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कविता : घमौरियाँ पालते हुए

सोमवार, 23 मई 2011

गर्मियों के आते ही कोयल का कूकना, आम की डालियों का फलों से लद जाना, प्यास बुझाते लाल तरबूज और न जाने क्या-क्या। लेकिन घमौरियों का गर्मी में उभर आना जैसे किसी बिन बुलाये मेहमान की तरह आ जाना गर्मियों के दिनों को रह-रहकर याद दिलाता है। मुझे ऐसा लगता है केवल घमौरियाँ ही मौसम की वज़ह से नही आती कोई और भी इस साजिश में शामिल है.......

विचारों से,
जैसे भागना मुश्किल था
पूरे दिमाग में महसूस कर रहा था
बादलों की तरह घुमड़ते
या अलाव पर फुदकते हुए पॉपकार्न सा
और
अपनी प्रोफ़ेशनल मज़बूरियों के चलते
न भीग पा रहा था
न कसमसा पा रहा था

वो,
सुबह जिसके सपने
देखे थे सारी रात
और आँखों में ही गुजार दिया था
वो सारा वक्त
जब दुनिया या तो
बढ़ने की कवायद में जुटी होती है
या व्यापार कर रही होती है
घोडों का
तब मैं बुन रहा था
एक निराली सुबह अपने लिये

उस,
सुबह का इंतजार
मुझे हर रात के बाद होता है
लेकिन,
सूरज मेरे लिये उगता ही है
बोझिल / थका-माँदा
जैसे रात ने
उसे उछालकर फेंक दिया हो
क्षितिज से आसमान की ऊँचाईयों पर
और वो मेरे कंधों पे
अपना सिर रखकर सो जाता है
मैं अपनी पीठ पर
पालने लगता हुँ घमौरियाँ
अपनी सुबह का इंतजार करते
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 07-मई-2011 / समय : 12:27 रात्रि / घर

कविता : मेरा - तुम्हारा सच!

मंगलवार, 17 मई 2011

सच!,
क्या उतना ही था?
जितना कि हम जानते थे
उसे सच होने के लिये
या कुछ और भी था
जुदा उसके सच होने से?

सच!,
जब मैनें पूछा किताबों से तो
गुम हो गया कहीं
अलबत्ता झूठ के पुलिंदों में मौजूद
हर काले अक्षर ने
अपने को सच साबित करने का
हरसंभव प्रयास किया

सच!
जब मैंने खोजा अपने आस-पास तो
हर बार यूँ लगा कि
जैसे जिन्दगी ने छला हो
साँसों के मोल पर
और झूठ को ही बाँधा हो अपनी गाँठ में
सच के नाम पर

सच!
जब दिल की गहराईयों में
तलाशा
तब कानों में झूठ की शहनाईयों ने
चीखकर कहा कि
जो सुनाई दे रहा है
वही सच है

तब से,
आज तक मैं जो
देखता हूँ / महसूस करता हूँ / सुनता हूँ
सच मान लेता हूँ
हो सकता है कि
तुम जिसे सच मानते हो
वो कुछ और हो?
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 11-अप्रैल-2011 / समय : 11:09 रात्रि / घर

कविता : देह होने का भ्रम

बुधवार, 4 मई 2011

तुमने,
मेरे लाख मना करने के
बावजूद
यह मान लिया है
कि तुम अपनी शुरूआत
किसी पूर्णविराम के बाद ही करोगी
और उपसंहार को लिखोगी
अपनी जुबान में
या जब यह धरती सिमट आयेगी
और महाप्लावन के बाद
प्रथम अंकुरण होगा
तब तुम फूट पड़ोगी
जीवन के प्रथम चरण का स्वागत करते
या हथेलियों में मौजूद
सभी रेखायें
अपना लिखा पूरा कर चुकी होंगी
तब तुम किसी पड़ी हुई दरार को
बदल दोगी भाग्यरेखा में
और विधि के
मुकाबिल खड़ी हो जाओगी
सदेह

तुम,
अपनेआप को
एक देह होने के भ्रम से
मुक्त कर लो
और बदल जाओ उम्मीद में किसी दिन
और फिर शेष जिन्दगी
यूँ ही गुजार दो
किसी के चेहरे पर सजे हुए
या आँखों में

तुम,
अपनी सिसकियों के
बीच का अंतराल सौंप दो मुझे
मैं,
वहाँ भरना चाहता हूँ
संगीत !
और गुनगुनाना चाहता हूँ
गीत,
जो तुम्हें पसंद हो
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 28-अप्रैल-2011 / समय : 11:35 रात्रि / घर