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सांप में बदली हुई चाबुक

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

बैल,
तभी तक मस्त रह सकता है
जब तक वह जुटाये रखता है
हिम्मत / साहस कि
कोई छू नही सकता उसकी गर्दन
या, जब तक वह नही मान लेता
कोल्हू को नियति

एक बार,
कोल्हू में क्या पिरा
फिर कहाँ चैन
बस दिन रात घूमना ही है
खली, चंदी, चारा, हवा, पानी
सभी कुछ होता है
सिवाय एक आजादी के

अब,
उसे पता ही नही चलता कि
कब सुबह हुई थी कब शाम ढली
ना खूंटे पर लौटने की चिंता
ना जंगल जाने की फिक्र
मीलों की दुरियाँ सिमट आती है
तंग दायरे में /
जीवन भर के सफर में

कुछ दिनों के बाद,
आदत सी सवार हो जाती है उसे
अब कोल्हू, कांधो पर हो ना हो
बस घूमता ही रहता है
नींद में भागता है
पीठ पे उभरती रहती हैं लहरें रह रहकर
जैसे चाबुक बदल कर सांप में
उतर आयी हो उसकी पीठ में
---------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर

नेतागिरी आज के दौर में

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

ना,
जाने कितनी गालियाँ खाई होंगी
कितनी गलियों की खाक छानी होगी
कितनी बार भूखे ही काटा होगा दिन
जूतियाँ कितनी घिसी होंगी यह तो पता नही

ना,
जाने कितनी बार गये होंगे जेल
धरने पर बैठे होंगे /
या की होगी भूख हड़ताल
कितनी बार जले होंगे पुतले /
कितनी बार कोसे गये होंगे /
कितनी बार गधे पर निकला होगा जुलूस
या कितनी बार मली गई होगी कालिख़ चेहरे पर

ना,
जाने कितनी बार दरियाँ बिछायी होंगी
कितनी बार साफ करें होंगे जूते
अकेले ही गला फाड़ा होगा चौराहों पर
और किसी तरह जुटायी होगी भीड़
कितने ही इल्जाम लगे होंगे चंदा खाने के
कड़ी मेहनत के बाद दामन
मुश्किल से बचाया होगा

ना,
जाने कितनी बार फूटी होंगी घर पे मटकियाँ
कितनी बार भेंट करी गई होंगी चूड़ियाँ
जूते की माला पहनाई गयी होगी
कितनी ही बार लोगो ने मुंडवाये होंगे सिर
फिर किया होगा मातम छाती पीटकर
निकाली होगी अर्थी
या किया होगा पिंडदान


पर,
एक बार भी हम मरें नही
अपने आप में
ना ही शर्मसार हुये
हम, सदा ही मुस्कुराते रहे
जो भी प्रदर्शन हुये / विरोध हुआ
सजता रहा तमगों की तरह सीने पर
भला,
कोई नेता बन पाया है /
या राजनीति कर पाया है आज के दौर में
इन सबसे परहेज किये हुये.
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-दिसम्बर-२००८ / समय : १०:४५ रात्रि / घर

दम तौड़ते हुये विचार

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

दिनभर,
जो देखा / जो खला / जो चुभा
बदलता रहा विचारों में मेरे अंतर
और मैं,
उन्हें चबाता रहा महीन और महीन
यहाँ तक कि जबड़े देने लगे जवाब
तब भी विचार थे कि
पिसने का नाम ही नही लेते थे

दोपहर तक,
मैने महसूस किया कि
मैं बदल आया हूँ चक्की पाटों में
और विचार दांतों में फंस आये हों
सौंफ की तरह किसी ढीली बत्‍तीसी में
और बैचेन करते रहे मुझे जीभ की तरह
जो हर पल इसी ताक में बार-बार टटोलती है कि
किसी भी पल आजाद हो सकती चुभन

शाम होते होते,
मेरा धैर्य गुम होने लगा
तब भी विचार वैसे के वैसे ही थे
रात में ना जाने कैसे मुँह से निकलकर
भिनभिनाने लगे मच्छरों की तरह / काटने लगे
फिर मेरे सपनों में आने लगे रह-रह कर

सुबह,
देर रात के हैंगओवर की तरह
मेरे सिरदर्द में मौजूद थे विचार
मेरी उबासियों में / अंगड़ाईयों में
फिर तौलिये से लिपट चिपकते गये
सारे शरीर से
और जैसे मैं
बदल आया हूँ एक कब्रगाह में
जो विचार नही बदल पाया किसी कविता में
और किस के नाम नही हो पाया
बस दम तौड़ता है मेरी कैद में
पिसते हुये / सिसकते हुये / शरीर से चिपके हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:०५ रात्रि / घर

दहलीज पर अटके हुये लोग

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
घर पर रह ही नही पाते हैं
जब भी घर मे होते हैं बाहर रमे रहते हैं
बाहर उन्हें घर याद ही नही आता
जब लौटते हैं घर
तो उठा लाते है बाजार
और बिखेर लेते है बिस्तर पर
ताकि नींद में / सपनों में उनके
बाजार सजा रहे
यहां तक कि सुबह की चाय परोसे बाजार उन्हें
यह लोग घर पर जी ही नही सकते


लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
बुनते हैं दीवारों में दुनियाँ
छतो पर टाँक लेते है आसमान
और घर से बाहर निकलते ही नही
बाहर निकले भी कभी तो
ओढ लेते घर लबादे की तरह
और जीते हैं कुयें के मेंढक की जैसे
यदि कभी किसी संमदर में डूबे तो
बनाने लगते है एक कुआं संमदर के सीने में
यह लोग घर से बाहर जी ही नही सकते


लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
ना तो बाहर ही होते है
ना घर के भीतर
दहलीज पर अटके हुये लोग
बाजार खींचता है उन्हें रह-रहकर बाहर
और घर जकड़े रहता है बेड़ियाँ में
मन चाहता है उड़ना आकाश में
और शरीर परोस देता है प्याली भर आसमान
हमेशा हासिये में अटक जाता है वजूद इनका
यह लोग काट देते हैं जिन्दगी त्रिशंकु से
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २१-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

दिन का यूँ ही गुजर जाना

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

सारा,
सारा दिन यूँ ही गुजर जाता है
बस एक बिन्दू पर अटके हुये
और शाम होते होते
टारगेट अचीव्ह नही हुआ है
हम सारे मिलकर
एक कदम भी नही बढे है आगे से
प्रश्‍न लगाने लगते है
चुप्पी के ताले
सारे दिन बोलने वाली जुबान पर

सारा,
दिन तो गुजर गया
प्लान बनाने में /
काऊन्टर मेजर सोचने में /
वक्‍त ही नही मिला कि
काम शुरू कर पायें
और यह लो आ गई अगली सुबह

इसके,
पहले की रात की बची अंगडाईयाँ ली जाये
सुबह की उबासियों के साथ
फिर,
बुलाया गया है
कल की प्रोग्रेस डिस्कस की जायेगी
प्लान-डू-चेक-एक्‍शन के चक्र से गुजरते
किसी पे उतरेगा रात का गुस्सा
इतना तो तय है

अंततः,
गुस्से के शांत होते शुरुआत होगी /
कॉपियाँ खुलेगी
ब्रेन स्टार्मिंग होगी / काऊन्टर मेजर सोचा जायेगा
प्लान बनेगें / एक्‍शन प्लान बनेगा /
चेक किया जायेगा
इसके पहले कि
एक्शन कौन लेगा यह डिसाईड हो
दिन खत्म हो जायेगा

अगली,
सुबह फिर अंगड़ाईयाँ / उबासियाँ
बाट जोहेगीं किसी मीटिंग की
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १६-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर

तार तार सच

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

हम,
लपेटते हैं तार-तार सच
और लपेटते ही चले जाते है
जिन्दगी भर
फिर एक दिन बदल जाते हैं
कुकून में

जब,
उनके हाथ चढते हैं तो
पहले उबाले जाते हैं
फिर नोचा जाता हैं सच
और बदल दिया जाता है रेशम में
सजने के लिये उनके बदन पर
-----------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर

कुछ हो जाता है मुझे

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

जब,
ढोल बजता है तो
पैर चलने लगते है
शरीर में दौड़ने लगती बिजली
संगीत के लय पर
मन बस थिरकने को चाहता है
कहीं भी ताल पर

फ़िर,
जैसे तरंगे उठी हो शरीर में
कमर ठुमकने लगती है
हाथ-पांव लहराने लगते हैं
लचकन शरीर में
खुजली की तरह होने लगती है
दिल नाचना चाहता है जी भर के

तब,
उम्र कसने लगती है
शरीर को मर्यादा के बंधनों में
कि लोग क्या कहेंगे / हसेंगे,
कि जरा भी लिहाज नही
बस जरा ढोल क्या बजा लगे नाचने
औरते हैं / लड़कियाँ हैं / बच्चियाँ हैं
कुछ भी नही देखते
यह क्या कि बुढा रहे हैं
लौंडो़ में घुसना छूटता ही नही
एकाध हाथ पांव उल्टा सीधा पड़ गया तो
बिस्तर लग जायेगें
ना जाने क्या क्या कहा जाता है
कुछ ऐसा भी कि सुनते ही
कान के कीडे झड़ जाये

करें,
क्या आदत से मजबूर हैं
जब भी कहीं बजता है ढोल
कुछ हो जाता है मुझे
फिर कोई कुछ भी कहे
ढूंढने लगता हूँ कोई कोना
जहाँ लगा सकूं एक ठुमका
आप कहें ना कहे
ऐसा कुछ होता तो होगा ही
आपको भी
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर

बहरहाल चुनाव हो ही गये

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

किसी,
तरह चलो बज गये ढोल
पटाखे भी फोड़े गये
कुछ पिछड़े / कुछ निकल पड़े
कुछ बैठे / कुछ खड़े रहे
कई निपटे / कुछ लुटे / कुछ अड़े रहे
कुछ यूँ ही गुजर गये नज़र के सामने से
बहरहाल चुनाव आ ही गये

किसी
ने पहली बार रखा कदम जमीन पर
किसी ने पहली बार देखा शहर करीब से
किसी ने सीखा कमर को झुकाना
किसी ने सीखा नाक सीधे रखना
किसी ने छानी खाक गलियों में
किसी ने तलाशे अपने वाले
किसी ने खोजे पीकर मस्त रहने वाले
बहरहाल चुनाव शुरू हो ही गये


किसी,
के नारे लगे / जयकारे लगे
किसी तरह किनारे लगे
किसी की नैया लेती रही हिचकोले
किसी ने मारी बाजी
कोई निकला फिसड्डी
कई अब्दुल्ला बेगानी शादियों में
दीवाने बने रहे हैं
कई गुल्फाम मारे गये
आचार संहिता के फेर में
चौराहे पर चलते रही बतोलेबाजी
बहरहाल चुनाव जारी है

किसी,
ने मैदान मारा
किसी ने रण छोड़ा
किसी को पटका अपनो ने
आग लगी किसी के सपनों में
किसी को मिला आर्शीवाद
किसी को संताप
किसी को कालिख लगी
किसी के कटे पाप
जनता को शोर से राहत मिली
बहरहाल चुनाव हो ही गये
-----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-दिसम्बर-२००८ / समय : १०:३० रात्रि / घर

कोई, शब्द चुप नही बैठता

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

शब्द,
सब्र नही रख पाते हैं
पहले फूटते हैं अंतर कोंपलो की तरह
और तलाशते हैं मौका बाहर निकलने का
हवा पर सवार हुये
शब्द फिर बदलते हैं ध्वनि में
गूंजते है प्रतिध्वनियां बनकर
और ढूंढते हैं रास्ते निकल पड़ने का
फिर तौड़ते हुये मौन की सीमा रेखा को
शब्द बदलते हैं संवादों में
कोशिश करते हैं निकलने की बाहर
गले के बारास्ता येन केन प्रकारेण

शब्द,
जब नही निकल पाते हैं बाहर
अपने सारे प्रयासों के बाद
तो, बदल जाते हैं आँसुओं में
और तलाशते है रास्ता /
जमा होने लगते हैं आँखों में
या बदल जाते हैं झुर्रियों में
और सजने लगते हैं चेहरे पर
या फिर बदल जाते हैं रंग में
पहले मौजूदगी का अहसास कराता हैं
बालों का बदलता रंग
फिर लगा देते हैं पंख बालों को
वो शब्द,
जो नही बदल पाये खुद को
सारे प्रयासों के बाद घुटते हैं
और जमा होने लगते हैं ऐड़ियों में
अंततः बदल जाते हैं
सिसकते हुये बिवाईयों में
और बोलने लगते हैं
कोई,
शब्द चुप नही बैठता
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-दिसम्बर-२००८ / समय : ०६:४० सुबह / घर

बीबी नही चाहती है

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

पापा,
नही चाहते थे कि
मैं भी वक्‍त जाया करूं
कहानी लिखूं, कोई कविता लिखूं
जबकि मेरे सामने जिन्दगी पड़ी थी
चुनौतियां थी / कैरियर था
पापा के सपने थे

पापा,
चाहते थे कि
मेरी आँखों में होना चाहिये
तड़प इंजिनियर बनने की
बस यही एक लक्ष्य होना चाहिये
मैं कहां बे-सिर पैर की बातों में उलझा रहता हूँ
पढता नही बल्कि कविता लिखता हूँ

मैने,
समझा लिया खुद को
दूर कर लिया अपने आप को
कविता से, कहानी से, किस्सों से
और जुट गया खुद को
इंजीनियर बनाने में

अपना,
कैरियर बनाने के बाद
अब फिर से सवार है वही भूत मुझपे
कोई बीस सालों बाद
अब पापा को कोई गुरेज नही
पर अब बीबी नही चाहती है कि
कोई कविता बांट लें उसके हिस्से के समय को
और मुझे यह समझ नही आता कि
मैने ऐसा क्या गुनाह किया है
सिर्फ़, दम तौड़ते विचारों को पनाह दी है
एक पहचान दी है
कोई कविता ही लिखी है
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०४-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर

ज़मीन से पैदा होते भाई

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

शायद,
वो तमाचा मैं
नही भूल पाऊंगा जिन्दगी भर
जब भी गुजरता हूँ
उस गली से याद आ जाता है

उस दोपहर
मुझे जाना था कहीं
जल्दी सवार थी सिर पर
और मन भाग रहा था समय से तेज
तभी अचानक कोई टकराया
मेरी साईकिल से
शायद बच्चा था कोई
इसके पहले कि मैं संभालू खुद को
और पूछू उसका हाल
जमीन से पैदा हो आये भाई लोग
मेरी सफ़ाई पहुँचती उन तक
इसके पहले ही रसीद कट गई गाल पर
यूँ लगा कि आग रख दी हो किसी ने
या खून में हो आया उबाल

वैसे,
यह नस्ल मायावी होती है
बस देखते ही देखते
उग आते हैं भाई लोग किसी सूनी सड़क पर
और जुट आते है सेवा में
बिना किसी इनविटेशन के
यदि किसी मामले में इनवाल्व हो
कोई महिला तो इनकी हमदर्दी दिखाती है
सदाचार ऊंचाईयाँ
इनकी पास मिल जायेगी
बचा के रखी हाथ की खुजली
मुँह में दबी हुई गालियाँ

आप,
जब भी निकल रहो हो जल्दी में
तो थोड़ा ध्यान रहे
कोई सूनी सड़क/गली बांझ नही होती
जरा कहीं चूके तो
उगल के रख देगी फ़ौज भाईयों की
और किसी का तमाचा याद रहेगा
जिन्दगी भर
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २६-नवम्बर-२००८ / समय : १०:०० रात्रि / घर

बिस्तर में उगती नागफनी

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

घर,
जब बदलने लगता है मकान में
तो पहले दीवारें पीने लगती हैं शब्दों को
कुछ सुना-अनसुना सा गीत गाने लगती हैं
फ़िर जब्त करने लगती हैं शब्दों को
कि सुनाई ही ना दें
और बिखेरती रहें अलसाया मौन
कदमों की छापो के बीच


दीवारें,
सूंघने लगती हैं
जिस्मों से आती गंध को
और समाने लगती हैं खाली जगह में
फ़िर जकड़ने लगती हैं
बातों को / कहकहों को / कानाफ़ूसी को
और बदल के रख देती है दीमको में
जो लग रही है रिश्तों के बीच /
रिश्तों के बीच दीवारें बो रही हैं दूरियाँ
बिस्तर बदल रहे हैं मरूस्थल में
और नागफनी उगने लगी हैं जिस्मों के बीच
सबंध सेंके जा रहे हो या भूने
रिश्तों के अलाव पर


मैं,
बहुत सोचता हूँ
कब घर बदल जाये मकान में
तंग आ चुका हूँ
दीवारों से बचते हुये चलने में
कुछ पता ही नही चलता कि
कब किस खाली जगह में उग आयें दीवार
घर ना हुआ
किसी आर्किटेक्ट की वर्क-बुक हो
और हम ताक रहे हो टूटते हुये घर में
किसी बनते हुये मकान को
----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०१-दिसम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४५ / घर

गिरफ़्त में धड़कती जिन्दगी

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

जिन्दगी,
तब भी धड़क रही थी
जब कैद में थी
भाषा और रंग के भेद को तोड़ती
जिन्दगी बस एक जिन्दगी थी
और किसी भी कीमत पर जिन्दा रहना चाहती थी
जबकि बाहर बंदूके चल रही थी
हैण्ड ग्रेनेड बरस रहे थे
जो भी चपेट में आये
टपक रहे थे

ताज,
जहाँ जिन्दगियाँ ढूंढती थी अपनी पहचान
गुम हो जाने की हद तक
ओबेराय,
जो सिर्फ़ एक ऐसा पता होता था
कि जिसके आगे कुछ और
पूछने की हिम्मत कोई नही करता था
करीब सवा-साढे छः फ़ुट के दरबान
गालो तक फ़ैली हुई मूछें
ऐसा करारा सेल्यूट कि रूह कांप जाये

कितने थे /
कितने मरे या घायल हुये
यह तो पल पल बदलता रहा
पर जिन्दगी कैद में रहकर भी
मुस्कुरा रही थी
जिन्दा थी बाहर निकल आने की चाह
कुछ पल दहशत के बाद जैसे
जिन्दगी सवार हो गयी थी ड़र पर
आग, धमाके और मौत की खबरें
नही डिगा पायीं थी विश्‍वास जिन्दगी का
और जिन्दगी लड़ती रही मौत से

वो,
लड़ते रहे / झूलते रहे जिन्दगी और मौत के बीच
जो शहीद हो गये
उनके नाम मैं दोहराना नही चाहता
नमन अवश्‍य करता हूँ
आप भी अपनी श्रृध्‍दांजलि जरूर दें
कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं
अपने घर में सुरक्षित बैठे
----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-नवम्बर-२००८ / समय : १०:२० रात्रि / घर / मुम्बई में आतंकवादी हमला

कोई जिन्न होता है सवार

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

कभी,
सनसनी सी महसूस करता हूँ
कोई दौड़ती हुई मुझमे
किसी भी वक्‍त
कोई सुबह हो / दोपहर हो या रात
तो यह लगता है कि
कोई जिन्न होता है सवार
या कोई भूत लगा होता है
शरीर को जैसे कोई सुध नही
ना ही कुछ अच्छे बुरा का ख्याल आता है

बस,
यही एक कसर बाकी होती है कि
आंय-बांय नही बकता
ना ही चीखता हूँ रह-रहकर औल-फौल
कपडे़ भी सलीके से ही पहने होते हैं
बस कूछ ध्यान नही रहता
जो भी घट रहा हो आस-पास
जैसे गुम सा मैं किसी ख्याल में
बस उलझा रहता हूँ
अपनी कलम के साथ

लोग,
कहते हैं कि
मुझे कुछ हो जाता है
जब दौरा पड़ता है
ना खुद का होश होता है
ना जमाने की खबर
बस डूबा होता हूँ ख्यालों में

जब,
लौटता है होश तो
पाता हूँ किसी पन्ने पर
लिखा है कुछ किसी ने
वो कहते हैं कि
मैं, कविता लिख रहा हूँ इन दिनों
और बस हैरान रह जाता हूँ मैं
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-नवम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४० / घर

सत्य बोले गत्य है

सोमवार, 24 नवंबर 2008

मैने,
जब शुरुआत की थी
यही कोई सोलह-सत्रह बरस का था
घर से निकला था पहली बार
और शामिल हुआ था
किसी शवयात्रा में

अपने हर कदम पर
जैसे मैं धंसा जा रहा था जमीन में
ना जाने क्यों मुझे उम्र से बडे होने का
अहसास दबाये जा रहा था
मैं ना गर्दन उठा पा रहा
ना नज़रे मिला
आवाज गले में रुंधी थी
सत्य बोलो गति है का दोहराव
मेरे अपने कानों तक नही सुना जा रहा था

धीरे-धीरे
मेरा कॉन्फ़िडेन्स बढा
और शर्म खत्म सी होने लगी थी
फ़िर भी बडा अटपटा सा तो लगता ही था
किसी शवयात्रा में शामिल होना
और जोर से दोहराते रहना
सत्य बोले गत्य है
हालांकि
अब भी राम नाम सत्य पुकार लेने का ख्याल
रूंओ को उठा देता था

फ़िर,
आदत सी हो आई थी
अब तक मैं सीख चुका था
कैसे खबर करनी है रिश्तेदारों को /
कैसे भाव लाना है चेहरे पर /
कहां मिलता है सामान /
कहां बस बुक होती है या बैण्ड़ /
तख्ती कैसे बांधी जाती है /
कब करनी होती है कपाल क्रिया /
कैसे मिला जाता है परिचितों से
किसी शवयात्रा में /
अब,
मुझे बडा अजीब सा लगता था
लोगों का श्रृद्धांजलि देना शोक-सभा में
किसी मंजे हुये खिलाड़ी की तरह

अंततः,
मैं सीख ही गया
कैसे ऑर्गनाइज्ड़ होती है अंतिम यात्रा
कैसे निपटाये जाते है उपकर्म
अस्थि संचय / तीसरा /
गरुड़ पुराण कब बैठाना है
दसवाँ / नारायण बली / तेरहवीं का भोज
दान दक्षिणा की कार्यवाही

एक,
दिन अचानक मुझे खड़ा कर दिया गया
देने को श्रृद्धांजलि
किसी तरह लड़खड़ाते मैने
निभा दिया जिम्मेवारी की तरह
फ़िर कुछ और मौको के बाद
मैने
सीखा गीता के श्लोकों को /
मानस की चौपाईयों को /
सूक्तियों का सहारा लेना /
राम का सत्य और गति से सबंध जोड़ना
बिना शर्माये या घबराये कैसे बोलना है
और,
अपने आप को पारंगत कर लिया
समाज में रहने के लिये
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २३-नवम्बर-२००८ / समय : १०:२० रात्रि / घर / सुभाष मिमरोट की अंतिम यात्रा के बाद

अपने नाम की खोज

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

किसी नाम को,
रखे जाने का मतलब
कि किसी पहचान को बांध लेना जिन्दगी से
और ढोते रहना मज़बूरी की तरह
यह क्या कि जो जड़ दिया गया हो बिना पूछे
बस चिपका रहे सारी जिन्दगी

अपने,
नाम को लेकर मैं खासा परेशान रहा
मुझे अक्सर लुभाते रहे दूसरों के
जैसे चिढ सी हो गई हो अपने नाम से
बिना किसी मतलब का
कोशिश,
बहुत कि हो कोई अच्छा सा नाम /
कोई सुन्दर पुकारने वाला /
जो मेल खाता हो चरित्र से /
कोई ऐसा नाम जो आजकल के ट्रेण्ड़ में हो
मॉडर्न / ट्रैण्डी / फ़ंकी सा

अपने,
नाम के कई हिस्से किये
नये विन्यास बनाये
फ़िर खोजा अपने आप को
फ़िर हिज्जों में तोड़ा
नये शब्द बनाये
और उनके मतलब में खोजा अपने आप को
उच्चारण बदले /
अंक शास्त्र में तलाशा /
कई जुबानों में पुकारा /
नये अंदाज में भी
अपने नाम से मैं कुछ विशेष नही कर पाया
रहा वही बिना मतलब का
ना मुझे डिफ़ाईन करता है ना मेरे होने को

अगली,
फ़ुरसत में खोजियागा कोई नाम मेरे लिये
और दे दीजियेगा मुझे कोई पहचान
अपने मतलब की
मैं,
पूरी जिन्दगी में अपनी पसंद का नाम नही रख पाउंगा
----------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-नवम्बर-२००८ / रात्रि : ११:२५ / घर

लकड़ी सहेजती है आग!

शनिवार, 15 नवंबर 2008

बीज,
जब नही सह पाता है
तपन ज़मीन में गहरे
तो बचता बिखरने लगता है
जड़ों के रुप में
और जो बच जाता है
तोड़ कर जमीन निकल आता है बाहर
जान बचाता, आग सीने से लगाये
सीधा, टेढा या बांका

पौधा,
जब दिन भर तपता है धूप में
केवल अपने लिये भोजन (प्रकाश संश्‍लेषण)
नही बना रहा होता है
ना ही पैदा कर रहा होता है ऑक्सीजन
बल्कि तपन पी रहा होता है
और बची हुई तपन को बदल रहा होता है आग में
सहेजने के लिये

पेड़,
अपने जीवन चक्र में
ना जाने कितनी बार
रौंदा गया होता है या काटा
कभी शाखों से कभी तने से
कभी छांटा गया होता है
या नोचा गया होता है
बिना किसी मुर‍वव्त के
कभी टहनी से, कभी पत्तियों से
अपनी हर चोट के दर्द को जब्त कर
पेड़ बदल लेता है आग में
और दफ़न कर लेता है सीने में

लकड़ी,
में जब बदल जाता है पेड़
तब भी आग बचा कर रखता है
अपने अंतर यूँ ही खत्म नही होने देता
श्‍नै श्‍नै यह आग समा जाती है
लकड़ी के हर रेशे में और बसी रहती है कि
वह जब इस्तेमाल हो
चूल्हा जलाने में या चिता
तो कभी नही चूके
एकदम न्यौछावर कर दे अपनी उम्र भर की पूँजी आग
फ़िर बदल जाये राख़ में
उड़े हवा में लिये हुये तपन अपने साथ
और रख दे धरती के सीने पर
जहाँ कोई बीज छटपटा रहा है
तोड़ने को धरती सीना
---------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-नवम्बर-२००८ / रात्रि ११:०५ / घर

अटारी से झांकता सूरज

बुधवार, 12 नवंबर 2008

सूरज,
क्षितिज की अटारी चढ झांकने लगा है
आसमान पर फ़ैलनी लगी सिन्दूरी आग
सुबह की पहली किरण ने
अभी अभी रखा है कदम धरती के सीने पर

मेरी,
मुट्ठी में कैद हुई
नर्म सी गर्माहट हथेलियों के बीच
पका रही है सपनों को
अब सूरज देखने लगा है मुझे
बादलों के झुरमुट से झांकते
और रोशनी भिगोने लगी है

कुछ,
देर उछल-कूद के बाद
थका सूरज अब ठहर आया है मेरे साथ
और मुझे विश्‍वास दे रहा है
बदल रहा है आशाओं को पसीने में
और पसीने को संकल्पों में

थका-हारा,
सूरज अब समेटने लगा है
दिनभर के फ़ैलाव को
और उतरने लगा है सीढीयाँ
सिर से अटारी और फ़िर
डुब जाता है गहराईयों में
देते हुये संकल्पों को सपनों की शक्ल
शाम को जगा जाता है हौले से

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०४-नवम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४० / घर

च्यूईंगगम में बदले हुये दिन

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

दिन,
सिमटते आ रहे हैं घण्टे में /
टूट रहे है मिनिटों में /
और सूक्ष्म ईकाईयों में
जहाँ तक मापा जा सकता है समय को
मन,
नही रख पा रहा है काबू
अपने आप पर
जैसे पंख लगा कर उड़ जाना चाहता हो
तौड कर सारी बेड़ियों को
या फ़ूट कर निकल आना चाहता है
किसी चट्टान के सीने को
आवारा बीज की तरह
सभी कुछ, अपना
बस छूटने को आया लगता है
दीवारें पी लेना चाहती हैं गुजारा हुआ वक्‍त
छत झुकी आ रही है सीने से लगाने
जमीन, सारी यादों को समा लेने के लिये उतावली है
सारे रिश्ते बस उतनी ही देर के हैं
ज़ब तक साँस लेनी है यहाँ
दिल,
पालने लगा है
कुछ सुनहरे से ख्वाब
और कल्पनाओं को पालने में
आशायें दे रही है झूला
उम्मीदों की लौरियाँ गाते
और दिल अंजुलि भर खुशियों में
डूब जाना चाहता है
रातें,
छोटी होती आ रही हैं
और सुबह, नींद में ही दस्तक देने लगी है
दिन बदल गये हों च्यूईंगगम में
कि खत्म ही नही होते
दुल्हन की तरह हम
बस बारात के आने की ख़बर ले रहे हैं
या कर रहे हैं बिदाई की प्रतीक्षा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-नवम्बर-२००८ / रात्रि ११:१५ / घर

बाप के साथ रहते

सोमवार, 10 नवंबर 2008

बाप,
के साथ रहते मैं सदा बेटा ही बना रहा
क्ब बड़ा हुआ?
कब सीखा दुनिया देखना अपने चष्मे से?
कब इतना बड़ा हो गया कि
बाप के कपड़े,
जिनमें पूरी ज़वानी गुजर गई
अब छोटे पड़ने लगे?

कब नौकरी लगी?
कब शादी हुई?
कब मेरा परिवार बना?
कब कोई नन्ही ज़ान हमारे बीच आ गई
कब मैं बाप बना?
पता ही नही चला

बाप,
के साथ रह्ते
ना कभी बड़ा हो पाया
ना बड़ा माना गया
सदा बेटा ही बना रहा
बाप बना
पर बाप नही हो पाया /
पहचाना नही गया

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०३-ऑक्टोबर-२००८ / रात्रि : ११:१५ / घर

वो, आदमी नही रहा

शनिवार, 8 नवंबर 2008

यह क्या हुआ?
अचानक कि आदमी की
पहचान खत्म हो गई
उसका नाम/काम सब खो गये
और वो
पहचाना जाने लगा है
नये ही प्रकार से

कहीं से भी गुजरो
चाहे पहचान हो ना हो
हर कोई पूछ लेता है
कि क्या हाल है?
कैसा चल रहा है?
घर में सब ठीक तो है
बच्चे, भाभी वगैरह?

उसकी,
पहचान लौट रही है मनुवाद के दौर में
अब पहचाना जा रहा है उसे
जाति से / समाज से
और किसी जादू-तमाशे की तरह
बांटा जा रहा है
जाति/धर्म/वर्ण/वर्ग के आधार पर
किस जाति का है?
किस समाज का है?
कितने लोग उसके साथ है?
या फ़िर आंका जा रहा है
उसकी न्युइसंस वैल्यू पे

कोई खास वजह नही है
इन बदलावओं की
बस, चुनाव सिर पर है
और वो,
आदमी नही रहा
मात्र एक मतदाता(वोटर) रह गया है.
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०८-नवम्बर-२००८ / समय : ०१:०० दोपहर / ऑफ़िस

सिमटती हुई दीवारें

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

दीवारें,
सिमटी आ रही है
गलियाँ बिदक रही है
चौराहे बचते फ़िर रहे है
चुनाव के दिन है
खद्दर वाले भिया के सांड खुल्ले घूम रहे है

दीवारें,
अपने बदन को ढांप रही है
कि कंही नजर आया तो
मुँह काला किया बिना छोड़ेगें नही
गलियाँ,
गुम हो जाना चाहती हैं
मकानों में कहीं
कहीं दिखाई दे गई तो
रंगे बिना छोड़ेगें नही
चौराहे,
चाह के भी कुछ नही कर पा रहे हैं
एक टाँग ढांकते है तो
दूसरी उघड़ जाती है
कितना भी बचायें अपने आप को
छुट्टे सांड मुँह मार ही जाते हैं

आप,
कितना भी बचो
सुबह की शुरुआत हो या थकी शाम
चाहो ना चाहो वो चेहरे किसी
अनचाहे मेहमान से आ धमकेगें मुस्कुराते हुये
और खराब कर जायेगें
तुम्हारे मुँह का स्वाद वोट मांगते हुये
या झांकते मिल जायेगें
अख़बार से तुम्हारी सुबह में
और कुछ ना पढने देगें
ना सनसनी, ना सुर्खी
या कोई दरक आयेगा बंद दरवाजों के नीचे से
या उड़की हुई खिड़की कोई थपियायेगा
देर रात किसी रिकार्डेड आवाज से झुंझला देगा कोई

कितनी बार यह लगेगा
कि यह चुनाव हो रहे हैं या
बारिश का मौसम है
जहाँ,तहाँ, चाहे, अनचाहे जगह
उग आ रहे हैं कुकुरमुत्‍ते
और तुम कुछ नही कर पा रहे हो
सिवाय अपने भाग्य को कोसने के
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-नवम्बर-२००८ / समय : ०४:१५ / ऑफ़िस

कपड़ों का कमतर होना

बुधवार, 5 नवंबर 2008

मैं,
इसे डेव्हलपमेंट कहूँ/
बेशर्मी की हद/
या दिमाग बंद कर की गई नकल
खैर जो भी हो
यहाँ जो हमारा था
वो सिमट रहा है

फ़ैशन
जिसमें नंगाई सिर चढ़ कर बोल रही है
अब उस किस्म की अंग्रेजी फ़िल्में
जो देखी तो जाती है पर समझी नही
उतर आयी है सड़कों पर
कपड़े कम से कमतर हो रहे है
लो वेस्ट हों या शार्ट हों या मिनी
या उसके आगे की कोई इकाई
मिनिमल होते जा रहे हैं
गिरते चरित्र के साथ
कपडे़ उपर उठ रहे हैं
या उपर से सरक रहे हैं

बच्चों
से हूई शुरुआत
अब ढालने लगी है आदतें
यह कपड़े अब बच्चें पहने या बड़े
पहनने वाले को कोई फ़र्क नही पड़ता
अलबत्ता देखने वाला
यदि जी रहा है गुजश्ता सदी में तो
झुका लेता है सिर या फ़ेर लेता है आँखे
और यदि अभ्यस्त है तो झांकने लगता है और गहरे
या कामना करने लगता है
तेज हवा चलने की/
अचानक बारिश होने की/
या सिलाई के टूटने की

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-नवम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४५ / घर

हम नही बदले हैं

सोमवार, 3 नवंबर 2008

हम,
नही बदले हैं
चाहे ज़माना बदल रहा हो
या हालात
हम रहे खालिस के खालिस
बिल्कुल नही बदले

भुस,
पर चढी खाल
भला कभी बदली है जानवर में?
मुल्लमों ने कहीं बदली है तासिर किसी की
या पानी चढा़ देने से लोहा बदला है सोने में
हम वही के वही है
जो थे, जैसे थे खालिस के खालिस

हम,
कभी एक नही रख पाये
अपने आप को
सिर तलाशता रहा ताजपोशी के मौके
जहाँ भी मिले
और कंधे बचते रहे जिम्मेवारी से
सदा रहे अंतिम कतार में

हम,
जब भी कसे गये हो कसौटी पर
या उठाया हो हमने बीडा़
सदा ही बचना चाहा चुनौती से
उन्हीं रास्तों पर फ़िर चले
जिन पर गुजरते रहे हैं आज तक
हम नही बदले है

हर
कहानी कि शुरुआत कि
फ़िर उसी मोड़ पर से
किसी फ़ार्मूला फ़िल्म की तरह
जिसकी हर सीक्वेंस को हर कोई जानता है
चाहे अगली सीट पर बैठा हो या बॉलकनी में
हम नही बदले हैं

हम,
अभी भी देख रहे हैं
दिन में ख़्वाब/
ठोंक रहे हैं खुद की पीठ/
छोटे लक्ष्यों को बड़ा कर रहे हैं/
फ़िर उलझ गये हैं लक्षणों के निदान में
कारकों तक हमारी नज़र पहुँची ही नही
ना पहले ना अब
हम नही बदले हैं
बिल्कुल नही बदले
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २७-ऑक्टोबर-२००८ / रात्रि : ११.५३ / घर

मातमपुर्सी के दौरान

शनिवार, 1 नवंबर 2008

मंत्रोच्चार,
गूंज रहे है/
वातावरण हवन से शुद्ध हो
सुवासित महक रहा है/
सूतक छूट रहा है
कनाते लगी है, टेंट तना है
पंडि़त भोज ले रहे है
दुःख(जितना भी, जो भी रहा हो) दूर हो रहा है

लोग,
धीर-धीरे आ रहे है
कुछ मातमपुर्सी होती है/
कुछ रोना-धोना
फ़िर बच्चे,
साबित करने लगे में लगे है
अपने आप को
अपनी सेवा का बखान करते
हर आने वालों से
किसने क्या किया/ कौन अस्पताल में रुका
पैसा कितना खर्च हुआ/कितने दिन लगे
तकरीबन, हर बारीक से बारीक
जानकारी परोसी जा रही है करीने से
गोया अम्माँ का जाना ना हुआ
कोई ईवेंट किया हो आर्गेनाईज

वहां,
जो भी मौजूद है
सभी के पास अपने अपने सवाल है
किसी को कितनी देर और लगेगी
किसी को अपने दु:ख सुनाने का मौका नही मिला है
किसी को प्रापर्टी और वसियतनामा तलाशना है
किसी को कार्यक्र्म जल्दी निपटाना है
किसी को अपने घर की फ़िक्र ने जकड़ रखा है
भोजन चल रहा है/
बातें चल रही है/
नेग-टीका हो रहा है/
अम्माँ,
तस्वीर से झांकती इंतजा़र कर रही है
अपनी बारी का कि
कब कोई बना देगा दीवार का हिस्सा उन्हें
कम से कम
बंटवारे तक या यादों के ताजा रहने तक
फ़िर भुला दी जायेगीं
धीरे-धीरे
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मुकेश कुमार तिवारी / दिनांक : २९-ऑक्टोबर-२००८ / समय : दोपहर ०१:३०

विस्मृतियाँ

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

कभी,
कुछ अज़ीब सा होता है
हमारे साथ
कहीं से गुजरते यह महसूस करते हैं
यह ज़गह कुछ जानी-पहचानी है
या कहीं यह महसूस करते है
कोई परिचित सी बू
या किसी चेहरे पर थम जाती है निग़ाहे
खोजती किसी पहचान को
ऐसा कुछ ना कुछ होता रहता है
हमारे आस-पास
विस्मृतियाँ,
तब पंख फ़ड़फ़ड़ाती हैं
जैसे किसी अंधेरी गुफ़ा में उड़ते हैं
इधर से उधर चमगादड़
कितना भी ध्यान करो कि
इस जग़ह/बू/चेहरे से क्या रिश्ता है
कुछ याद नही आ रहा है

यहाँ,
पहले ही कदम से
हवा में कुछ गुनगुनाहट सुनाई देने लगती है
गलियाँ, मोहल्ले पीछा करने लगते है
जैसे कुत्ते दौड़ते है गाड़ी के साथ भौंकते हुये
कुछ चेहरे खोजते है ना जाने क्या मुझमें
कुछ पहचाने से लगते हैं
नदी लिपटी जा रही है मेरे पैरों से
मुझ कुछ याद नही आ रहा है

फ़िर,
मेरे ख्यालों में दौड़ने लगता है
कोई बच्चा
सुनाई देने लगती है कुछ जानी-पहचानी सी आवाजें
बार-बार मेरा हाथ छू रहा होता है पेशानी
किसी एक जगह पर अटकता बार-बार
विस्मृतियाँ,
अब मधुमक्खी की तरह
भिनभिनाने लगी हैं
मुझे कुछ याद नही आ रहा है
अब भी

मैं,
तकरीबन बाहर आ चुका हूँ
वहां से
फ़िर भी
विस्मृतिय़ाँ सवार है सिर पे जूँ की तरह
आँखों से गुजर रहे है
गलियाँ, मोहल्ले, चौराहे, चौपाल, लोग
सभी कुछ पहचाने से
और,
मुझे अब तक कुछ याद नही आ रहे है
कुछ भी


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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-ऑक्टोबर-२००८ / समय : रात्रि ११:४३ / घर - दीपावली की रात

" टुकड़ों में बंटी हुई माँ "

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

शायद,
वो माँ होते हुये भी
टुकड़ों में बंटी हुई थी
या बेटों ने अपनी सुविधानुसार
बांट लिया था
अपने सामर्थ्य के अनुपात में

वो,
जैसे माँ ना होकर
केवल एक लाईब्लिटी में बदल गई थी
उसे बीमार भी होना पड़ता था
बेटों के शेड्यूल के हिसाब से
गर एक दिन भी ज्यादा हो तो
या तो दवाई नही मिलती थी
या खान उस दिन
जॊ भी था सीधा-सीधा हिसाब था

एक दिन,
छोडकर बेटों को अपने हाल पर
चल पड़ती है अंनत यात्रा पर
बेटें अब भी उलझे है हिसाब में
किसका कितना खर्च हुआ है
कौन कितने घंटे रुका अस्पताल में
अभी आगे कैसे खर्च करेगें
कि किसी एक पर बोझ ना आये

अब,
आत्मा तो चली गई है
इस नश्‍वर शरीर का क्या
जैसे भी हो उत्तम-मध्यम बस निपटाना भर है
बहुयें उलझ रही है
बेटे झगड़ रहे है / मोबाईल से चिपके हैं
शाम हो रही है
जो भी जुट आया है जैसे भी, जल्दी में है

माँ,
ज़मीन पर इंतज़ार कर रही है
अपनी अंतिम यात्रा का
और बेटे तलाश रहे है कंधे
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २१-ऑक्टोबर-२००८ / समय : ११:०५ रात्रि / घर

अम्माँ के जाने के बाद

बुधवार, 22 अक्टूबर 2008

अम्माँ,
जीवन से लड़ती हुई
हार कर चली गई हैं

ज़ब तक थी
तभी तक थी लोगों के लिये
काकी, बड़ी अम्माँ, बुआ, भाभी, दादी, नानी
और भी ना जाने क्या क्या
सभी से जैसे उसने जोड़ रक्‍खे थे
कुछ ना कुछ रिश्ते
ऐसा लगता था
अम्माँ खुद नही
रिश्तों को जी रही थी/
रिश्तों के लिये जी रही थी

आज,
जैसे थम गया हो यह सिलसिला
अम्माँ ने ओढ लिया है चिर मौन
जिन्दगी भर के बोये हुये रिश्ते
अपनी बारी पर
बचते फ़िर रहे है कसौटी से
किसी को छुट्‍टी नही मिल पा रही है
किसी को ज़ल्दी लौटना है
किसी सुबह आने में देर हो सकती है
किसी को शर्म आती है बाल मुंडाने में
अम्माँ को इस बेला पर
सिर्फ़ तय करना है सफ़र औपचारिकताँए पूरी करते
किसी के कंधे में दर्द है
और श्मसान दूर

अम्माँ,
सो रही है इस बात बेख़बर
कि किसी को काटनी है पूरी रात जागते हुये
और चाय कम से कम दो बार तो लगेगी ही
मच्छरों से बचने के उपाय खो़जेगा कोई
फ़िर,
बातें अम्माँ से शुरु होगीं
उनसे जुड़ी हुई यादों से होते हुये
और सिमट आयेगीं कि
अभी इन्क्रीमेंट नही लगा है
मंहगाई आसमान छू रही है
बच्चे नालायक है, कुछ सुनते ही नही
फ़िर चाय की तल़ब बैचेन कर देगी

अम्माँ,
तैयार दी गई है
इस महा-यात्रा के लिये
किसी के मन में रह रहकर आ रहा है
कौन नही आया है?
किस किस को ख़बर कर दी गई है?
अख़बार में अम्माँ की तस्वीर कमोबेश
सभी निहार रहे है
वो भी,
जिनकी निगाहे ही नही उठती थी कभी उसकी ओर
किसी की चिंता में हिसाब होगा
किसी की चिंता में इंतजा़म
किसी को चिंता में शोक सभा होगी
सभी जैसे उलझे हुये हों
किसी ना किसी फ़ेर में
केवल
जिन्दगी भर चिंता पालने वाली
अम्माँ, बेख़बर थी
इस बार
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २०-ऑक्टोबर-२००८ / समय : रात्रि : ११:०५ / घर

माँ को इस उम्र में समझाना

रविवार, 19 अक्टूबर 2008

माँ,
को इस उम्र में समझाना/
नई आदतें ढलाना /
या सिखाना कुछ और जो उसके संस्कारों /
परिवरिश से नही मेल खाता हो
बड़ी अज़ीब सी मुश्किल में डालता है

उपवास मत करो/
या छठे-चौमासे किया करो/
ये क्या हुआ कि पाञ्चांग देखा नही कि
शेड्यूल बना डाला उपवासों का
और यह भी भूल जाती हो कि
डायब्टिक हो भूखे नही रहना चाहिये

पूजा,
जितनी लंबी और देर तक हो सके
सुकून देती है उसे
घण्टों पैर मोड़े पालथी लगाये डू़बे रहना ध्यान में / भजन करना
मना किया जाये या
डॉक्टर की मनाही याद दिलाई जाए
कि जिस दर्द से ना तो ठीक से चल पाती हो/
ना खड़े रह पाती हो
यह कहाँ तक जायज है कि
दवा तो लें परहेज ना करें तो नाराज हो जाती है

हिदायतें,
जब बैठो तो स्टूल पर / कुर्सी पर बैठो
भले ही पूजा करनी हो या कुछ और
ज़मीन पर बैठना नही/ या कुछ ऐसे कि घुटनो पर नही आता हो ज़ोर
कैसी भी हो यूँ ही उड़ा देती है
जैसे हम उड़ाते है मच्छर
हालांकि,
उसके पास अपने तर्क भी होते हैं
अब क्या करना है सीख़ के
तुम्हारे तौर तरीके तुम्ही देखो
हमारी तो, जो भी बची है कट जायेगी

माँ,
को इस उम्र में समझाना/
नई आदतें ढलाना /
सिखाना कुछ और
बडा़ ही मुश्किल होता है।
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मुकेश कुमार तिवारी दिनांक : १५-अक्टोबर-२००८ / समय : ०४:३० दोपहर / ऑफ़िस में

विषय की खोज़ में

शनिवार, 18 अक्टूबर 2008

विषय,
वहीं थे मौजूदा jahan मैं खोज़ रहा था
और परेशान था कि कई दिन हो गये
कुछ लिख नही पाया
चौराहो पर बढती भीड़ के उन्माद में/
तंग सी गलियों में पसरे हुये/
पार्क में बिख़रे हुये रैपर्स की तरह/
या सिनेमा हाल में मूंगफ़ली के छिलकों की तरह
और मैं था कि परेशान विषय नही मिलते हैं


विषय,
थे तो घर में भी मौजूद
स्लीपर्स की टूटी बद्धियों में/
शर्ट की पलटी हुई कॉलर में/
दीवार पर टंगे कैलेण्डर में
जो तनख्वाह के साथ
अक्सर ही कुछ शुरुआती दिनों के बाद बेमानी सा हो जाता है
शायद,
अब मुझे ही ढालनी होगी आदत कि
उठा सकूँ विषय ज़ेब से गिर आये सिक्‍के की तरह
अपने ही आस-पास से


विषय,
वहां भी थे मौजूद जहाँ मैं गुम हो जाता हूँ
परे ढकेलते हुये उलझने
छलक रहे प्यालों में/
उगले गये धुयें में/
जहाँ अब भी मुटियाती औरतें दम साधे थिरक रहीं है
और मारे गये तानो की चीख़/
दिये गये उलाहनॊ की गूंज/
या तकादों की आहट बदल गई हैं ज़हर में
और सवार हो रही है आदमी पर

मैं,
अब भी परेशान हूँ
की मैं क्यों नही खोज पाता हूँ विषय?
इतने करीब रहकर भी
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मुकेश कुमार तिवारी dinaank : १३-ऑक्टोबर-२००८ / रात्रि : १२:२५ / घर

बूढियाँ, क्यों इतना जीती हैं?

सोमवार, 13 अक्टूबर 2008

बूढियाँ,
क्यों इतना जीती हैं?
कि उनके लिये
ना किसी के पास इतना वक्त होता है
कि बैठा सुनता रहे जुबाँ पर ही गुम हो जाते शब्दों को
और हुंकार भरता रहे बीसियों बार सुनी बातों पर
या बार-बार कोशिस करे उन कानों में शब्द डालने की

बूढियाँ,
क्यों इतना जीती हैं?
कि उनके लिये
कोई जगह नही बचती घर में
किसी टूटे फ़्रेम सी या कबाड सी
बस मारी-मारी फ़िरती रहती हैं
घर में इस कोने से उस कोने तक
कभी-कभी निकाल भी दी जाती हैं बाहर
या किसी के आने पर कैद कर दी जाती हैं
घर के पिछले हिस्से में

बूढियाँ,
क्यों नही मार दी जाती हैं?
इसके पहले कि
वो सडक पर फ़िरती रहे मारे-मारे
आवारा ढोर सी /
किसी के पास उसके लिये कोई फ़ुरसत नही हो
कि सुनता रहे उसकी बक-झक
और वो तंग आ गई हो दीवारों से बातें करते /
कोई कुछ नही पूछे उसके बारे में
भले ही नही दिखी हो कई दिनों से घर में
शुक्र है हमारे यहाँ मंदिर आदमी से ज्यादा है
जहाँ इतनी जगह तो रहती है कि
समा जायें सारे शहर की बूढियाँ
जूते-चप्पलों की भीड में भजन करते
या भीख माँगते बाहर
और हमें मौका देती रहे अपनी सदाशयता दिखाने का

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-अगस्त-२००८ / समय : ११:४५ रात्रि / घर ( सांई मंदिर पाटनीपुरा, इन्दौर)

माँ, केवल माँ भर नही होती

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

माँ,
किसी भी उम्र में केवल माँ भर नही होती
जबकि वो खुद को भी नही संभाल पाती हो तब भी
विश्वास होती है / आसरा होती है

माँ,
के होने का मतलब है
जिसकी छाती पे चिपका सकते हो
तुम डरावने ख्वाब /कमरे में फ़ैले अंधकार को
जिससे तुम अब भी ड़र जाते हो कभी
तुम सो सकते हो उसकी गोद में रो सकते हो
उसके कंधो पर सिर रख कर माँग सकते हो
कुछ भी चाहे उसके पास हो ना हो पर वो कोशिश जरूर करती है खोजने की
मुँह उठा के मना नही करती

माँ,
इस उम्र में भी अपने से ज्यादा तुम्हारी चिंता करती है
रात बार-बार उठ के देख लेती हैकि तुम सो भी पा रहे हो या नही
तुम्हारे सिरहाने पानी रखा भी है या नही
कितनी बार तुम्हे कोफ़्त भी हु‌ई होगी कि ना खुद सोती हैं ना सोने देती हैं
और जब तुम किसी ख्वाब से कर रहे होते हो चुहल
तो मौका लगते ही सहला देती है तुम्हार सिर हौले से
फ़िर बुनने लगती है को‌ई कहानी तुम्हारे बच्चों के लिये
जिसमें अब भी राजकुमार तुम्हारे सिवाय को‌ई और नही होता है

माँ,
अपनी पूरी उम्र में कभी जी ही नही पाती है अपने लिये
या तो बुन रही होती है स्वेटर तुम्हारे लिये
या तो पाल रही होती है कोख़ में तुम्हें
या पिला रही होती है छाती
या जाग रही होती है रात भर तुम्हारे साथ
गोया परीक्षा देना हो उसे
या मांग रही होती है दु‌आयें
कभी तुम्हारे लिये कभी तुम्हारे बच्चों के लिये
कभी अपने लिये कुछ मांगा भी
तो अपनी आधी उम्र तुम्हें देने कि सिवाय कुछ और नही

माँ,
केवल माँ भर नही होती
अपनी जिन्दगी भर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०८-ऑक्टोबर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर

अवसाद ग्रस्त लड़की

सोमवार, 6 अक्टूबर 2008

लड़की,
बाहर आओ
तोड़ के सिमटते हुये दायरे को
छत के कोने पर खड़े हो फ़ैलाओ बाहों को
मह्सूस करो हवा में तैरने के लिये
तुम कभी लगा सकती हो छलांग
अनंत में तोड़ते हुये सारे बंधनों को

हथेलियों में,
कैद करो हवा में घुली हुई नमी को
और मुरझाते हुये सपनों को ताजा दम कर लो
या गूंथो कोई नया संकल्प

सुनो
हवा में गूंजते हुये संगीत को
और चुरा कर रखो किसी टुकड़े को अपने अंदर
वहीं, जहाँ तुम रखती हो अपनी सिसकियाँ सहेज कर
और छाने दो संगीत का खु़मार सिसकियों पर

देखो ठहरे हुये
पराग कणों को तुम्हारी चेहरे पर
और पनाह दो आँखों के नीचे बन आये काले दायरो में/
या बुनी जा रही झुर्रीयों में
और फ़ूलने दो नव-पल्लव विषाद रेखाओं के बीच

मह्सूस करो,
हवा में पल रही आग को
और उतार लो तपन को अपने सीने में
जहाँ रह-रह कर उमड़ते हैं ज्वार
और लौट आते हैं अलकों की सीमा से टकराकर

लड़की,
बाहर आओ, उठ खड़ी होओ
दीवार के बाद पीछे कोई जगह नही होती
और यदि कोने में हो तो कुछ और नही हो सकता
कब तक घुटनों पर रख सकोगी सिर/
आंसूओं का सैलाब बहाओगी/
अंधेरे में सिमटती रोशनी सी
कब तक लड़ सकोगी अकेली फ़ड़फ़डाते हुये

लड़की,
बाहर आओ, देखो
खुला आकाश/
हवा/नमी/संगीत/रोशनी/आग
और जिन्दगी
कर रहें है तुम्हारी प्रतीक्षा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १४-सितम्बर-२००८ / समय : ०६:३० सुबह / घर

" कान्फ़्रेंस "

बुधवार, 13 अगस्त 2008

सिर्फ़,
हम ही नही होते हैं वहाँ
तलाशते मौका शाम गुजारने का
किसी कान्फ़्रेंस के नाम पर
ये भी थे / वो भी थे
और भी कई लोग थे जिन्हें हम
इतना तो पहचानते हैं कि हाथ मिलाया जा सके
उन्हें जानना उतना जरूरी नही

ऐसा लगता है कि
शनिवार की शाम या किसी और शाम को
सिर्फ़ हम ही नही होते हैं
बिना काम के
या तलाशते मौका गुजारने का शाम यूँ ही
सच से भागते हुये या खोजते हुये नये आयाम
और भी लोग हैं
इस मर्ज के मारे हुये

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-अगस्त-2008