.post-body { -webkit-touch-callout: none; -khtml-user-select: none; -moz-user-select: -moz-none; -ms-user-select: none; user-select: none; }

सुबह का इंतजार

मंगलवार, 30 जून 2009

रात,
के बाद सुबह आती है
यह मेरा भी विश्वास था
अपने हिस्से की रात को किसी भी तरह
मैं बदल देना चाहता था सुबह में


सूरज,
को अपने आँगन में उगाने के लिये
नींद के चाक पर
मैंने गढे सपनें सुबह के
अंधेरे को सारी रात जगाया
सूरज जैसे निकलना ही नही चाहता हो अपनी माँद से
ना कोई भ्रम ना कोई संशय
ना कोई नर ना कोई कुंजर
यहाँ तक कि कृष्ण भी मेरे साथ नही कि फूंके पाञ्चजन्य
और सूरज को मेरे पक्ष में खड़ा कर दे आधी रात में
बस इंतजार का काज़ल आँखों में लगाये
जागना है सुबह तक
सूरज का इंतजार करते
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-जून-२००९ / समय : ११;३१ रात्रि / घर

भाग्य की तलाश

बुधवार, 24 जून 2009

भाग्य,
को तलाशा मैंने अपनी हथेलियों पर
फिर उन रेखाओं में खोजा
जो मेरे बचपन की किसी तस्वीर में तो हैं
फिलहाल नदारद
शायद घिस आई हैं

भाग्य,
को फिर तलाशा मैंने पेशानी पर
सलवटों में छिपी परेशानियाँ मिली
उलझनों की इबारत में दर्ज चिंतायें मिली
वो लकीरें जो दिख जाती थी
भौंहे सिकोड़ने पर कभी
फिलहाल नदारद
शायद बालों के साथ उड़ गई हैं

भाग्य,
को अंततः तलाशा मैंने कुंड़ली के खानों में
ग्रहों-नक्षत्रों का रचा जाल मिला
हर घड़ी बदलता पंचांग मिला
वह जैसे देवताओं के किसी षड़यंत्र का शिकार हो गया हो
विश्वामित्र की तरह
और, मैं नाहक ही खोज रहा हूँ
---------------------------------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २३-जून-२००९ / समय : १०:०२ रात्रि / घर

मकान में कैद घर

शनिवार, 20 जून 2009

दीवारों से घिरी चौहद्दी, जिसके ऊपर छत भी होती है एक मकान की शक्ल इख्तियार कर लेती है। जिसके तले सपने बुने जाते हैं.... तामीर होते हैं...... पराये अपने हो जाते हैं......परिवार बढता है......बचपन चहकता है......जवानी आती है......यह एक अदद मकान क्रमशः घर में बदल जाता है।

फिर एक दिन वो आता है जब यह मकान को बदलना होता है, एक-एक कर सारा सामान पैक हो चुका है। एक नज़र से फिर मुआयना होता है पूरे खाली मकान का कहीं कुछ रह तो नही गया है तब मैं किसी कोने में कोई कहता है मेरे कानों में :-

भीतर,
की ओर खुलने वाले
दरवाजों के बाद
दीवारें बदल जाती हैं
दालान में
जहाँ आज भी मेरा बचपन झांकता है
फिर शुरू होता है
आँगन जिसमें
गुनगुनी धूप बिछी रहती है
मखमल सी
चांदनी भी छिटकती है
जैसे हरसिंगार झरा हो झूमके
जहाँ मेरे जवान होते सपने भी
मिल जाते हैं
अक्सर रातों में तारे गिनते

खेतों,
की ओर खुलते रास्ते पर
मेरा कमरा
बाहर की ओर खुलती खिड़की
जिससे ताजा हवा झोंका
अब भी लगता है
लेकर आयेगा तुम्हारी खुश्बू
और मैं भीग जाऊंगा
झरोखे में कैद तुम्हारा अक्स
अब भी लगता है
बातें करेगा सुबह तक
मेरे सिर में उंगलियाँ फिराते हुये

क्या,
यह सब मैं
ले जा सकूंगा अपने साथ?
---------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १५-जून-२००९ / समय : १०;४८ रात्रि / घर

जड़, होने के पहले

मंगलवार, 16 जून 2009

जब,
भूख नही लगती
पेट रोटियों से भरा रहता है
और नींद नही आती
गोलियाँ खाने के बाद भी
तब,
चेतना खोजने लगती है
जीवन के पर्याय

हथेलियों,
पर बनते बिगड़ते समीकरणों में
चेतन और अचेतन के बीच की रेखा
मिटने लगती है ललाट पर

जड़ होने की हद से
थोड़ा पहले ही चेतना
बदलने लगती है अतिविश्वास में
ज्ञान को उग आते हैं पर
च्यूंटियों की तरह
और आत्मा शरीर के अंदर ही
विलीन हो रही होती है
----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-जून-२००९ / समय : ११:५२ रात्रि / घर

क्षितिज के पार

सोमवार, 8 जून 2009

शब्द,
बस दम घोंटे हुये
चुपचाप वहीं बैठे रहे
बाट जोहते अपनी बारी की

विचार,
छटपटाते हुये
ढूंढते रहे रास्ता बस
किसी तरह बह निकलने का

मैं,
दोनों के बीच
हाशिये पर टंगा
तलाश रहा था वुजूद अपना
त्रिशंकु सा
और,
क्षितिज पर
केवल तुम थी,
सत्य की तरह
शाश्वत
----------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जून-२००९ / समय : ११:१८ रात्रि / घर