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फिर भी ड़र तो लगता ही है न ?

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

मैंने,
सीखा वक्त के साथ
दीवार के पार देखना/
देख लेना चेहरे के पीछे चेहरा
सूरज, जहाँ डूबता प्रतीत होता है
वहाँ की गहराई नाप लेना


मैंने,
यह भी सीखा कि
जिंदा रहने के लिये
जो जरूरी है
कैसे किया जाये?
जिन्दा बने रहने के लिये
जो भी जरूरी हो


सीखा,
तो यह भी था कि
जब जिन्दा रहना ही एक सवाल हो
तो कैसे बचाये रखना है
अपनेआप को
लेकिन
फिर भी ड़र तो लगता ही है न ?
आखिरकार,
जिन्दा बचे रहना
केवल अपने हाथ में ही तो नही होता
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २६-मार्च-२०१० / समय : १०:५६ रात्रि / घर

नींद को थपकियाँ देते हुये

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

मुझे,
यह भ्रम अक्सर होता है कि
कोई मेरे दरवाजे पर
दे रहा है दस्तक
या कभी रात यह भी महसूस होता है कि
पुकारा है किसी ने मेरा नाम लेकर
या
कोई मेरा पीछा कर रहा है
बड़ी देर से
मुझे सुनायी देती हैं
अन्जानी आहटें रह रहकर
या
किसी मोड़ पर
ठिठक जाते हैं कदम मुड़ने से पहले
लगता है कोई मेरी ताक में बैठा है छिपकर

मुझपे,
सवार हो यह भ्रम
उतर आता है मेरे बेड़रूम में
मैं महसूस करता हूँ
किसी साये की गर्मी को
बड़ी देर से यूँ ही बिछी हुई चादर पर
फिर,
वही भ्रम दौड़ने लगता है
मेरी रगों में
और
चुहचुहाने लगता है पेशानी पर
लगता है
आज फिर जागना पड़ेगा सारी रात
नींद को थपकियाँ देते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०६-अप्रैल-२०१० / समय : ०७:४५ सायं / ऑफिस से लौटते