लड़की,
बाहर आओ
तोड़ के सिमटते हुये दायरे को
छत के कोने पर खड़े हो फ़ैलाओ बाहों को
मह्सूस करो हवा में तैरने के लिये
तुम कभी लगा सकती हो छलांग
अनंत में तोड़ते हुये सारे बंधनों को
हथेलियों में,
कैद करो हवा में घुली हुई नमी को
और मुरझाते हुये सपनों को ताजा दम कर लो
या गूंथो कोई नया संकल्प
सुनो
हवा में गूंजते हुये संगीत को
और चुरा कर रखो किसी टुकड़े को अपने अंदर
वहीं, जहाँ तुम रखती हो अपनी सिसकियाँ सहेज कर
और छाने दो संगीत का खु़मार सिसकियों पर
देखो ठहरे हुये
पराग कणों को तुम्हारी चेहरे पर
और पनाह दो आँखों के नीचे बन आये काले दायरो में/
या बुनी जा रही झुर्रीयों में
और फ़ूलने दो नव-पल्लव विषाद रेखाओं के बीच
मह्सूस करो,
हवा में पल रही आग को
और उतार लो तपन को अपने सीने में
जहाँ रह-रह कर उमड़ते हैं ज्वार
और लौट आते हैं अलकों की सीमा से टकराकर
लड़की,
बाहर आओ, उठ खड़ी होओ
दीवार के बाद पीछे कोई जगह नही होती
और यदि कोने में हो तो कुछ और नही हो सकता
कब तक घुटनों पर रख सकोगी सिर/
आंसूओं का सैलाब बहाओगी/
अंधेरे में सिमटती रोशनी सी
कब तक लड़ सकोगी अकेली फ़ड़फ़डाते हुये
लड़की,
बाहर आओ, देखो
खुला आकाश/
हवा/नमी/संगीत/रोशनी/आग
और जिन्दगी
कर रहें है तुम्हारी प्रतीक्षा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १४-सितम्बर-२००८ / समय : ०६:३० सुबह / घर
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1 comment
श्रीतिवारी जी बहुत मार्मिक और सवेंदना से भरपूर आपकी रचना . आपके मेरे ब्लॉग पर आगमन के लिए धन्यबाद कृपया चुनावी दंगल पढने पुन: पधारे
17 अक्टूबर 2008 को 7:33 pm बजेप्रदीप मनोरिया .
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