साँप,
यदि अब भी साँप की तरह ही होते
तो अब तक उग आते पँख उनके
और दादी की किस्सों की तरह उड़ने लगते
आसमान में
जब से,
परियाँ आसमान से
नही उतरी ज़मीन पर
और मेरे पास वक्त नही बचा
न दादी के लिये और न अपने लिये
साँप,
पहनने लगे हैं इन्सानी चेहरा
और बस्तियों में रहने लगे हैं
बड़ा खौफ बना रहता है
किसी इन्सान के करीब से गुजरते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १७-जुलाई-२०१० / समय : ०५:४५ सुबह / घर
नजदीकियों के चाक पर
गुरुवार, 8 जुलाई 2010
तुम,
जब मेरे कंधे पर रखते हो
अपना हाथ
तो, मैं महसूस करता हूँ
कि कोई दबा देना चाहता है
मेरा हर वो हिस्सा
जो तलाश लेता है अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम
बिना झुके हुये
और दे देना चाहता है
अपनी पसंद का आकार मुझे
नजदीकियों के चाक पर
तुम,
जब मुस्कुराते हुये
पूछते हो मुझसे मेरा हाल
तो, मैं मह्सूस करता हूँ
तुम्हारी मुस्कुराहटों को दिल के पार गुजरते हुये
जैसे कोई बाँट देना चाहता है
मुझे दो हिस्सों में
एक वो जिसे मैं ढो रहा हूँ
और, एक वो जिसे तुम खरीदना चाहते हो
अपनी मुस्कुरहाटों के मोल पर
तुम,
जब मुझस बातें करते हों
मेरी आँखों में आँखें डालकर
तो, मैं महसूस करता हूँ
कि कोई मुझसे ही छीन रहा है
मेरी निजता
और थोप रहा है अपने शब्दों को मेरे जे़हन में
कि वह नाच सकें
तुम्हारे ईशारों पर किसी कठपुतली की तरह
अपनी पहचान खोते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०५-जुलाई-२०१० / समय : ०७:१० शाम / ऑफिस से लौटते
जब मेरे कंधे पर रखते हो
अपना हाथ
तो, मैं महसूस करता हूँ
कि कोई दबा देना चाहता है
मेरा हर वो हिस्सा
जो तलाश लेता है अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम
बिना झुके हुये
और दे देना चाहता है
अपनी पसंद का आकार मुझे
नजदीकियों के चाक पर
तुम,
जब मुस्कुराते हुये
पूछते हो मुझसे मेरा हाल
तो, मैं मह्सूस करता हूँ
तुम्हारी मुस्कुराहटों को दिल के पार गुजरते हुये
जैसे कोई बाँट देना चाहता है
मुझे दो हिस्सों में
एक वो जिसे मैं ढो रहा हूँ
और, एक वो जिसे तुम खरीदना चाहते हो
अपनी मुस्कुरहाटों के मोल पर
तुम,
जब मुझस बातें करते हों
मेरी आँखों में आँखें डालकर
तो, मैं महसूस करता हूँ
कि कोई मुझसे ही छीन रहा है
मेरी निजता
और थोप रहा है अपने शब्दों को मेरे जे़हन में
कि वह नाच सकें
तुम्हारे ईशारों पर किसी कठपुतली की तरह
अपनी पहचान खोते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०५-जुलाई-२०१० / समय : ०७:१० शाम / ऑफिस से लौटते
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