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सांप में बदली हुई चाबुक

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

बैल,
तभी तक मस्त रह सकता है
जब तक वह जुटाये रखता है
हिम्मत / साहस कि
कोई छू नही सकता उसकी गर्दन
या, जब तक वह नही मान लेता
कोल्हू को नियति

एक बार,
कोल्हू में क्या पिरा
फिर कहाँ चैन
बस दिन रात घूमना ही है
खली, चंदी, चारा, हवा, पानी
सभी कुछ होता है
सिवाय एक आजादी के

अब,
उसे पता ही नही चलता कि
कब सुबह हुई थी कब शाम ढली
ना खूंटे पर लौटने की चिंता
ना जंगल जाने की फिक्र
मीलों की दुरियाँ सिमट आती है
तंग दायरे में /
जीवन भर के सफर में

कुछ दिनों के बाद,
आदत सी सवार हो जाती है उसे
अब कोल्हू, कांधो पर हो ना हो
बस घूमता ही रहता है
नींद में भागता है
पीठ पे उभरती रहती हैं लहरें रह रहकर
जैसे चाबुक बदल कर सांप में
उतर आयी हो उसकी पीठ में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर

नेतागिरी आज के दौर में

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

ना,
जाने कितनी गालियाँ खाई होंगी
कितनी गलियों की खाक छानी होगी
कितनी बार भूखे ही काटा होगा दिन
जूतियाँ कितनी घिसी होंगी यह तो पता नही

ना,
जाने कितनी बार गये होंगे जेल
धरने पर बैठे होंगे /
या की होगी भूख हड़ताल
कितनी बार जले होंगे पुतले /
कितनी बार कोसे गये होंगे /
कितनी बार गधे पर निकला होगा जुलूस
या कितनी बार मली गई होगी कालिख़ चेहरे पर

ना,
जाने कितनी बार दरियाँ बिछायी होंगी
कितनी बार साफ करें होंगे जूते
अकेले ही गला फाड़ा होगा चौराहों पर
और किसी तरह जुटायी होगी भीड़
कितने ही इल्जाम लगे होंगे चंदा खाने के
कड़ी मेहनत के बाद दामन
मुश्किल से बचाया होगा

ना,
जाने कितनी बार फूटी होंगी घर पे मटकियाँ
कितनी बार भेंट करी गई होंगी चूड़ियाँ
जूते की माला पहनाई गयी होगी
कितनी ही बार लोगो ने मुंडवाये होंगे सिर
फिर किया होगा मातम छाती पीटकर
निकाली होगी अर्थी
या किया होगा पिंडदान


पर,
एक बार भी हम मरें नही
अपने आप में
ना ही शर्मसार हुये
हम, सदा ही मुस्कुराते रहे
जो भी प्रदर्शन हुये / विरोध हुआ
सजता रहा तमगों की तरह सीने पर
भला,
कोई नेता बन पाया है /
या राजनीति कर पाया है आज के दौर में
इन सबसे परहेज किये हुये.
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-दिसम्बर-२००८ / समय : १०:४५ रात्रि / घर

दम तौड़ते हुये विचार

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

दिनभर,
जो देखा / जो खला / जो चुभा
बदलता रहा विचारों में मेरे अंतर
और मैं,
उन्हें चबाता रहा महीन और महीन
यहाँ तक कि जबड़े देने लगे जवाब
तब भी विचार थे कि
पिसने का नाम ही नही लेते थे

दोपहर तक,
मैने महसूस किया कि
मैं बदल आया हूँ चक्की पाटों में
और विचार दांतों में फंस आये हों
सौंफ की तरह किसी ढीली बत्‍तीसी में
और बैचेन करते रहे मुझे जीभ की तरह
जो हर पल इसी ताक में बार-बार टटोलती है कि
किसी भी पल आजाद हो सकती चुभन

शाम होते होते,
मेरा धैर्य गुम होने लगा
तब भी विचार वैसे के वैसे ही थे
रात में ना जाने कैसे मुँह से निकलकर
भिनभिनाने लगे मच्छरों की तरह / काटने लगे
फिर मेरे सपनों में आने लगे रह-रह कर

सुबह,
देर रात के हैंगओवर की तरह
मेरे सिरदर्द में मौजूद थे विचार
मेरी उबासियों में / अंगड़ाईयों में
फिर तौलिये से लिपट चिपकते गये
सारे शरीर से
और जैसे मैं
बदल आया हूँ एक कब्रगाह में
जो विचार नही बदल पाया किसी कविता में
और किस के नाम नही हो पाया
बस दम तौड़ता है मेरी कैद में
पिसते हुये / सिसकते हुये / शरीर से चिपके हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:०५ रात्रि / घर

दहलीज पर अटके हुये लोग

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
घर पर रह ही नही पाते हैं
जब भी घर मे होते हैं बाहर रमे रहते हैं
बाहर उन्हें घर याद ही नही आता
जब लौटते हैं घर
तो उठा लाते है बाजार
और बिखेर लेते है बिस्तर पर
ताकि नींद में / सपनों में उनके
बाजार सजा रहे
यहां तक कि सुबह की चाय परोसे बाजार उन्हें
यह लोग घर पर जी ही नही सकते


लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
बुनते हैं दीवारों में दुनियाँ
छतो पर टाँक लेते है आसमान
और घर से बाहर निकलते ही नही
बाहर निकले भी कभी तो
ओढ लेते घर लबादे की तरह
और जीते हैं कुयें के मेंढक की जैसे
यदि कभी किसी संमदर में डूबे तो
बनाने लगते है एक कुआं संमदर के सीने में
यह लोग घर से बाहर जी ही नही सकते


लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
ना तो बाहर ही होते है
ना घर के भीतर
दहलीज पर अटके हुये लोग
बाजार खींचता है उन्हें रह-रहकर बाहर
और घर जकड़े रहता है बेड़ियाँ में
मन चाहता है उड़ना आकाश में
और शरीर परोस देता है प्याली भर आसमान
हमेशा हासिये में अटक जाता है वजूद इनका
यह लोग काट देते हैं जिन्दगी त्रिशंकु से
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २१-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

दिन का यूँ ही गुजर जाना

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

सारा,
सारा दिन यूँ ही गुजर जाता है
बस एक बिन्दू पर अटके हुये
और शाम होते होते
टारगेट अचीव्ह नही हुआ है
हम सारे मिलकर
एक कदम भी नही बढे है आगे से
प्रश्‍न लगाने लगते है
चुप्पी के ताले
सारे दिन बोलने वाली जुबान पर

सारा,
दिन तो गुजर गया
प्लान बनाने में /
काऊन्टर मेजर सोचने में /
वक्‍त ही नही मिला कि
काम शुरू कर पायें
और यह लो आ गई अगली सुबह

इसके,
पहले की रात की बची अंगडाईयाँ ली जाये
सुबह की उबासियों के साथ
फिर,
बुलाया गया है
कल की प्रोग्रेस डिस्कस की जायेगी
प्लान-डू-चेक-एक्‍शन के चक्र से गुजरते
किसी पे उतरेगा रात का गुस्सा
इतना तो तय है

अंततः,
गुस्से के शांत होते शुरुआत होगी /
कॉपियाँ खुलेगी
ब्रेन स्टार्मिंग होगी / काऊन्टर मेजर सोचा जायेगा
प्लान बनेगें / एक्‍शन प्लान बनेगा /
चेक किया जायेगा
इसके पहले कि
एक्शन कौन लेगा यह डिसाईड हो
दिन खत्म हो जायेगा

अगली,
सुबह फिर अंगड़ाईयाँ / उबासियाँ
बाट जोहेगीं किसी मीटिंग की
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १६-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर

तार तार सच

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

हम,
लपेटते हैं तार-तार सच
और लपेटते ही चले जाते है
जिन्दगी भर
फिर एक दिन बदल जाते हैं
कुकून में

जब,
उनके हाथ चढते हैं तो
पहले उबाले जाते हैं
फिर नोचा जाता हैं सच
और बदल दिया जाता है रेशम में
सजने के लिये उनके बदन पर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर

कुछ हो जाता है मुझे

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

जब,
ढोल बजता है तो
पैर चलने लगते है
शरीर में दौड़ने लगती बिजली
संगीत के लय पर
मन बस थिरकने को चाहता है
कहीं भी ताल पर

फ़िर,
जैसे तरंगे उठी हो शरीर में
कमर ठुमकने लगती है
हाथ-पांव लहराने लगते हैं
लचकन शरीर में
खुजली की तरह होने लगती है
दिल नाचना चाहता है जी भर के

तब,
उम्र कसने लगती है
शरीर को मर्यादा के बंधनों में
कि लोग क्या कहेंगे / हसेंगे,
कि जरा भी लिहाज नही
बस जरा ढोल क्या बजा लगे नाचने
औरते हैं / लड़कियाँ हैं / बच्चियाँ हैं
कुछ भी नही देखते
यह क्या कि बुढा रहे हैं
लौंडो़ में घुसना छूटता ही नही
एकाध हाथ पांव उल्टा सीधा पड़ गया तो
बिस्तर लग जायेगें
ना जाने क्या क्या कहा जाता है
कुछ ऐसा भी कि सुनते ही
कान के कीडे झड़ जाये

करें,
क्या आदत से मजबूर हैं
जब भी कहीं बजता है ढोल
कुछ हो जाता है मुझे
फिर कोई कुछ भी कहे
ढूंढने लगता हूँ कोई कोना
जहाँ लगा सकूं एक ठुमका
आप कहें ना कहे
ऐसा कुछ होता तो होगा ही
आपको भी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर

बहरहाल चुनाव हो ही गये

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

किसी,
तरह चलो बज गये ढोल
पटाखे भी फोड़े गये
कुछ पिछड़े / कुछ निकल पड़े
कुछ बैठे / कुछ खड़े रहे
कई निपटे / कुछ लुटे / कुछ अड़े रहे
कुछ यूँ ही गुजर गये नज़र के सामने से
बहरहाल चुनाव आ ही गये

किसी
ने पहली बार रखा कदम जमीन पर
किसी ने पहली बार देखा शहर करीब से
किसी ने सीखा कमर को झुकाना
किसी ने सीखा नाक सीधे रखना
किसी ने छानी खाक गलियों में
किसी ने तलाशे अपने वाले
किसी ने खोजे पीकर मस्त रहने वाले
बहरहाल चुनाव शुरू हो ही गये


किसी,
के नारे लगे / जयकारे लगे
किसी तरह किनारे लगे
किसी की नैया लेती रही हिचकोले
किसी ने मारी बाजी
कोई निकला फिसड्डी
कई अब्दुल्ला बेगानी शादियों में
दीवाने बने रहे हैं
कई गुल्फाम मारे गये
आचार संहिता के फेर में
चौराहे पर चलते रही बतोलेबाजी
बहरहाल चुनाव जारी है

किसी,
ने मैदान मारा
किसी ने रण छोड़ा
किसी को पटका अपनो ने
आग लगी किसी के सपनों में
किसी को मिला आर्शीवाद
किसी को संताप
किसी को कालिख लगी
किसी के कटे पाप
जनता को शोर से राहत मिली
बहरहाल चुनाव हो ही गये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-दिसम्बर-२००८ / समय : १०:३० रात्रि / घर

कोई, शब्द चुप नही बैठता

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

शब्द,
सब्र नही रख पाते हैं
पहले फूटते हैं अंतर कोंपलो की तरह
और तलाशते हैं मौका बाहर निकलने का
हवा पर सवार हुये
शब्द फिर बदलते हैं ध्वनि में
गूंजते है प्रतिध्वनियां बनकर
और ढूंढते हैं रास्ते निकल पड़ने का
फिर तौड़ते हुये मौन की सीमा रेखा को
शब्द बदलते हैं संवादों में
कोशिश करते हैं निकलने की बाहर
गले के बारास्ता येन केन प्रकारेण

शब्द,
जब नही निकल पाते हैं बाहर
अपने सारे प्रयासों के बाद
तो, बदल जाते हैं आँसुओं में
और तलाशते है रास्ता /
जमा होने लगते हैं आँखों में
या बदल जाते हैं झुर्रियों में
और सजने लगते हैं चेहरे पर
या फिर बदल जाते हैं रंग में
पहले मौजूदगी का अहसास कराता हैं
बालों का बदलता रंग
फिर लगा देते हैं पंख बालों को
वो शब्द,
जो नही बदल पाये खुद को
सारे प्रयासों के बाद घुटते हैं
और जमा होने लगते हैं ऐड़ियों में
अंततः बदल जाते हैं
सिसकते हुये बिवाईयों में
और बोलने लगते हैं
कोई,
शब्द चुप नही बैठता
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-दिसम्बर-२००८ / समय : ०६:४० सुबह / घर

बीबी नही चाहती है

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

पापा,
नही चाहते थे कि
मैं भी वक्‍त जाया करूं
कहानी लिखूं, कोई कविता लिखूं
जबकि मेरे सामने जिन्दगी पड़ी थी
चुनौतियां थी / कैरियर था
पापा के सपने थे

पापा,
चाहते थे कि
मेरी आँखों में होना चाहिये
तड़प इंजिनियर बनने की
बस यही एक लक्ष्य होना चाहिये
मैं कहां बे-सिर पैर की बातों में उलझा रहता हूँ
पढता नही बल्कि कविता लिखता हूँ

मैने,
समझा लिया खुद को
दूर कर लिया अपने आप को
कविता से, कहानी से, किस्सों से
और जुट गया खुद को
इंजीनियर बनाने में

अपना,
कैरियर बनाने के बाद
अब फिर से सवार है वही भूत मुझपे
कोई बीस सालों बाद
अब पापा को कोई गुरेज नही
पर अब बीबी नही चाहती है कि
कोई कविता बांट लें उसके हिस्से के समय को
और मुझे यह समझ नही आता कि
मैने ऐसा क्या गुनाह किया है
सिर्फ़, दम तौड़ते विचारों को पनाह दी है
एक पहचान दी है
कोई कविता ही लिखी है
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०४-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर

ज़मीन से पैदा होते भाई

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

शायद,
वो तमाचा मैं
नही भूल पाऊंगा जिन्दगी भर
जब भी गुजरता हूँ
उस गली से याद आ जाता है

उस दोपहर
मुझे जाना था कहीं
जल्दी सवार थी सिर पर
और मन भाग रहा था समय से तेज
तभी अचानक कोई टकराया
मेरी साईकिल से
शायद बच्चा था कोई
इसके पहले कि मैं संभालू खुद को
और पूछू उसका हाल
जमीन से पैदा हो आये भाई लोग
मेरी सफ़ाई पहुँचती उन तक
इसके पहले ही रसीद कट गई गाल पर
यूँ लगा कि आग रख दी हो किसी ने
या खून में हो आया उबाल

वैसे,
यह नस्ल मायावी होती है
बस देखते ही देखते
उग आते हैं भाई लोग किसी सूनी सड़क पर
और जुट आते है सेवा में
बिना किसी इनविटेशन के
यदि किसी मामले में इनवाल्व हो
कोई महिला तो इनकी हमदर्दी दिखाती है
सदाचार ऊंचाईयाँ
इनकी पास मिल जायेगी
बचा के रखी हाथ की खुजली
मुँह में दबी हुई गालियाँ

आप,
जब भी निकल रहो हो जल्दी में
तो थोड़ा ध्यान रहे
कोई सूनी सड़क/गली बांझ नही होती
जरा कहीं चूके तो
उगल के रख देगी फ़ौज भाईयों की
और किसी का तमाचा याद रहेगा
जिन्दगी भर
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २६-नवम्बर-२००८ / समय : १०:०० रात्रि / घर

बिस्तर में उगती नागफनी

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

घर,
जब बदलने लगता है मकान में
तो पहले दीवारें पीने लगती हैं शब्दों को
कुछ सुना-अनसुना सा गीत गाने लगती हैं
फ़िर जब्त करने लगती हैं शब्दों को
कि सुनाई ही ना दें
और बिखेरती रहें अलसाया मौन
कदमों की छापो के बीच


दीवारें,
सूंघने लगती हैं
जिस्मों से आती गंध को
और समाने लगती हैं खाली जगह में
फ़िर जकड़ने लगती हैं
बातों को / कहकहों को / कानाफ़ूसी को
और बदल के रख देती है दीमको में
जो लग रही है रिश्तों के बीच /
रिश्तों के बीच दीवारें बो रही हैं दूरियाँ
बिस्तर बदल रहे हैं मरूस्थल में
और नागफनी उगने लगी हैं जिस्मों के बीच
सबंध सेंके जा रहे हो या भूने
रिश्तों के अलाव पर


मैं,
बहुत सोचता हूँ
कब घर बदल जाये मकान में
तंग आ चुका हूँ
दीवारों से बचते हुये चलने में
कुछ पता ही नही चलता कि
कब किस खाली जगह में उग आयें दीवार
घर ना हुआ
किसी आर्किटेक्ट की वर्क-बुक हो
और हम ताक रहे हो टूटते हुये घर में
किसी बनते हुये मकान को
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०१-दिसम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४५ / घर

गिरफ़्त में धड़कती जिन्दगी

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

जिन्दगी,
तब भी धड़क रही थी
जब कैद में थी
भाषा और रंग के भेद को तोड़ती
जिन्दगी बस एक जिन्दगी थी
और किसी भी कीमत पर जिन्दा रहना चाहती थी
जबकि बाहर बंदूके चल रही थी
हैण्ड ग्रेनेड बरस रहे थे
जो भी चपेट में आये
टपक रहे थे

ताज,
जहाँ जिन्दगियाँ ढूंढती थी अपनी पहचान
गुम हो जाने की हद तक
ओबेराय,
जो सिर्फ़ एक ऐसा पता होता था
कि जिसके आगे कुछ और
पूछने की हिम्मत कोई नही करता था
करीब सवा-साढे छः फ़ुट के दरबान
गालो तक फ़ैली हुई मूछें
ऐसा करारा सेल्यूट कि रूह कांप जाये

कितने थे /
कितने मरे या घायल हुये
यह तो पल पल बदलता रहा
पर जिन्दगी कैद में रहकर भी
मुस्कुरा रही थी
जिन्दा थी बाहर निकल आने की चाह
कुछ पल दहशत के बाद जैसे
जिन्दगी सवार हो गयी थी ड़र पर
आग, धमाके और मौत की खबरें
नही डिगा पायीं थी विश्‍वास जिन्दगी का
और जिन्दगी लड़ती रही मौत से

वो,
लड़ते रहे / झूलते रहे जिन्दगी और मौत के बीच
जो शहीद हो गये
उनके नाम मैं दोहराना नही चाहता
नमन अवश्‍य करता हूँ
आप भी अपनी श्रृध्‍दांजलि जरूर दें
कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं
अपने घर में सुरक्षित बैठे
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-नवम्बर-२००८ / समय : १०:२० रात्रि / घर / मुम्बई में आतंकवादी हमला