शायद,
वो माँ होते हुये भी
टुकड़ों में बंटी हुई थी
या बेटों ने अपनी सुविधानुसार
बांट लिया था
अपने सामर्थ्य के अनुपात में
वो,
जैसे माँ ना होकर
केवल एक लाईब्लिटी में बदल गई थी
उसे बीमार भी होना पड़ता था
बेटों के शेड्यूल के हिसाब से
गर एक दिन भी ज्यादा हो तो
या तो दवाई नही मिलती थी
या खान उस दिन
जॊ भी था सीधा-सीधा हिसाब था
एक दिन,
छोडकर बेटों को अपने हाल पर
चल पड़ती है अंनत यात्रा पर
बेटें अब भी उलझे है हिसाब में
किसका कितना खर्च हुआ है
कौन कितने घंटे रुका अस्पताल में
अभी आगे कैसे खर्च करेगें
कि किसी एक पर बोझ ना आये
अब,
आत्मा तो चली गई है
इस नश्वर शरीर का क्या
जैसे भी हो उत्तम-मध्यम बस निपटाना भर है
बहुयें उलझ रही है
बेटे झगड़ रहे है / मोबाईल से चिपके हैं
शाम हो रही है
जो भी जुट आया है जैसे भी, जल्दी में है
माँ,
ज़मीन पर इंतज़ार कर रही है
अपनी अंतिम यात्रा का
और बेटे तलाश रहे है कंधे
--------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २१-ऑक्टोबर-२००८ / समय : ११:०५ रात्रि / घर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियाँ
मान गए आपके विचारों के अभिव्यक्तिकरण की योग्यता को, अति उत्तम
23 अक्टूबर 2008 को 5:23 pm बजेदीपावली की हार्दिक शुबकामनाएं
25 अक्टूबर 2008 को 11:51 am बजेबहुत गंभीर भाव शब्दों का सहज प्रवाह
26 अक्टूबर 2008 को 9:48 am बजेसुखमय अरु समृद्ध हो जीवन स्वर्णिम प्रकाश से भरा रहे
दीपावली का पर्व है पावन अविरल सुख सरिता सदा बहे
दीपावली की अनंत बधाइयां
प्रदीप मानोरिया
एक टिप्पणी भेजें