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कविता : अंगूठे का सहारा

शनिवार, 16 जुलाई 2011

गुरू पूर्णिमा के अवसर गुरू और गुरू दक्षिणा दोनों की ही याद आ जाती है.... गुरू द्रोणाचार्य सा और शिष्य एकलव्य जैसा। इसी परंपरा का निर्वाह आज के संदर्भ में किस प्रकार से हुआ है / किया जा रहा है, अंगूठे की उसी महत्ता को प्रस्तुत कविता में एक नई दृष्टी से देखने का प्रयास किया है :-

अंगूठे,
को लेकर
मेरा कौतुहल
आज भी विद्यमान है
महाभारत काल से लगाकर आजतक
जब आदमी रख चुका है
अपने कदम अंतरिक्ष के सीने पर
अंगूठे के अस्तित्व को नही नकार पाया है
फिर, वो चाहे
एकलव्य का रहा हो
आम आदमी का
किसी


आज भी
जब विज्ञान नही समझ पाता है
किसी बात को
रुक जाता है
किसी रूल ऑफ थम्ब पर
लेते हुए सहारा अंगूठे का
तर्कों को ठेंगा दिखाते हुए
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मुकेश कुमार तिवारी
गुरू पूर्णिमा के अवसर पर / दिनाँक : १५-जुलाई-२०११