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दिन का यूँ ही गुजर जाना

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

सारा,
सारा दिन यूँ ही गुजर जाता है
बस एक बिन्दू पर अटके हुये
और शाम होते होते
टारगेट अचीव्ह नही हुआ है
हम सारे मिलकर
एक कदम भी नही बढे है आगे से
प्रश्‍न लगाने लगते है
चुप्पी के ताले
सारे दिन बोलने वाली जुबान पर

सारा,
दिन तो गुजर गया
प्लान बनाने में /
काऊन्टर मेजर सोचने में /
वक्‍त ही नही मिला कि
काम शुरू कर पायें
और यह लो आ गई अगली सुबह

इसके,
पहले की रात की बची अंगडाईयाँ ली जाये
सुबह की उबासियों के साथ
फिर,
बुलाया गया है
कल की प्रोग्रेस डिस्कस की जायेगी
प्लान-डू-चेक-एक्‍शन के चक्र से गुजरते
किसी पे उतरेगा रात का गुस्सा
इतना तो तय है

अंततः,
गुस्से के शांत होते शुरुआत होगी /
कॉपियाँ खुलेगी
ब्रेन स्टार्मिंग होगी / काऊन्टर मेजर सोचा जायेगा
प्लान बनेगें / एक्‍शन प्लान बनेगा /
चेक किया जायेगा
इसके पहले कि
एक्शन कौन लेगा यह डिसाईड हो
दिन खत्म हो जायेगा

अगली,
सुबह फिर अंगड़ाईयाँ / उबासियाँ
बाट जोहेगीं किसी मीटिंग की
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १६-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर