.post-body { -webkit-touch-callout: none; -khtml-user-select: none; -moz-user-select: -moz-none; -ms-user-select: none; user-select: none; }

कुछ देर ठहरना चाहता हूँ

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

जब, तक हम साथ थे
उस एक रास्ते पर चलते हुये
मुझे हरपल लगता था कि
हम एकदूसरे के लिये ही बने है
शायद तुम भी,
ऐसा ही कुछ सोचती हो

न,
जाने मुझे ऐसा क्यों लगता था कि
मैं तुम पर थोप सकता हूँ
अपने विचारों को धूप की तरह /
तुम्हें घुले रख सकता हूँ
अपनी देहगंध में /
तुम पर अधिकार जता सकता हूँ
सिर्फ इस वज़ह से ही कि
हम साथ चल रहे हैं
और हमारे बीच पहचान बदलने लगी है
रिश्ते की सहूलियत में

मेरे,
विश्वास के परे
तुम किसी कोंपल की तरह
फूट पड़ीं और
अलग कर लिया खुद को
मेरी पहचान से मुक्त
मैं अब भी मुड़के देखता हूँ तो
तुम्हारे कदमों की छाप दिखाई देने लगी हैं
मेरे कदमों से अलग होती हुई
लेकिन रास्ता / दिशा अब भी एक ही है
मैं,
कुछ देर ठहरना चाहता हूँ
तुम्हारा इंतजार करते
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 03-फरवरी-2011 / समय : 11:27 रात्रि / घर

कविता : आदमी को पसीना नही आता है

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011


जबसे,
प्रबंधन(मैनेजमेन्ट) सिद्धाँत नही
बल्कि किसी हथियार की तरह इस्तेमाल होने लगा है
और, आदमी ने सीखा
आऊटसोर्स/ऑफलोड़ करना और
खुदको मुक्त कर लेना
अपने कर्तव्यों से
तबसे,
आदमी! आदमी नही रहा

जब,
उसने सीखा था पढ़ना लिखना
तबसे,
आदमी नही रहा जंगली
जो अपनी सीमाओं का विस्तार करता था
अदम्य साहस के सहारे
और बदलकर रख देता था
जो भी चाहता था

अब,
आदमी अपने अधिकारों को बिजूकों में बदल
चौराहों पर खड़ा करता है
हक के लिये लड़ने
और खुद सो जाता है
दुबुक कर
अब,
आदमी को पसीना नही आता है
---------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 29-जनवरी-2011 / समय : 07:45 सायं / बाहा-ईवेंट से लौटते हुये