जब,
ढोल बजता है तो
पैर चलने लगते है
शरीर में दौड़ने लगती बिजली
संगीत के लय पर
मन बस थिरकने को चाहता है
कहीं भी ताल पर
फ़िर,
जैसे तरंगे उठी हो शरीर में
कमर ठुमकने लगती है
हाथ-पांव लहराने लगते हैं
लचकन शरीर में
खुजली की तरह होने लगती है
दिल नाचना चाहता है जी भर के
तब,
उम्र कसने लगती है
शरीर को मर्यादा के बंधनों में
कि लोग क्या कहेंगे / हसेंगे,
कि जरा भी लिहाज नही
बस जरा ढोल क्या बजा लगे नाचने
औरते हैं / लड़कियाँ हैं / बच्चियाँ हैं
कुछ भी नही देखते
यह क्या कि बुढा रहे हैं
लौंडो़ में घुसना छूटता ही नही
एकाध हाथ पांव उल्टा सीधा पड़ गया तो
बिस्तर लग जायेगें
ना जाने क्या क्या कहा जाता है
कुछ ऐसा भी कि सुनते ही
कान के कीडे झड़ जाये
करें,
क्या आदत से मजबूर हैं
जब भी कहीं बजता है ढोल
कुछ हो जाता है मुझे
फिर कोई कुछ भी कहे
ढूंढने लगता हूँ कोई कोना
जहाँ लगा सकूं एक ठुमका
आप कहें ना कहे
ऐसा कुछ होता तो होगा ही
आपको भी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर
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