आकाश ,
तुम एक चुनौती ही रहे मेरे लिये
मैनें अपनी ऊँचाईयों को पहचाना
तुम्हारे होने से
और
हमारे फासले के बीच
क्षितिज से लगाकर व्योम तक
मैनें अपनी साँसे भर दी
और गौण हो गया
तुम्हारे साये में
मैनें लिक्खी थी जो कहानियाँ
वो किसी उपन्यास में बदलने के पहले ही
खत्म हो गयी
चौराहों पर कानाफूसी में
और
तुम अजेय बने रहे
तुम,
अपना सूनापन
मेरी साँसों में भर
खुद हँस लेते हो
मेरी नाकामियों पर
और
मुझे तलाशना होता है
अपने वुजूद को
धरती के इस छोर से उस छोर तक
फिर तुम्हारे विस्तार में
जहाँ शुभ्र चटक रंग वालों बादलों के बाद
कोई जगह नही बचती
मेरे लिये
आकाश,
तुम कभी मुझे लगे
कि जैसे किसीने
मेरे सिर पर खींच दी हो
सीमारेखा
या बाँध ली हो
मेरी ऊँचाईयों को
और हमारे बीच ठूंस दिया हो
जिम्मेदारियों को लानतों में बदलकर
और तुम मोहरा भर बने रहे
इस साजिश में
मेरे खिलाफ़
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 30-ऑक्टोबर-2010 / समय : 01:00 रात्रि / सी.एच.एल.-अपोलो हास्पिटल, इन्दौर
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