.post-body { -webkit-touch-callout: none; -khtml-user-select: none; -moz-user-select: -moz-none; -ms-user-select: none; user-select: none; }

कविता : वैतरणी के पार

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

आग / पानी / हवा /
मिट्टी और आकाश से ड़रने के बाद
जब आदमी आदिम से अवतरित हो रहा होगा
तब कल्पना ने अपनी पैठ बनायी होगी
आकाश के पार
स्वर्ग और नर्क की रचना के बाद
वैतरणी अवतरित हुई होगी
गरूड़ पुराण के साथ


वैतरणी,
धरती पर जीवन के बाद की
सबसे बड़ी अवधारणा रही होगी
जिसे समझ के विकसित होने की प्रक्रिया में
और भी ज्यादा
भयावह बनाया होगा क्रमशः
कोई भी अनुसंधान लक्षित नही कर पाया
क्या वाकई वैतरणी जैसी कोई नदी भी है?
या हम यूँ ही ड़र रहे हैं?


जबसे,
बच्चे पैदा होने लगे हैं
चूजों की तरह प्रयोगशालाओं में अपने मनमाकिफ़ /
या कपास सीधे ही पहना जाने लगा है फ़ाहों की तरह /
या आदमी हो आया है चाँद पर
और समझने लगा है
हकीकत और कल्पना में भेद
कि स्वर्ग और नर्क जो भी यहीं हैं
पृथ्वी पर
तब से वैतरणी सिमट आयी है आकार में
ढ़ाई बाय पाँच या तीन बाय साढ़े पाँच के टेबल टॉप के बराबर
और आदमी जिन्दा ही
टेबल के इस पार से उस पार की यात्रा में
महसूस करता है
वैतरणी पार करने के सारे सुःख (दुःख मैं कहना नही चाहता)
अकेला ही /
किसी भी कीमत पर
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 20-अगस्त-2010 / समय : 05:30 सुबह / घर

कविता : रात नही होती तो

बुधवार, 18 अगस्त 2010

मुझे,

यह लगता है कि
रात नही होती तो
मैं,
दिन को खींचकर लम्बा कर लेता
शाम के मुहाने से
और खो जाता कहीं उस भीड़ में
जो, घर से निकलती तो है
और लौटने के पहले
बदल जाती है कहानियों में
घर के मुहाने पर

मुझे,

यह लगता है कि
रात नही होती तो
मैं,
कैद कर लेता सपनों को पलकों में
आँसुओं में बदलने से पहले
और ढ़ल जाता किसी गीत में
जिसे गुनगुनाया जा सकता है
मौन रहकर भी
और जिसकी अनुगूंज को किया जा सकता हो महसूस
दीवारों पर दरार बनाते हुये
जिनके पार दुनिया को देखा जा सकता है
बिना किसी चष्में के
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 17-अगस्त-2010 / समय : 10:17 साँय / ऑफिस

पतों के बीच लापता होते हुये

रविवार, 8 अगस्त 2010

दिन, जैसे आग में झुलस रहे हों
रातें,
पक रही हों अलाव की धीमी आँच पर
अब न भोर सुहाती है
न शाम सुहानी लगती है
सुकून,
जरूर किसी चिड़िया का नाम होगा
आजकल तो
शहर में इतनी भीड़ है कि
कभीकभी खुद परछांई को भी मुश्किल होता है
तलाश लेना ज़मीन अपने लिये
इंसानों से बचते हुये


दीवारों,
पर तनी हुई छत को
भले ही पहचाना लिया जाये
एक घर के नाम से
लेकिन वह छटपटाता रहता है
अपनी पहचान से
पूरी जिन्दगी एक पते से चिपके हुये
और
दीवारों के बाद
या तो जरूरतें बिखरी होती हैं
या रिश्ते तने हुये होते हैं
या आदमी गुम हुये होते हैं खुद की तलाश में
घर अब भी मौजूद होता है वहीं
पतों के बीच लापता होते हुये
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-अगस्त-२०१० / घर / समय : ०२:५३ दोपहर