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कविता : आदमी के करीब रहते हुए

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

!, मुझे तभी तक अच्छा लगा
जब तक मैं समझता रहा कि
केवल मुझे ही हक़ है
मुँह उठा के बोल देना का
कुछ भी / किसी को भी
बगैर यह देखे कि
मेरा सच उसके दिल को चीर के निकलेगा कहीं
या तोड़ देगा उसके विश्वास को
कि सच होता है, अब भी ?
 
धीरे-धीरे
मुझे, यह समझ आने लगा कि
सच!
अक्सर तकलीफ पहुँचाता है
अब, हर खुशी में तलाशता हूँ 
झूठ पहले
या जब भी किसी ने कहा मेरे सामने
अपना सच!

ई बार
मुझे धोखा हुआ है
आईने के सामने कि
मैं जो देख रहा हूँ वो सच! है?
और हर बार
मुझे यूँ लगा कि
आईना भी सीख गया है
झूठ बोलना
आदमी के इतने करीब रहने का
कुछ तो असर हुआ होगा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-ऒक्टोबर-2011 / समय : रात्रि 12:05 / घर