बूढियाँ,
क्यों इतना जीती हैं?
कि उनके लिये
ना किसी के पास इतना वक्त होता है
कि बैठा सुनता रहे जुबाँ पर ही गुम हो जाते शब्दों को
और हुंकार भरता रहे बीसियों बार सुनी बातों पर
या बार-बार कोशिस करे उन कानों में शब्द डालने की
बूढियाँ,
क्यों इतना जीती हैं?
कि उनके लिये
कोई जगह नही बचती घर में
किसी टूटे फ़्रेम सी या कबाड सी
बस मारी-मारी फ़िरती रहती हैं
घर में इस कोने से उस कोने तक
कभी-कभी निकाल भी दी जाती हैं बाहर
या किसी के आने पर कैद कर दी जाती हैं
घर के पिछले हिस्से में
बूढियाँ,
क्यों नही मार दी जाती हैं?
इसके पहले कि
वो सडक पर फ़िरती रहे मारे-मारे
आवारा ढोर सी /
किसी के पास उसके लिये कोई फ़ुरसत नही हो
कि सुनता रहे उसकी बक-झक
और वो तंग आ गई हो दीवारों से बातें करते /
कोई कुछ नही पूछे उसके बारे में
भले ही नही दिखी हो कई दिनों से घर में
शुक्र है हमारे यहाँ मंदिर आदमी से ज्यादा है
जहाँ इतनी जगह तो रहती है कि
समा जायें सारे शहर की बूढियाँ
जूते-चप्पलों की भीड में भजन करते
या भीख माँगते बाहर
और हमें मौका देती रहे अपनी सदाशयता दिखाने का
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-अगस्त-२००८ / समय : ११:४५ रात्रि / घर ( सांई मंदिर पाटनीपुरा, इन्दौर)
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2 टिप्पणियाँ
मुकेश जी आपकी कविता में बड़े सारे तथ्य है बुधिया के बारे में इतना सारा लेखन गज़ब है
15 अक्टूबर 2008 को 8:53 pm बजेभाई मनोज जी,
15 अक्टूबर 2008 को 9:27 pm बजेआप की कविता पढी तो सोचने को मजबूर हो गया. निम्न पंक्तियाँ विशेष पसंद आयीं..........
शुक्र है हमारे यहाँ मंदिर आदमी से ज्यादा है
जहाँ इतनी जगह तो रहती है कि
समा जायें सारे शहर की बूढियाँ
आज के तथाकथित पड़े-लिखे स्वार्थी युवा वर्ग के लिए इससे बड़ी बात परोक्ष रूप से और क्या कही जा सकती है
सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
www.cmgupta.blogspot.com
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