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मेरा तुम्हारा क्षितिज

बुधवार, 27 जनवरी 2010

मेरी,
कुछ अपनी क्षमता थी /
कुछ अपना नज़रिया /
और कुछ आकलन
तुमसे जुड़ने के बाद मुझे लगा था कि
मैं,
कर पाऊंगा विस्तार अपनी सीमाओं का
और व्यापक / पैनी / समग्र

तु
मेरे विचारों को मार रहे हो
गर्भ में ही
जहाँ वो आकार लेते रहे थे
और
अपने नज़रिये को थोप रहे हो
मैं,
यह महसूस कर रहा हूँ कि
कोई बदल रहा है किसी मशीन में मुझे
न कोई विचार आते हैं कोई /
न स्पंदन होता है /
न नज़रिया बचा है

तुम भी,
शायद उन ऊँचाईयों से
उतना ही देख पा रहे हो
जितना कि देख सकते थे
उसके आगे तुम्हारी दुनिया सिमट रही है
और,
जहाँ मैं मदद कर सकता था
अपने नज़रिये से
क्षितिज को पीछे धकेलने में
कि बढ़ा सकें दुनिया अपने हिस्से की
मैं भी उतना ही देख पा रहा हूँ
जितना कि तुम
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २७-जनवरी-२०१० / ऑफिस / समय ०१:३० दोपहर

ज़मीन से कटा हुआ आदमी

बुधवार, 6 जनवरी 2010

हवा,


जिसे हम महसूस कर लेते हैं

बहते हुये /

शरीर को छूकर गुजरते हुये

या कभी सूखते हुये पसीने की ठण्डक में



ना,

तो मैंने उसे देखा है

ना ही आपने देखा होगा

वही हवा,

जब भर जाती है इन्सान में

तो नज़र आती है

उनकी बातों में

जो ज़मीन के ऊपर ही उतराते हुये

ना किसी के दिमाग में जाती हैं /

ना काम आती हैं

अलबत्ता,

हम जरूर देख पाते हैं इन्सान को

हवा में तैरते हुये

चारदीवारी में कैद ज़मीन से कटा हुआ

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मुकेश कुमार तिवारी

दिनाँक : ०६-जनवरी-२०१० / समय : ०५:०० शाम / ऑफिस