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कविता : अण्णा, यह ठीक नही किया तुमने

शनिवार, 27 अगस्त 2011

शायद, तुम नही जगाते तो
हम जागते ही नही
नींद का खुमार अब भी बाकी है
हम जैसे स्वपन में जीने के आदी हो गये हैं
और हमारी दुनिया
जिसमें वो भी हैं
जो देते हैं नशा हमें ग़ाफिल करने के लिए

तुम नही बताते कि
जब आसमान में तारे नही होते तो
उसे दिन कहते हैं
शायद हम जान ही नही पाते कि
दिन होने का मतलब क्या है
बस रात में ही डूबे रहते
वादों का सुरमा लगाये अपनी आँखों में

तुम,
यदि नही बतलाते कि
ये टोपियाँ कितनी उजली हैं तो
शायद हम जिन्दगी यूँ ही गुजार देते
कभी टोपियाँ खरीदते ही नही
बस पहनते जाते
उन्हें देखते हुए

अण्णा,
यह ठीक नही किया तुमने
जगाके रख दिया
इस सोते देश को
कम-अज-कम सपने तो देख ही रह था
खुशहाली के
अब रोयगा कि पहले क्यों नही जागा
लेकिन,
तुम्हें इससे मिलेगा क्या?
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 22-अगस्त-2011 / समय : 11:56 रात्रि / घर

कविता : फोड़ लो आँखें अपनी

शनिवार, 13 अगस्त 2011

जो,
आवाजें
तुम्हें सुनाय़ी दे रही
उन्हें सुनते रहना या
बर्दाश्त कर पाना
तुम्हारे बस में नही है

तुम,
बहुतकुछ
न चाह के भी देख रहे हो
बरबस
जैसे इन्द्रियों ने
खुद हथिया लिये हो
सारे नियंत्रण

अपने
कानों को
हाथ से ढांप लेने /
उंगलियाँ डाल लेने से
कुछ नही होगा
यह आवाजें तब भी आयेंगी
तुम
अपने कानों में
भर लो पिघला सीसा
(यह मुफ्त मिल रहा है आजकल)
तब न आवाजें आयेंगी
न ही हाथ उलझे रहेंगे
आवाजों से लड़ते

आँखें,
कुछ देर तो बंद
रखी जा सकती हैं
लेकिन ता-उम्र नही
गांधारी प्रतिज्ञ होने के बावजूद भी
नही छोड़ पायी थी लोभ
एक दृष्टी देखने का
इसलिए
यदि बचना चाहते हो
आँख-मिचौनी से तो
फोड़ लो आँखें अपनी
(कई मॉल्स में कान के साथ आँखों का पॅकेज मुफ्त मिल रहा है)
 
इसके,
बाद तुम किसी भी दिशा में जाओ
तुम महसूस करोगे
लोगों से टकराते /
या उनकी साँसों के स्पर्श को
लेकिन,
कोई बैचेनी
न तुम्हारे अंतर होगी
ना आँखों में
और न ही कान में
और,
यह जो भी है.......हुजूम
तुम्हारे साथ ही बना रहेगा
कयामत तक

जिनके,
दादाओं ने कभी फूंका था
बिगुल तुम्हारे कानों में
या जिनके बाप ने
तुम्हें दिखाये थे रंगीन सपने 
कान और आँखें
अब केवल
उनके वंशजों के पास ही होंगे
और वो ही तुम्हें हाँकेगें
कभी जयकारों के लिए
तो कभी वोटों के लिए
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-जुलाई-2011 / समय : 11:40 रात्रि / घर (वायरल फीवर की चपेट में बिस्तर पर)