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कविता : प्रेम

बुधवार, 25 जनवरी 2012

प्रे,
अपने को व्यक्त करने के लिए
केवल सौन्दर्य को ही
नही खोजता
वह किसी भी रूप में
तलाश लेता है
स्वयं को अभिव्यक्त करने का रास्ता


प्रे
की विशुद्ध अभिव्यक्ती
मैंने महसूस की है
निश्छल झरनों में
अन्जान पहाड़ी के किसी निर्झर कोने से
जब,
कोई नदी
प्रकृति के मोह में
छलाँग लगा देती है
किसी अनछुई बियाबाँ तलहटी में
खुद धुंध में बदलते हुए विलीन हो जाती है
मिस्ट में बदलकर हवा में कहीं 
और
पत्थरों के सीने पर
फूटने लगती हैं कोंपलें
वादियों में ध्वनित होने लगता है संगीत
बस,
प्रे अंकुरित हो जाता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 07-जनवरी-2012 / ऑफिस / समय : 12:35 दोपहर

कविता : तुम्हारे शब्दों से बुनी दुनिया में

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

नये साल की पूर्व रात्रि, जो भी मन में था उसे निम्न पंक्तियों के माध्यम से आप सभी तक पहुँचा रहा हूँ।

तुम्हारे,शब्द मुझे व्यापार से लगते हैं
अक्सर चढ़े हुए
या गिरे-गिरे से
और हरबार
तुम आदमी का मोल-भाव करते नज़र आते हो

तुम्हारे,
शब्द गंधाते हैं मेरी साँसों में
ताजे माँस की तरह
जैसे अभी-अभी किसीने मछली को चीरा हो
हंसिये के सहारे
और तौल दिया हो
जरूरतों को रुपये में बदलते हुए
तुम अपने शब्दों से जाल बुनते नज़र आते हो

तुम्हारे,
शब्द खट्टाते हैं मुँह में
पीले-पीले केलों की तरह
जिन्हें समय से पूर्व ही पकाया गया हो कार्बाइड से
तुम्हें बड़ी होती लड़कियाँ
लगती हैं केले की भारियों की तरह
तुम्हारी आँखों का पीलापन बढ़ता जाता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 31-दिसम्बर-2011 / समय : 10:50 रात्रि / घर