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कविता : संवाद में ढ़लते हुये

गुरुवार, 24 मार्च 2011

विचार,
जब उठते हैं
मन में ज्वार की तरह
तो अपनी अनुगूंज से पैदा करते हैं
शब्द!
और विलीन हो जाते हैं
मन की गहराईयों में कहीं
छटपटाते हुये

शब्द!
जब जन्म लेता है तो
कुलबुलाता है दिमाग की तह में
और मचलता है
पैर पसारने को
अकेला शब्द जब कुछ नही कर पाता है तो
अपने ही हिस्से से पैदा करता है
शब्द कई टूटते-जुड़ते हुये ढ़ल जाता है
संवाद में
और तौड़ देता है
सारे मौन को
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 24-मार्च-2011 / समय : 02:20 दोपहर / लंच ब्रेक में

कविता : मैंने चुन रक्खे हैं पलाश

सोमवार, 14 मार्च 2011


मेरे होने या न होने से
क्या फर्क पड़ेगा
न होली के रंग फीके होंगे
ना बेमजा हो जायेगा भीगने का आनन्द
फागुन वैसे ही आया है
कुछ देर से
भला अब कोई मुझे तलाशे /
मेरे लिये रूके / या भागते फिरे जंगल में
चीखते पलाश के पीछे
जिन्दा रहना यूँ भी आसान तो नही है
वो भी,
इन्सानी बस्ती में
एकबार जंगल होता तो......


मेरे,
लिये न कभी रात होगी जवाँ
न किसी सुबह सूरज
पूछेगा मुझसे निकलने के पहले
यद्दपि,
भिनसारे (मुँहअंधेरे) या गोधूलि (धुंधलके) में
तुम अपना चेहरा देखोगी
आईने में तो
मेरी शक्ल नज़र आयेगी
मैं,
तुमसे कोई सवाल नही करूँगा
लेकिन
मेरी चुप!
तुम बर्दाश्त नही कर पाओगी


मैं,
अब भी वहीं हूँ वैसा ही
सिर्फ एक बार
तुम मुझे दिल से याद करो
मैंने,
चुन रक्खे हैं पलाश
तुम्हारे ऊपर अपना रंग डालने को
एक बार तुम्हें
अपने रंग में रंगना चाहता हूँ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 14-मार्च-2011 / समय : 1:40 दोपहर / ऑफिस(लंच ब्रेक)

कविता : वक्त की साजिशों......

गुरुवार, 3 मार्च 2011

जब,
पूरी काईनात
सूरज को परे धकेल रही होती है
अपनी जिन्दगी से
तब,
तुम्हारे हाथों को अपने हाथ में लिये
मुझे यह लगता है कि
तुम हँस पड़ोगी अचानक खिलखिलाकर
मेरी किसी बात पर
और इस शाम की बेवा होने के पहले
गोद भर जायेगी

सुबह,
की जल्दी मुझे तो नही थी
कम-अज-कम
सोचता हूँ कि
यह रात यूँ ही थमी रह जाये
सुबह के साथ
वक्त की साजिशों का असर होने लगेगा
तुम्हारी मखमली छुअन में उभरने लगेगीं खारिशें
और
मेरे पेट में आग

कभी,
यह सोचता हूँ कि
हम यूँ ही खोये रहे आस्माँ ताकते हुये
इस रात की अवधि को ही
बदलकर रख दें चौबीस घंटों में
और दिन को हिस्से को
यूँ ही खोया रहने दें
सूरज के ख्वाब बुनते
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 27-फ़रवरी-2011 / 11:15 रात्रि / घर