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गण, पैसा और तंत्र

बुधवार, 28 जनवरी 2009

आज,
फिर मना गणतंत्र दिवस
सुबह से ही रेडियो चीख रहे थे
मॉल्स में भारी छूट मिल रही थी
देशभक्‍ति शीतलहर सी फैली हुई थी
स्कूलों से लड्‍डू खाये बच्चे लौट रहे थे
गण चौराहों पर बेच रहा था
एक रुपये में झंडा
जो कुछ देर तो जरूर हाथों में था
रस्मी तौर पर फिर.........

जिनके बाप के पास पैसे थे
उनके हाथ में झंड़े थे
तंत्र उनके साथ था
जिसके पास पैसा था
सुस्ता रहा था छुट्‍टी की दोपहर
और बचा हुआ गण,
पैसे पैदा कर रहा था
झंड़े बेचकर /
घरों से कचरा फेंककर /
या बदल कर भीड़ में
एक जून की जुगत में
जिंदाबाद / जयहिन्द बोल रहा था
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २६-जनवरी-२००९ / समय : ११:३० दोपहर / पलासिया चौराहे पर

कुछ दिन बिस्तर पर

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

प्यारे ब्लॉगर्स साथियों

करीब दस दिन की अनुपस्थिती के बाद आज पहली बार आप सब चाहने / पढने वालों से मुखातिब हो रहा हूँ. इस बीच क्या हुआ क्या ना हुआ आप के समक्ष रख रहा हूँ.

हाँ एक बात बड़ी शिद्दत से कह सकता हूँ कि मैने अपने नेट/ब्लॉग परिवार को काफी मिस किया.

आपके स्नेह का आभारी

मुकेश कुमार तिवारी
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कुछ दिन बिस्तर पर

पता,
नही पैर में क्या हुआ था
सूजन ने केले के तने सा बना दिया था
एक सिम्पल सी ड्रेसिंग को क्या गया
कि उलझ के रह गया

ब्लड़शुगर ने कुछ नही किया
बेचारी नॉर्मल थी
ब्लड़ प्रेशर जरूर पारे के साथ
नदी-पहाड़ / छिया-छाई खेल रहा था
२१० / १५० कुछ ठहरने के बाद १९० / १४०

फिर,
सीने पर कसे जाने शिकंजे
कॉर्डियोग्राम जो होना था
दिल में जो भी था
बदल कर तरंगों में लिखने लगा
अफ्साना मशीन पर
उनकी नजरों में नॉर्मल था

कुछ देर बाद,
फिर खेली आँख-मिचौली पारे से
१९० / १३० के स्कोर पर
फिजिशियन की कुछ हिदायतों /
जरूरी परिक्षणों के निर्देशों /
दवाईयों की लम्बी फेहरिस्त थामे
कुल जमा दो सवा दो घंटों बाद बिदा लेता हूँ
और बिस्तर पर सिमट कर रह जाता हूँ

फिर,
यूरीन रूटीन / माईक्रोस्कोपिक
सी.बी.सी / थाईरॉइड / सीरम क्रिटानिन
फॉस्टिंग / पोस्ट पेरेन्डियल
और ना जाने क्या-क्या?
बस एक रूटीन सा बन आया हो
एक दिन छोड के ड्रेसिंग और
रोज ट्रांक्यूलाईजर्स के डोज
ब्लड़ प्रेशर की माप-जोख
फुर्सत ही कहां रही

आज,
कुछ ठीक लग रहा है
कुछ देर बैठ पाया हूँ सिस्टम पर
कि कह सकूं अपना हाल आपसे
इस बीच कई मेरे ब्लॉग पर आये
अपनी टिप्पणी लिखी
मेरे २ चाहने वाले बढे
किसी एक को मेरा लिखा पसंद नही आया

बहरहाल,
मैं अपने काम पर लौटूंगा
२७ जनवरी से
इस बीच बहुत कुछ सोचा है
लिखना बाकी है
और आप सभी को सुनाना शेष है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २३-जनवरी-२००९ / दोपहर : ४:३० / घर-बिस्तर पर

लड़कियाँ तितली सी होती हैं....(नई कड़ी)

बुधवार, 14 जनवरी 2009



मेरी अपनी एक पुरानी कविता "लड़कियाँ तितली सी होती हैं" जो कि ब्लॉग "कवितायन" http://tiwarimukesh.blogspot.com पर २५-नवम्बर-२००८ को प्रस्तुत की गई थी. उसकी अगली कड़ी में अपनी भांजी "जान्हवी" (पुत्री : विभा-राजेश) के जन्म के साथ मुझे यह पंक्‍तियाँ और सूझी :-

लड़कियाँ,
गोद में हों तो गुलाब सी लगती हैं
घुटनों पर चलता ख्वाब लगती हैं
जो मुस्कुराये तो मन मोह ले
जमीं पर उतरा माहताब लगती है

लड़कियाँ,
जब आती हैं तो,
बदल जाती है दुनिया
आँगन में झरती चांदनी लगती है
रातों में महकती बगिया लगती है

---------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जनवरी-२००९ / समय : १०:०१ रात्रि / विभा के घर

कुछ अधूरे प्रश्‍न

सोमवार, 12 जनवरी 2009

यह,
जरूरी तो नही कि
हर पूछे गये प्रश्‍न का जवाब दिया जाये
या यदि लगा हो प्रश्‍नचिन्ह
क्यों?
तो उससे हरसंभव छुटकारा पाया जाये
कभी,
मौन से अच्छा उत्‍तर कोई नही होता
कभी,
पूरी जिन्दगी कम पड़ती है बयां करने में
क्यों?
एक प्रश्‍न नही होता अपने आपमें
मुकम्मल
सिर्फ बौखलाहट है प्रश्‍नों की

एक,
सीमा होती है जहां तक ही
सहा जा सकता है प्रश्‍नों को
या तलाशा जा सकता है जवाब
जब कचोटने लगते है प्रश्‍न तो
फिर, नकारा जाने लगता है

प्रश्‍न,
जब कुलबुलाते हैं अंतर
तब क्यों? आकार लेता है
और टोह लेता है जवाब की
फिर, यह उम्मीद क्यों
कि हर कि क्यों के बाद
आवाज गुम नही हो जायेगी
सन्नाटे में
बल्कि, लौटती रहेगी
अनुगूंज बनकर

क्यों?
कुछ प्रश्‍न रह जाते है अधूरे
क्यों?
हर प्रश्‍न का जवाब नही होता
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-जनवरी-२००९ / समय : १०:१७ रात्रि / घर

किसी दिन अपनी बारी पर

शनिवार, 10 जनवरी 2009

मेरे सामने,
दिनभर वही डरावने प्रश्‍न थे
जिनके उत्तर?
शायद मैं खोजना ही नही चाहता था
बस यूँ ही भागते हुये सच से
मैं बचना चाहता था
अपनी जिम्मेवारी से

मुझ,
पर जैसे सुबह से ही सवार था
खौफ
कि / मुझसे कुछ पूछा जायेगा
जाना - अंजाना सा
यह उम्मीद रखी जायेगी कि
मेरे पास उन सारे सवालों के हल होना चाहिये
जो मेरे दिमाग में भी आते है
जब मुझे पूछने होते सवाल
और किसी को देना होता है जवाब

दिन भर
के रूटीन में कई-कई प्लान
को रिव्यू करते हुये
कभी पहियों वाली कुर्सी पर
घुमते हुये / या सरकते हुये
किसी पर बिना वजह भी
कभी उखड़ते / चिल्लाते / झल्लाते हुये
मैं महसूस नही कर पाया
कि जब मूझे टेबल के उस पार से
दुनिया देखनी होगी किसी दिन
कैसी दिखाई देगी?
क्या मेरे शब्द खो देगें रफ्तार?
मेरी टाँगों में होने लगेगा कंपन?
क्या वो आसमान जहाँ मैं उड़ा करता हूँ
उतर आयेगा जमीन पर?
कोई और होगा मुझसे भी ऊँचे
सुर्ख आब से परों वाला जिसे चुगाना होगा मुझे
सर-सर कहते हुये

और,
यही सच स्वीकारने के पहले मुझे
किसी जमीन वाले पर
बिना वजह चिल्लाना पड़ेगा
-----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-जनवरी-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर

तंग सी गलियों में

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

वो,
तंग सी गलियों में ही कहीं रहती है
गुम सी
होठों को सिले हुये /
सपनों की पैबंद दामन पर टांके
जिन्दगी की उधड़न को
सफाई से करती तुरपई

जैसे,
उसे खुद ही सिमट आना हो
सिकुड़्ते हुये परछाईयों की तरह
पकड़ते हुये उलझनों को
छोड़ती जाती है जिन्दगी /
या वो बातें जो अहम हो सकती है
जिन्दा रहने से भी

वो,
उन्हीं तंग / सीलती गलियों में
किसी दिन हो जाना चाहती है
गुम सदा के लिये
जैसे, बड़ी / चौड़ी सड़कें गुम हो आई थी
शहर के माथे से
और एक दिन बदल गई थी तंग गलियों में
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-जनवरी-२००९ / समय : १०:२५ रात्रि / घर

खुली हवा में साँस

बुधवार, 7 जनवरी 2009

मैं,
ढूंढ्ता हूँ कोई ना कोई मौका
जब भी मिले घर से बाहर निकलने का
कुछ देर खुली हवा में सांस लेने का

घर,
में तंग करती हैं दीवारें
दीवारों के बीच पल रहे दायरे
खिड़कियाँ जो
दरवाजों सी बंद हो जाती हैं
हर कमरे में बसा होता है अंधेरा
रिश्तों में लगी होती है सीलन

तब,
बाहर निकलते ही घर
सवार हो जाता है मेरे स्कूटर पर
कान पर बस बजता ही चला जाता है
बिना रुके
जैसा घाटियो में गूंजता है संगीत
या कोई अनचाहा गीत

और,
मैं तंग आकर फिर लौट आता हूँ
घर
पसर जाना चाहता हूँ
घर के खालीपन में
उन्ही दीवारों में तलाशता
अपना वजूद
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जनवरी-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

आदमी का बंटना जारी है

सोमवार, 5 जनवरी 2009

बच्चा,
जब पैदा होता है,
तभी से बंटने लगता है खेमों में
कभी तो अजीब से लगता है कि
अभी पैदा हुआ बच्चा,
कैसा बांटा जा सकता है?

वो,
बांट लेते है
पैदा होने के तरीके से
नार्मल / सिजेरियन / सीधा या उल्टा
फिर, बच्चा बंटने लगता है
गोरे / काले / सांवले / कमजोर / स्वस्थ्य में
और बंटना जारी रहता है

फिर,
उसे बांटा जाता है
पैदा होने के नक्षत्र / वार / तिथी के हिसाब से
सर्दीहा या गरम कोठा है
उसके बंटने को नया आयाम देते है

अब,
उसे बांटा जाता है
पढाई में तेज या कमजोर के भाग में
खेलने वाला या किताबी कीड़े
के रुप में

बड़ा,
होते होते इतने खेमों में बंटने के बाद भी
वह बांटा जाने लगता है
जाति / धर्म / पंथ / संप्रदाय के नाम पर
उसके विचारों से
सुधारवादी है / रुढीवादी है
उसके पेशे पर तो
बंटवारा होना अभी शेष है

वह,
आदमी जो पूरी जिन्दगी खेमों में बंटा रहा
फिर बांटा जाता है
शारीरिक विषमताओं से
मोटा / पतला / झुकी कमर / लंगड़ा /
काना / या ऊंचा सुननेवाला

जिन्दगी भर,
टुकड़ों में बटां आदमी
जब कहीं निकाल पाता है मौका
झिड़ककर सारी पहचानों को
अपनी कोई अलग पहचान बनाने का

तब,
काँग्रेसी / भाजपाई / संघी / सर्वोदयी /
कॉमरेड़ / समाजवादी
से टैग ढूंढ्ते हैं कोई खाली कोना
चस्पा होने के लिये उसके माथे पर
और / फिर
वह बंटने लगता है
इंदिरा - राष्ट्रवादी / अटल गुट - आड़वाणी गुट /
भाकपा - माकपा / लोहिया - गैर लोहियावादी में
बंटना अब भी जारी है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-दिसम्बर-२००८ / समय : ०६:५० सुबह / घर

तारों में बदले हुये ख्वाब

शनिवार, 3 जनवरी 2009

मैं,
रात के कच्चे और अधूरे ख्वाबों की
पोटली बना
जब सुबह को सूरज का इंतजार था
निकल पडा़ था
अपनी कुल्हाड़ी लिये

मैं,
चीर लेना चाहता था
अपने हिस्से का सूरज
वहीं,
जहाँ वह छोड़ता है जमीन की दहलीज को
और उठता चला जाता है
आसमान में

मैं,
पका लेना चाहता था
अपने ख्वाबों को
सूरज की आँच में /
अपने हिस्से की आग से
और लौटना देर रात
ख्वाबों को बदल कर बीज में
बोना चाहता था दिन के सीने पर

मैं,
देखना चाहता था
ख्वाब बदल कर तारों में
चमकते हैं मेरे हिस्से के दिन में
और
मैं छोड़ देता हूँ डरना
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-जनवरी-२००९ / समय : रात्रि ११:१० / घर

कल जश्‍न था रात भर

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

रात,
भर के जश्‍न के बाद
सुबह कॉलोनी की सड़कें भरी हैं
बिखरी हुई पेपर प्लेट्स /
खुले हुये कॉर्क /
कुछ खाली बोतलें /
पटाखों के खाली कव्हर्स से
हवा में तैर रहे हैं
रात लिये गये संकल्प

दिन,
चढ आया है
नये वर्ष का सूरज आसमान में
लिख रहा है नयी इबारत
लोग,
अभी भी रजाईयों में दुबके हैं
गर्म सपनों के साथ
सभी ने अपने दिन ढकेल रक्खे हैं
जेब के पीछे या गर्दन के नीचे

यह,
सुबह कोई नई सुबह नही है
कुछ भी नया नही है
आज भी भूख जाग आयी है सुबह से ही
जैसे उसे कोई फर्क नही पडा़ हो
नये साल की सुबह हो या कोई और
आज,
फिर छोड़ना है बिस्तर /
वही झोला टाँग लेना है /
बस बीनते हुये कचरा दिन मुकम्मल करना है
शुक्र इतना है कि
कल रात नये साल का जश्‍न था
गलियाँ आबाद है कचरे से
कल सुबह अगर, मैं
देर से उठूं तो चल सकता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ३१-दिसम्बर-२००८ / समय : १०:५५ रात्रि / घर