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माँ को इस उम्र में समझाना

रविवार, 19 अक्टूबर 2008

माँ,
को इस उम्र में समझाना/
नई आदतें ढलाना /
या सिखाना कुछ और जो उसके संस्कारों /
परिवरिश से नही मेल खाता हो
बड़ी अज़ीब सी मुश्किल में डालता है

उपवास मत करो/
या छठे-चौमासे किया करो/
ये क्या हुआ कि पाञ्चांग देखा नही कि
शेड्यूल बना डाला उपवासों का
और यह भी भूल जाती हो कि
डायब्टिक हो भूखे नही रहना चाहिये

पूजा,
जितनी लंबी और देर तक हो सके
सुकून देती है उसे
घण्टों पैर मोड़े पालथी लगाये डू़बे रहना ध्यान में / भजन करना
मना किया जाये या
डॉक्टर की मनाही याद दिलाई जाए
कि जिस दर्द से ना तो ठीक से चल पाती हो/
ना खड़े रह पाती हो
यह कहाँ तक जायज है कि
दवा तो लें परहेज ना करें तो नाराज हो जाती है

हिदायतें,
जब बैठो तो स्टूल पर / कुर्सी पर बैठो
भले ही पूजा करनी हो या कुछ और
ज़मीन पर बैठना नही/ या कुछ ऐसे कि घुटनो पर नही आता हो ज़ोर
कैसी भी हो यूँ ही उड़ा देती है
जैसे हम उड़ाते है मच्छर
हालांकि,
उसके पास अपने तर्क भी होते हैं
अब क्या करना है सीख़ के
तुम्हारे तौर तरीके तुम्ही देखो
हमारी तो, जो भी बची है कट जायेगी

माँ,
को इस उम्र में समझाना/
नई आदतें ढलाना /
सिखाना कुछ और
बडा़ ही मुश्किल होता है।
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मुकेश कुमार तिवारी दिनांक : १५-अक्टोबर-२००८ / समय : ०४:३० दोपहर / ऑफ़िस में