.post-body { -webkit-touch-callout: none; -khtml-user-select: none; -moz-user-select: -moz-none; -ms-user-select: none; user-select: none; }

प्रतीक्षारत तुलसी

सोमवार, 31 अगस्त 2009

यह कविता ब्लॉग पर प्रकाशन के पूर्व पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के अगस्त माह के अंक में प्रकाशित हुई थी। यह पत्रिका पूज्य दीदीमाँ साध्वी ऋतुंभरा जी के आशीर्वाद से उनके संस्थान "वात्सल्य ग्राम" द्वारा किया जाता है।

यहाँ पुनर्प्रकाशन एवं पेज का डिजाईन पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के साभार सहित,

मुकेश कुमार तिवारी
-------------------------------------------------
प्रतीक्षारत तुलसी

तुलसी,
आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
आँगन में खडी़ है
प्रतीक्षारत
कि सुबह कोई पूजेगा /
अर्ध्य देगा / सुहाग लेगा
शाम कोई सुमिरन करेगा
संध्या के साथ वह भी पूजी जायेगी

अब,
सुबह से ही भूचाल आ जाता है
घर में
जो देर शाम तक
निढाल हो गिर जाता है बिस्तर में
अल्मारियों में टंगे हैंगर
इंतजार करते रह जाते है
कपड़ों का
सिर तलाशते रह जाते हैं
गोद
कोई रोता भी नही बुक्का भरके
किसी को याद नही आती
तुलसी
जो आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
किसी कोने में सूख रही है
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक: 14-जून-2009 / समय: 5:00 बजे सांय / घर

बहस

बुधवार, 26 अगस्त 2009

किसी,
मुद्दे पर जारी बहस
जब छोडती है बौद्धिक स्तर को
तो उतर आती है तू तू-मैं मैं पर
और फिर हाथापाई पर
कोई कभी भी और कहीं से भी
भाग लेने लगता है बहस में
जैसे किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चढते उतरते हैं लोग

मुद्दे का गद्दा
पहले बदलता है तकिये में
अंततः हवा मे़ उडने लगती है रुई

न सूत बचता है न कपास
फिर भी जुलाह¨ में लट्ठम लट्ठ जारी रहता है
औरर बोर्ड रूम के द्वार पर
“लाल“ बल्ब जलता रहता है देता संदेश
कि
यह मीटिंग अभी खत्म नही होने वाली
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक: 18-जून-2008 / सुबह: 10:45 / विभागीय बैठक के दौरान

इंसानों के बारे में

शनिवार, 22 अगस्त 2009

मुझे,
यह लगता था कि
इंसान बातों को समझता है
और अपने तर्कों को औज़ार बनाया था
उनसे बातें करने को

मुझे,
यह भी लगता था कि
सभी इंसान दिल से अच्छे होतें हैं
केवल परिस्थितियाँ उन्हें
बद, बुरा या नेता बनाती हैं
और मैं सबसे दिल खोल के मिलना चाहता था

मैनें,
यही सीखा था कि
इंसान जब समूह में रहते हैं तो
समाज का निर्माण होता है
और मैं सबको साथ लेके चलना चाहता था

मैं,
यह सीख पाया कि
धीरे-धीरे समाज विघटित होता है
यूनियनों में
और बिखरने लगता है
गाली, गलौच, माँगों और नारों के साथ

मैनें,
देखा और झेला भी है कि
वही इंसान अपनी केंचुली बदल
किसी निगोसियेशन में आता है तो
मुझमें देखता है किसी कसाई को
और खरोंचे मारने लगता है

मैं,
कन्फ्यूज हो जाता हूँ कि
मैंने जो सीखा था अब तक
इंसानों के बारे में
क्या सब बकवास था?
------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १९-अगस्त-२००९ / समय : ५:१५ सायं / ऑफिस में वर्कर्स वेज निगोसियेशन के दौरान

टारगेट के पीछे भागते

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

आज,
फिर पूरा दिन गुजर गया
टारगेट के पीछे भागते
दिन है कि
जैसे पूरा था ही नही
अधूरा सा दिन
बस पलों में सिमट आया
धुंधलके में
टारगेट वहीं था
और हमारे बीच दूरियाँ
रात की तरह गहराती जा रही थी


सारा,
सामर्थ्य झोंक कर भी
मैं
विफलता के साये में
ढूंढ रहा था
कोई सुकून भरी तपिश /
कोई पसीने में नहाई सुबह /
और बचना चाहता था
किसी रिव्यूह से
जहाँ लानतों का ठीकरा
बुके के पीछे से झांकता
कर रहा होगा
मेरा इंतजार
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १८-अगस्त-२००९ / समय : ०७:२५ सायं / ऑफिस

पहिला साल पहिला पड़ाव_ ब्लॉगिंग का एक साल पूरा होने पर

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

जन्मदिवस जब भी आता है, खुशियाँ समेटे हुये आता है और हम तो वैसे भी भाग्यशाली हैं साल में कुल जमा तीन ठौं जन्मदिवस मनाते रहे अब तक। पहिला चैत्र मास शुक्ल पक्ष की नवमी को गोबर से लीपी हुई जगह, आटे से बनाये चौक, गौरी पूजा, गुलगुलों का भोग और मीठा दूध बुआ के हाथों पीते रहे। दूसरा वो जो अंग्रेजी महिने अप्रैल की तारीख ६ को जिस दिन एक मज़दूर बस्ती के जच्चाखाना में हमारी किलकारी गूंजी थी। तीसरा वो मई माह की १४ तारीख को जिस दिन करीब ११ महिने छोटी अवस्था में स्कूल ज़बरिया ठेले गये और सारे सरकारी खाते-बही में अब यही दर्ज है और इसी दिन रिटायर हो जाना है, कोई नही समझना वाला इस दर्द को।
बहरहाल यह तो हुई बात अब तक मनाये हुये जन्मदिवसों की जिस पर हमारा अपना कोई कंट्रोल नही था, बस रस्मी तौर निभाना भर था। चलिये छो़ड़िये जो हुआ तो हुआ, अब आपसे कहना जा रहा हूँ, अगस्त माह की १३ तारीख को एक और जन्मदिवस है और इस बार यह पूरा का पूरा हमारा ही है, इसी दिन हम पहली बार ब्लॉग पर उतरे थे ( वैसे यह सच कहने में कोई बुराई नही है इसके पहले एक बार हम और हाथ-पांव मार चुके हैं वेबदुनिया के ब्लॉग मेरी कविताएँ पर) एक दिन रचनाकार पर की किसी टिप्पणी को सहेजते हुये श्री रवि रतलामी जी मेरे ब्लॉग पर आये और उन्होंने मुझे या तो वर्ड-प्रेस या ब्लॉगस्पॉट से जुड़ने की सलाह दी, नतीजतन आज हम कवितायन के माध्यम से अपने विचारों को कविताओं में बदल आप तक ठेल रहे हैं।
इस पहले पड़ाव तक आते हुये जो कुछ जमा हुआ है या हिस्से में आया है उसका लेखा-जोखा ( कोई लेखा-संपरीक्षक/ऑडिटर तो नही दे पायेगा, आपको हमें ही झेलना होगा) आपके समक्ष है :-
कुल पोस्ट : 82
नज़र हुई टिप्पणियाँ : 572 ( पार्टी तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करती है )
अब इस सफर की शुरूआत हुई पहली किलकारी "कॉन्फ्रेंस" से जो एक हालिया अनुभव को कविता में बदल कर धकियाया गया था, जो कि १३-अगस्त-२००८ से लगाकर अगली पोस्ट ०६-ऑक्टोबर-२००८ तक भी बिना किसी टिप्पणी के मौजूद थी(कितनों ने पढ़ी होगी यह तो नही कह सकता, अलबत्ता हमारी मौजूदगी हो गई थी).ब्लॉगस्पॉट पर।
हौसला अफ्ज़ाई की पहल की श्री प्रदीप मनोरिया जी ने अपनी टिप्पणी हमारे दूसरे कदम " अवसाद ग्रस्त लड़की" से पार्टी उनकी बरकत में बढो़त्तरी की दुआयें खुदा से करती हैं। फिर क्या था उस एक टिप्पणी ने तो रास्ते खोल दिये और हमारे मंसूबों को भी पर लगा दिये। ऐसा लगने लगा कि सभी जैसे भोर में किसी न्यूज पेपर का इंतजा़र करते हैं वैसे ही पलक पांवड़े बिछाकर बैठे होंगे कि अभी हम सुबह के माथे पर टीक देंगे एक कविता और उनका दिन सफल हो जायेगा। फिर क्या एक पर एक कविता पेलने लगे, कुल नौ ठौं कविता पेलने बाद भी टिप्पणी वहीं की वहीं। और ब्लॉग पर टेम्पलेट और ढेर सारे बिल्ले( मुआफ कीजियेगा बिल्लियों वाले नही) "चिट्ठाजगत", ब्लॉगवाणी, हिन्दी ब्लॉग इत्यादि देख मन मसोस कर रह जाता था, क्या करें और कुछ पता भी नही था। अब भी मेरा ब्लॉग के बारे में ज्ञान काले अक्षर से आगे नही बढ़ा था।
ब्लॉग पर विजिट बढाने के नुस्खे खूब पढ़े पर ऐसा लगा कि तरीका कोई और ही काम आयेगा, तभी अचानक श्री बृजमोहन श्रीवास्तव साहब का आशीर्वाद मिला और एक नेक सलाह भी किसी सट्टे के नम्बर की तरह कि भईया यह गोरखधंधा समझ गये तो सफलता जरूर मिलेगी। इसके बाद ही हमारी एक कविता "माँ, केवल माँ भर नही होती" को सिर्फ टिप्पणियाँ ही नही मिली बल्कि श्री गिरीश बिल्लौरे "मुकुल" जी ने उसे अपनी एक लाईन की चर्चा में शामिल कर जो मान दिया वह किसी तिनके के सहारे सा आया, डूबने से बचना था सो बच गये। अब तक चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी पर हमारा दाखिला हो चुका था।
जिस कविता ने हमारी जिन्दगी बदल दी वो थी "लड़्कियाँ तितली सी होती हैं" अगर श्री अनूप जी शुक्ल नैनीताल नही गये होते और यह पोस्ट नही पढी होती तो शायद हम भी ब्लॉग से विमुख हो गये होते कि भाई यह क्या हुआ कि खूब रात-रात जाग के सोचा, लिखा फिर कम्प्यूटर पर उँगलियाँ तोड़ी और किसी ने देखा भी नही। पार्टी अपनी कामयाबी में श्री अनूप जी शुक्ल के योगदान को नही भूल सकती कभी कि बाद की १० चर्चाओं में मेरी कविताओं को स्थान देकर मेरा मान बढ़ाया।
(१) लड़कियाँ तितली सी होती हैं
(२) तार तार सच
(३) समय से तेज चलती घड़ियाँ
(४) तुम्हारे कमरे से निकलने के बाद
(५) कण्डोम क्या होता है
(६) सुकून से सोने के लिये
(७) जब गुम हो जायें लिपियाँ
(८) क्षितिज के पार
(९) कैसी लगती हो?
(१०) एक तौलिये वाले लोग
इसके बाद हिन्द-युग्म पर आयोजित मार्च माह की यूनिकविता प्रतियोगिता में अपनी कविता "चिड़िया हमारे घर आती थी कभी" के लिये द्वितीय स्थान मिलने का प्रोत्साहन हमें अप्रैल-२००९ के यूनिकवि के सम्मान के साथ प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाया कविता " सिमटते आँगन बंटती दहलीज " के लिये। हिन्द-युग्म इसी तरह से अपने अभियान में कामयाब हो इसी भावना के साथ श्री शैलेश भरतवासी जी का विशेष आभार।

रंजना भाटिया(रंजू) मैम के बारे में क्या कहूं क्या ना कहूं, मेरी कविताओं को उन्होंने एक पारखी की नज़र से देखा, कमोबेश सभी पोस्टों को पढ़ा और अपनी टिप्प्णियों से नवाज़ा है। उनकी टिप्प्णियों ने मुझे नारी को नारी सुलभ दृष्टीकोण से देखने और उस पीड़ा को महसूसने की समझ दी
जिनकी(ब्लॉगर्स) शुभकामनाओं के बिना इस मुकाम तक पहुँच पाना असंभव था सुश्री निर्मला कपिला , रश्मिप्रभा , आर. सी., राज , उर्मी चक्रवर्ती , पूजा , वन्दना , शमा , लता हया , क्षमा साधना , आशा जोगलेकर , शोभना चौरे , रंजना, ज्योत्सना पाण्डेय, मोना परसाई "प्रदक्षिणा" और आदि। तथा सर्वश्री समीरलाल , ज्ञानदत्त , ताऊ रामपुरिया , अनुराग शर्मा स्मार्ट इंडियन , डॉ. अनुराग , देवेन्द्र द्विज , मुफ्लिस साहब , ओम आर्य , बृजमोहन श्रीवास्तव , मेजर साहब गौतम राजऋषि
, दिगम्बर नासवा , आनन्दवर्धन , प्रदीप मनोरिया , नवीन शर्मा , विक्रम जी , डॉ. भूपेन्द्र कुमार सिँह , मंसूरअली हाश्मी , संजीव मिश्रा , विवेक प्रजापति (जो कि "नज़र" के नाम से अधिक जाने जाते हैं) , रवि श्रीवास्तव , एम. के. वर्मा साहब , अमिताभ श्रीवास्तव आदि।

अपने पहिले ब्लॉग जन्मदिवस पर आपके आशीर्वाद का आकांक्षी,

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

अपनी सीमाओं से परे

शनिवार, 8 अगस्त 2009

मुझे,
सुबह कोई,
साजिश रचती हुई लगती है
छोटी होती परछाईयों का खौफ़ दिल बैठाता है
यूँ लगता है कि
मेरे सपनों से दुश्मनी पाले बैठा है कोई
दुनिया भागते हुये लगती है
और मैं जकड़ा जाता हूँ
अपने ही साये में

मुझे,
दिन में ड़र लगता है
घर से बाहर निकलने में
सिहरन महसूस होती है
सांसों में ज़हर घुला सा लगता है
घुल जायेगा मेरा वुजू़द कुछ और देर खुले में रहा तो
मैं सिमटने लगता हूँ

मुझे,
लगता है कि
शाम जैसे जैसे ढ़लेगी
कोई अज़नबी सा आ दुबकेगा
मेरी परछाईयों में
साँसों में तेजी आने लगेगी
हड़बड़ाहट से लड़खड़ाते हुये कदम
कैसे भी उठा लेगें मेरा बोझ
बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
मेरी, अपनी सीमाओं से परे
-----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-अगस्त-२००९ / समय : ११:२२ रात्रि / घर

वो, मुझसे करती है शिकायत

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

कविता सदा ही अपने आस-पास से प्रेरणा देती रही है मुझे, मेरी बिटिया " अदिती " एक दिन मेरी शिकायत मुझसे से ही करती है कि मैंने क्यों उसको लेकर कुछ नही लिखा आज तक? यह कविता इस शिकायत के बाद लिखी है कि वह ऐसा क्यों महसूस करती है, कि मुझे छोटी बिटिया "श्रेया" से ज्यादा प्यार है । यूँ तो यह कविता पिछले एक वर्ष से इंतजार कर रही थी, आज ठीक एक साल रक्षाबंधन की पूर्व संध्या पर इसे अदिती को तोहफे के रूप में प्रस्तुत करते हुये मुझे बड़ी खुशी हो रही है।

आपका समर्थन मुझे प्रोत्साहित करेगा,


मुकेश
-------------------------------------------------------------------------------------

वो
मेरी जिन्दगी में कब आई?
कुछ पता ही नही चला
जैसे दोपहर की झपकी हो
या भोर का ख्वाब

मैं,
ना जाने कैसे अंजान रहा
ना कभी उसके बारे में कुछ सोचा ना लिखा
ना कभी उसे देख पाया उसकी पहचान से
वो, जैसे घुल आई हो मिश्री की तरह मिठास में

वो,
किसी खामोश वादियों में
गूँजते संगीत सी हरदम थी मेरे साथ/
किसी नदी की कलकल सी/
दौड़ती रही मेरी रगों में अपनी पहचान से मुक्त

वो,
गुमसुम सी लड़की
जिसका पास होना ही
बड़ी बात समझा जाता हो
और वो पास होती है फर्स्ट क्लास
नकारते सारे अनुमान को

वो,
जो रो देती है किसी भी बात पर
चाहे भैया बीमार हो या मुझे चोट लगी हो
छोटी ने मारा हो उसे या गुनी ने नोचा हो
या किसी ने कुछ कह दिया हो

वो,
जब मुझसे करती है शिकायत
मैं क्यों नही लिखता कोई कविता उस पर?
ऐसा उसे क्यों लगता है कि
उसे नोटिस किये जाने की जरुरत है?
भला कोई अपने ही हिस्से को भूलता है कभी?
मैं आज समझाउंगा उसे।
-------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक: 05-अगस्त-08 / 07: 05 सुबह / चुनमुन की शिकायत पर

उसकी, उंगली कट गई है !!!

शनिवार, 1 अगस्त 2009

उसकी,
उंगली कट गई है
मशीन में आकर
उनकी
पूरी शाम चिंता में गुजर रही है
जो मशीनों से कोसों दूर होते हैं

किसी भी,
एक्सीडेंट को
यदि, वह इंडस्ट्रीयल हो तो
९६ फीसदी गलती इंसानी होती है
बची ४ फीसदी ही
मशीन / स्थितियों / परिस्थितियों
के हिस्से में आती है

मीटिंग रुम में बहस गर्म है
कारणों और कारको का
अंदाज लगाया जा रहा है
किस तरह से हुआ होगा /
कोई सिम्यूलेट कर रहा है /
किसी का कहना है
कूछ तो करना पडे़गा / एनालिसिस होना है
काऊंटरमेजर प्लान करना है

उसकी,
की उंगली में टांके आये है
काफी खून बहा है
शुक्र है फ्रेक्चर नही हुआ है /
या टपकी नही है
किसी को संतोष है
वह घर जा चुका है
शाम हो आई है अभी भी
एक्सीडेंट कैसे हुआ नही खोजा जा सका है.
सभी को भूख लगने लगी है
रिर्पोट कल पेश की जानी है
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-जनवरी-२००९ / समय : ११:३० रात्रि