
हर बार मेरे सामने आता है
कुरेदता है मेरे जख्मों को
और,
फिर मेरी टीसों से झांकता है /
बहता है मवाद सा नासूर से
मैं,
डरता हूँ सच से
वह काबिज होना चाहता है
मेरे कंधो पर फिर उतर जाता है
मेरी बैसाखियों में बदल कर आवाज में
जो चीखती हैं मेरी आहट से पहले
सच,
कुछ भी नही रखता अपने पास
बख्शता नही किसी को भी
मैने बहुतेरी कोशिश की
झूठ के मेकअप से
लिखूं वो जिसे मैं कहना चाहता हूँ
आजकल,
वह मेरे आईने में उतर आता है
और
मेरी कनपटी पर लिखता है /
चेहरे पर टांकने लगता है झुर्रियाँ
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-फरवरी-२००९ / समय : ११:१० रात्रि / घर
डरता हूँ सच से /
बचना चाहता हूँ सामना करने से
और वह हर कोशिश करता है
मुझसे मुकाबिल होने की
सच,
से बड़ा बहरुपिया मैनें नही देखा
आज तक
हर बार मेरे सामने आता है
कुरेदता है मेरे जख्मों को
और,
फिर मेरी टीसों से झांकता है /
बहता है मवाद सा नासूर से
मैं,
डरता हूँ सच से
वह काबिज होना चाहता है
मेरे कंधो पर फिर उतर जाता है
मेरी बैसाखियों में बदल कर आवाज में
जो चीखती हैं मेरी आहट से पहले
सच,
कुछ भी नही रखता अपने पास
बख्शता नही किसी को भी
मैने बहुतेरी कोशिश की
झूठ के मेकअप से
लिखूं वो जिसे मैं कहना चाहता हूँ
आजकल,
वह मेरे आईने में उतर आता है
और
मेरी कनपटी पर लिखता है /
चेहरे पर टांकने लगता है झुर्रियाँ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-फरवरी-२००९ / समय : ११:१० रात्रि / घर
मुट्ठी से फिसलता सूरज
सोमवार, 9 फ़रवरी 2009
मैं,
सूरज को अपनी मुट्ठी में कैद
कर लेने की चाहत में
छोड़ देता हूँ घर
उस वक्त
जब सूरज कर रहा होता है
जद्दोजहद
क्षितिज पर बाहर निकल आने की
मेरी,
अपनी मुट्ठी में
उंगलियों के बीच
बहुत जगह होती हैं जहाँ से
मेरे हिस्से का सूरज
फिसल जाता है अक्सर मेरी पकड़ से
और अंधेरा फिर काबिज हो जाता है
जहाँ, मैने बसाया था रोशनी को
रोशनी,
दिनभर ढूंढती हैं
पेडों के बीच पसरी छांव /
चुल्लु भर पानी की ठंड़क /
मुट्ठी भर गुड़-चने की आस /
फिर थक-हार
चुहचुहाने लगती है पेशानी पर
और बदलकर पसीने में
समा जाती है धरती में
सूरज,
जब ठहरता है मुट्ठी में
थोड़ी देर को भी तो गदेलियों पर
उभरने लगते हैं छाले
जिनमें भरे होते है पिघले हुये ख्वाब
जो रात चांद का मरहम जमा देगा
और बदल देगा
उंगलियों के बीच की खाली जगह में
जहाँ से, अक्सर
फिसल जाता है कैद में आया
सूरज
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-फरवरी-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर
सूरज को अपनी मुट्ठी में कैद
कर लेने की चाहत में
छोड़ देता हूँ घर
उस वक्त
जब सूरज कर रहा होता है
जद्दोजहद
क्षितिज पर बाहर निकल आने की
मेरी,
अपनी मुट्ठी में
उंगलियों के बीच
बहुत जगह होती हैं जहाँ से
मेरे हिस्से का सूरज
फिसल जाता है अक्सर मेरी पकड़ से
और अंधेरा फिर काबिज हो जाता है
जहाँ, मैने बसाया था रोशनी को
रोशनी,
दिनभर ढूंढती हैं
पेडों के बीच पसरी छांव /
चुल्लु भर पानी की ठंड़क /
मुट्ठी भर गुड़-चने की आस /
फिर थक-हार
चुहचुहाने लगती है पेशानी पर
और बदलकर पसीने में
समा जाती है धरती में
सूरज,
जब ठहरता है मुट्ठी में
थोड़ी देर को भी तो गदेलियों पर
उभरने लगते हैं छाले
जिनमें भरे होते है पिघले हुये ख्वाब
जो रात चांद का मरहम जमा देगा
और बदल देगा
उंगलियों के बीच की खाली जगह में
जहाँ से, अक्सर
फिसल जाता है कैद में आया
सूरज
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-फरवरी-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर
समय से तेज चलती घड़ियाँ
शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009
शाम,
जो होने को आती है
ना जाने कहां से हाथों में तेजी आ जाती है
दिनभर सुस्त सा रहना वाला ऑफिस
सिमटने लगता है फुर्ती से
जेबों से निकलने लगती है
मुड़ी-तुड़ी पर्चियाँ
तय होने लगते हैं रूट फटाफट
कंधों पर लटकने लगते है झोले
हैण्ड़बैग से बाहर आ ही जाती है थैलियाँ
किसी को लेने कोई आया है /
किसी को किसी का इंतजार है
और
घर सभी पर सवार होने लगता है
कोई,
रिव्यू नही होना है /
ना कोई प्लान था / ना कोई टारगेट है
सभी जैसे दफ्तर पहली फुर्सत में ही आये हैं
पंच / लंच और फिर पंच की क्रम में
किसे परवाह पड़ी है कि पूछे भी
कहां से चले थे सुबह और
कहां तक पहुँचे है
शाम, रंगीन है और रंगीन बनी रहे
इसलिये कोई किसी से कुछ पूछता भी नही
सरकारी,
दफ्तर है बस चलता ही रहेगा
सरका री का नारा टेबलों पर
दिखाता रहेगा असर
जब तक कुछ सरकेगा नही
कुछ भी नही सरकेगा अपनी जगह से
चाहे देश कितनी ही रफ्तार से बढ रहा हो आगे /
कार्पोरेट कल्चर झलकने लगा हो
इश्तेहारों में
सभी की घड़ियाँ दौड़ती हैं समय से तेज
सिर्फ ऑफिस में
-----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-फरवरी-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर
जो होने को आती है
ना जाने कहां से हाथों में तेजी आ जाती है
दिनभर सुस्त सा रहना वाला ऑफिस
सिमटने लगता है फुर्ती से
जेबों से निकलने लगती है
मुड़ी-तुड़ी पर्चियाँ
तय होने लगते हैं रूट फटाफट
कंधों पर लटकने लगते है झोले
हैण्ड़बैग से बाहर आ ही जाती है थैलियाँ
किसी को लेने कोई आया है /
किसी को किसी का इंतजार है
और
घर सभी पर सवार होने लगता है
कोई,
रिव्यू नही होना है /
ना कोई प्लान था / ना कोई टारगेट है
सभी जैसे दफ्तर पहली फुर्सत में ही आये हैं
पंच / लंच और फिर पंच की क्रम में
किसे परवाह पड़ी है कि पूछे भी
कहां से चले थे सुबह और
कहां तक पहुँचे है
शाम, रंगीन है और रंगीन बनी रहे
इसलिये कोई किसी से कुछ पूछता भी नही
सरकारी,
दफ्तर है बस चलता ही रहेगा
सरका री का नारा टेबलों पर
दिखाता रहेगा असर
जब तक कुछ सरकेगा नही
कुछ भी नही सरकेगा अपनी जगह से
चाहे देश कितनी ही रफ्तार से बढ रहा हो आगे /
कार्पोरेट कल्चर झलकने लगा हो
इश्तेहारों में
सभी की घड़ियाँ दौड़ती हैं समय से तेज
सिर्फ ऑफिस में
-----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-फरवरी-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर
मेरे हिस्से में चाँद आता है
बुधवार, 4 फ़रवरी 2009
माँ,
जब सपनों को झोंकती है
चूल्हे में तो रोती है झार-झार
मैं यह समझ नही पाता था
और माँ,
उम्मीदों को फूंकनी बना
आग को हवा देती थी
ना,
जाने कब रोटी का इंतजार करते
हम उनींदे से झोले खाते
तो मँ लोरी परोस देती
थपकियों के साथ
गोद में सुलाते
सुबह,
माँ घर से निकलने के पहले
हमें बताती की
रात तुम्हारी रोटी
हवा में उड़ आसमान में टंग गई है
आज रात देखना
कितनी बड़ी बनायी थी मैने तुम्हारे लिये
तबसे,
मैं जब भी देखता हूँ
आसमान में चाँद
मन उदास हो जाता है कि
कोई तो है जो आज भी
मेरे हिस्से की रोटी पर
अपना हक़ जताता है
और मेरे हिस्से में
या तो लोरियाँ आती हैं
या चाँद आता है.
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-दिसम्बर-२००८ / समय : रात्रि ११:५० / घर
जब सपनों को झोंकती है
चूल्हे में तो रोती है झार-झार
मैं यह समझ नही पाता था
और माँ,
उम्मीदों को फूंकनी बना
आग को हवा देती थी
ना,
जाने कब रोटी का इंतजार करते
हम उनींदे से झोले खाते
तो मँ लोरी परोस देती
थपकियों के साथ
गोद में सुलाते
सुबह,
माँ घर से निकलने के पहले
हमें बताती की
रात तुम्हारी रोटी
हवा में उड़ आसमान में टंग गई है
आज रात देखना
कितनी बड़ी बनायी थी मैने तुम्हारे लिये
तबसे,
मैं जब भी देखता हूँ
आसमान में चाँद
मन उदास हो जाता है कि
कोई तो है जो आज भी
मेरे हिस्से की रोटी पर
अपना हक़ जताता है
और मेरे हिस्से में
या तो लोरियाँ आती हैं
या चाँद आता है.
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-दिसम्बर-२००८ / समय : रात्रि ११:५० / घर
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