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उम्र को पीछे छोड़ देने की चाहत

बुधवार, 29 जुलाई 2009

सारे,
घर को नचाने वाली
जिससे पूछे बिना एक पत्ता भी ना हिलता हो
आंगन में
या जिससे दर्पण, समर्पण कर बैठा हो
जब खडी होती है
मॉल्स में
किसी कॉस्मेटिक काऊंटर पर
ठिठकी सी
बेचारी लगती है

सेल्सगर्ल,
अपना काम बडी ही खूबी से
कर रही होती है
एक सपना सजों देने का
उसकी आंखों में
ब्यूटी टिप्स के साथ
फेस मास्क के साथ कंडीशनर /
एंटी रिंकल क्रीम / हेयर कलर्स के नये शेड
वह बस ठगी सी खड़ी होती है
हाथों में थामे
कुछ सुन्दर सी बोतलें / पैकेट्स
उम्र को पीछे छोड़ देने की चाहत में
वह कुछ भी तय नही कर पा रही है
रुके कुछ देर यूँ ही
और बसाये हसीन ख्वाबों को आँखों में /
या अपनी राह देख ले

वह,
कभी तो
जैसे लड़ रही होती है
अपने आप से
क्या छोडे क्या ले अपने साथ
फिर हार कर पूछ ही लेती है
उस बंदे से
चलें, कब से यूँ ही खड़े हो?
और
वह बेचारा चुप रह जाता है
गर्दन हिलाते हुये
कुछ ऐसे कि
जिसका मतलब हाँ या ना दोनों में से
किसी एक में निकाला जा सकता हो अपनी सहुलियत से

अब तक वह,
खुद भी बोर हो चुकी होती है
किसी दूसरे के इशारों पर बहुत देर तक नाचते हुये
अब,
उसे याद आने लगा है घर /
पड़ा हुआ काम /
आज महरी नही आने वाली है /
और,
बाजार में जो भी कुछ है
वह किसी न किसी के पास तो है
कुछ भी नया / एक्सक्लूसिव्ह नही है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १९-मार्च-२००९ / समय : ११:३५ रात्रि / घर

बाट जोहते हुये

शनिवार, 25 जुलाई 2009

जबसे,
परिवार छोटे और मॉड्यूलर हुये हैं
छाते भी सिमटने लगे हैं आकार में
छाता,
अब कम ही देखने में आता है
काला, सारस सा गर्दन मोड़े हुये
बड़ा इतना की घुटनों के नीचे तक कपड़े भीगने से बचें रहे
वैसे भी अब इतने बड़े कपड़े पहनता कौन है

यह छाते,
पुरखों से हस्तांरित होते हुये पीढियों में
जिन पर कहीं दादी ने तुरपई की हो सुराख पर
या दादा ने पहले सीखा हो लिखना
फिर धागों से गोठा हो अपना नाम
अब भी पाये जाते हैं
घरों में लटके हुये खूंटियों पे संस्कारों के साथ
या किसी कोने में कबाड़ के साथ
बाट जोहते हुये कि
किसी दिन बारिश होगी
और वो फिर निकाले जायेंगे
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-जुलाई-२००९ / समय : ०३:४८ दोपहर / घर

कैसी लगती हो.....?

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

तुम,
जब मुस्कुराती हो
और मेरे कंधे पर सिर टिकाते हुये
बात करती हो
कुछ शिकायत भी
अच्छी लगती हो


तुम,
जब शाम से ही
मेरा इंतजार करती हो
और मेरे आते ही
समा जाती हो
मेरी बांहो में
अच्छी लगती हो

तुम,
जब बिलखने लगती हो
नाराज किसी बात पर
और मेरी किसी भी बात को
नही सुनती हो
बच्ची लगती हो

तुम,
जब उदास होती हो तो
पैर पटकते हुये
घूमती हो आँगन में
या सिर पर पट्टी बांधे
सिमटी होती हो बिस्तर पर
क्या कहूँ .............?
कैसी लगती हो ?
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-मई-२००९ / समय : १०:०५ रात्रि / घर

शब्दों की तलाश में

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

मैं,
नही चाहता कि
तुम किसी दिन भूल जाओ
अपना नाम भी
और गुमसुम बैठी रहो ताकते शून्य में
और चेहरे पर उभर आयें आंसुओं की लकीरें

किसी,
प्रश्‍न के जवाब में
तुम्हें तलाशने हो शब्द
फिर थक-हार चुप बैठ जाना हो
या बड़ी देर बाद कुछ कहो
और,
किसी प्रतिप्रश्‍न के जवाब में सुबकते हुये
थमी नज़रों से देखो मेरी ओर
फिर दीवारों पर पढती रहो खबरें
या फर्श पर देखती रहो आसमान

मैं,
नही चाहता कि
तुम अब तलाश की शुरूआत करो
खोजो गुम हो आये शब्दों को
परदों पर लिखो इबारतें
या किसी उलझी हुई कॅसेट को सुलझाते हुये
गुजार दो पूरा दिन
और आईने से खुद का पता पूछती रहो
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ११-जुलाई-२००९ / समय : १२:३८ रात्रि / घर

घर

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

घर,
जिसकी दीवारों से सीलता हो
बुजर्गों का आशीर्वाद
उखड़ते प्लास्तर से झांकती हो
दुआयें
छतों से टपकता हो
अपनापन
या दहलीज लांघकर आ जाती हो
बरकत,
बारिश के पानी के साथ


घर,
जिसे नया बनाने के लिये
माँ ने पापा से कितनी ही लड़ाईयाँ लड़ी हो
कभी-कभी आँसू भी बहाये हों
बच्चों ने सिखायी हो
अपने बाप को प्लानिंग
या कभी दिखायी हों नाराजगियाँ

अंततः,
एक अदद किराये के मकान के साथ
जिसे घर में बदला जा सकता है
वही घर,
एक एककर जब खाली होता है तो
लिपटता चला जाता है बदन से
और चल पड़ता है
हमारे साथ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०४-जुलाई-२००९ / समय : दोपहर ०४:०० / नये घर में

मकां को कभी घर बनाया होता

शनिवार, 11 जुलाई 2009

यह मैं भली भांति जानता हुँ, कि मेरे शौक में अकविता-कविता लिखना रहा है। धीरे-धीरे अंतरजाल पर गज़अलों को पढते हुये और गुरूजी श्री पंकज सुबीर सा. की कक्षाओं से जो कुछ सीखा उसे आजमाने की कोशिश की है।

आप सभी के विचार / सुझाव चाहूँगा।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

मकां को कभी घर बनाया होता
हौले से कभी हाथ दबाया होता

बदली सा बरस जाता मुसल्सल
भूले से कभी ख्वाबों में बुलाया होता

बोझिल सी दुपहर में कुछ पल साथ होते
हाल-ए-दिल सुनके कुछ अपना सुनाया होता

अल्फा़जों की भी कोई हद होती है
यह फलसफ़ा कभी आँखों से पढ़ाया होता

स्याह रातों का मुकद्दर ना देखो
आफ़्ताब कभी हाथों में उगाया होता

खुश्बू तेरा भी जिक्र करती बहार से
जो कभी बाग खिजां में लगाया होता

शब़नम की नमी लेकर सहरा की धूप में
वो शख्स कभी पसीने में नहाया होता
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एक, मुट्ठी धूप

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

एक,
मुट्ठी धूप की तलाश में
पूरी जिन्दगी गुजर गई
हथेलियाँ नही थाम पायी अपने हिस्से में आई धूप
यादों के सिलसिले सी
बस बरसती चली गई मुसलसल
स्याह नम अंधेरों में घुली हवा
बुझा रही थी आग
जहाँ भी थी / जितनी भी

गुनगुनी धूप,
जब सरकी उंगलियों की दरारों से तो दरकती हुई
फिर मिल गई चमकती धूप में
मेरे हिस्से में रह गई
गदेलियों पर मखमली तपन
और उंगलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ
जो, छांह के मरहम में
तपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-जून-२००९ / समय : १०:४४ / घर