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कविता : एक नया साल दुनिया के लिये

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

जब,
अपने होने के लिये
नापनी होती हैं तुम्हारी बुलंदियाँ
यकीनन तकलीफ़ होती है
लेकिन,
मैं छोटा नही हो जाता हूँ


मैं,
तुम्हारी परछांईयों की डोर से
नापता हूँ आकाश
रचता हूँ इन्द्रधनुष अच्छाईयों से
तुम्हारे विस्तार के लिये और विद्यमान रहता हूँ
अपने पूरे स्वरूप में
तुम्हारे लाख न चाहने के बावजूद भी


जब,
मुझे एक रात पाने के लिये
अपने हिस्से का सूरज कुर्बान करना होता है
और रोशनी के वसियतनामे पर
लिखना होता है तुम्हारा नाम
लेकिन,
मैं अंधेरों में नही डूब जाता हूँ


मैं,
अपनी मुट्ठी में
जुगनूओं को कैद रखता हूँ
कि फूंक सकूं रोशनी
अंधेरे की कोख में जन्म लेते सूरजों में
जिन्हें किसी दिन तो कुर्बान होना ही है
तुम्हारी,
राहों को रोशन करते हुये


हर,
इक दिन जो
तुम मिटाते हो मेरे हिस्से से
छोड़ जाता है
मेरे पास रहन
कुछ आवारा पल छिटके हुये
जिनसे मुझे पैदा करना है कुछ दिन /
फिर नया साल
तुम्हारे लिये
अपने वक्त की पैबंद टाँकते हुये


तुम,
पूरा जी भी नही पाओगे
नया साल जैसा तुम चाहते हो
यह साल भी
गुम हो जायेगा कहीं
तुम्हारे आसपास के शोर में
और
बची रह आई सिसकियों से
मुझे फिर पैदा करना होगा
एक नया साल दुनिया के लिये
-----------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 20-दिसम्बर-2010 / समय : 10:20 रात्रि / घर

कविता : बाकी रह आई दहलीजों के बीच

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

मुझे,
मौका था भागने का
वक्त के साथ
लेकिन उलझन भी थी
वक्त के साथ भागने में छूट जायेगा
वो,
जिसे मैं छाती से लगाये घूमता हूँ
और भीड़ में अलग से
पहचाना जाता हूँ

मेरे,
कदमों में वो हौंसला नही था कि
तौड़ सकें जंजीरें
जिन्हें दहलीज के साथ बाँधा जाता है
या चौबारे में खूंटे के साथ
जहाँ वक्त भी टँगा होता है खूंटियों पे
बैचेन,
और मेरे अंतर बो रहा होता है
विद्रोह के बीज

मसनदों,
के खोल सी लिपटी होती हैं
परंपरायें
मेरे गले के इर्दगिर्द
इन डोरियों में पाता हूँ
बुना हुआ रिश्तों को
और, वक्त
बैठक में बिछे पायदान सा गुहारता है
अपने साथ चलने को

घर,
टूटकर गिर रहा होता है मुझ पर
वक्त
तलाश रहा होता है कोई और घर
जहाँ अब भी बाकी रह आई हैं दहलीजें/
दरवाजें भीतर की ओर खुलते हैं
और उनमें रहने वाले
भूले नही हैं मुस्कुराना अब तक
-----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०२-दिसम्बर-२०१० / समय : ११:१५ रात्रि / घर

कविता : धरती के इस छोर से.........

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

आकाश ,
तुम एक चुनौती ही रहे मेरे लिये
मैनें अपनी ऊँचाईयों को पहचाना
तुम्हारे होने से
और
हमारे फासले के बीच
क्षितिज से लगाकर व्योम तक
मैनें अपनी साँसे भर दी
और गौण हो गया

तुम्हारे साये में
मैनें लिक्खी थी जो कहानियाँ
वो किसी उपन्यास में बदलने के पहले ही
खत्म हो गयी
चौराहों पर कानाफूसी में
और
तुम अजेय बने रहे

तुम,
अपना सूनापन
मेरी साँसों में भर
खुद हँस लेते हो
मेरी नाकामियों पर
और
मुझे तलाशना होता है
अपने वुजूद को
धरती के इस छोर से उस छोर तक
फिर तुम्हारे विस्तार में
जहाँ शुभ्र चटक रंग वालों बादलों के बाद
कोई जगह नही बचती
मेरे लिये

आकाश,
तुम कभी मुझे लगे
कि जैसे किसीने
मेरे सिर पर खींच दी हो
सीमारेखा
या बाँध ली हो
मेरी ऊँचाईयों को
और हमारे बीच ठूंस दिया हो
जिम्मेदारियों को लानतों में बदलकर
और तुम मोहरा भर बने रहे
इस साजिश में
मेरे खिलाफ़
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 30-ऑक्टोबर-2010 / समय : 01:00 रात्रि / सी.एच.एल.-अपोलो हास्पिटल, इन्दौर

कविता : धरा, आकाश और वायु

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

कभी,
सोचता हूँ कि
तुम्हें कुछ और नाम दूँ
शायद धरा
लेकिन तुम जितना सह लेती हो
अनकहे रिश्तों का दर्द /
रीते मन में सालती हो टीस /
तुम धरा तो नही हो सकती


सोचता हूँ,
तुम्हें पुकारू आकाश कभी
लेकिन देखता हूँ
तुम्हारी आँखों में
सितारों से कहीं ज्यादा आँसू हैं /
दामन में इतनी सिलवटें कि
दामिनी गुम हो जाये कहीं अपनी चमक खो कर
तुम आकाश तो नही हो सकती
जो इतराता है
अपने मुट्ठी भर सितारों पर
या चाँद के एक टुकड़े पर


सोचता हूँ,
तुम्हें वायु का नाम दूँ
तुम घुली रहती हो मेरे ख्यालों में
किसी भी आकार में ढली हुई
लेकिन तुम
अपने साथ केवल पराग ही नही ले जाती हो
हवा की तरह
और छॊड़ देती हो अपने हाल पर
तुम अपने संग लिये जाती हो
संस्कृति / संस्कारों की बेल
और पोषती हो उसे
तिल-तिल सूखते हुये
नही,
तुम वायु भी नही हो सकती


मैं,
सोचता हूँ
किसी दिन शायद तुम्हें दे पाऊं
कोई नाम
एकदम जुदा सा
जो तुम्हें परिभाषित करता हो
जैसा मैं देखता हूँ
मैं,
तुम पर नही थोपना चाहता
कोई पहचान
चाहे फिर वो मेरे नाम की ही क्यों न हो
-----------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 03-अक्टोबर / समय : 09:30 रात्रि / घर

कविता : उगती दीवारों के बीच

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

कुछ,
पता नही चलता कि
कब तुम नींव से बदले स्तंभ में
फिर दीवारों में वक्त के साथ
और
फिर तुम्हारी उपयोगिता पर ही
उठने लगे सवाल
नये रास्तों के लिये


रास्ते,
जिन पर न जाने
कितने लोगों ने पायी होंगी मंजिलें
वक्त के साथ
दिशाहीन हो जाते हैं /
जिनके सिरे खत्म नही होते कहीं पर /
या कहीं खुलते नही


तब,
जमीन में होने लगती है
हलचल
पहले नींव बदलती है स्तंभों नें
फिर स्तंभ दीवारों में
और
दीवारें कुर्बान होने लगती हैं
नये रास्तों के लिये
भले ही कुछ दूर के लिये ही सही
रास्ता बनता तो है
जिसके सिरे पर फिर से
दीवारें उगने लगी हैं
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२०१० / समय : २:१५ दोपहर

गज़ल : कोई मुझसा ही मुझे ढूंढता होगा

शनिवार, 11 सितंबर 2010

आईना खुदही हैरां होता होगा
वो मुझे जब भी देखता होगा

शक्ल गुम हो गई हैं कहीं भीड़ में
कोई मुझसा ही, मुझे ढूंढता होगा

दफ़न होता रहा जो हर करवट पे
सलवटों में दर्ज फसाना पढ़ता होगा

ढल चुकी ख्वाब में दिन की नाकामियाँ
सोते हुये मेरे साथ कोई जागता होगा

वुजूद गुम हो गया है गर्दिश में
अजायब सा जहाँ मुझे देखता होगा
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०३-अगस्त-२०१० / समय : ०५:५० सायँ / घर

कविता : वैतरणी के पार

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

आग / पानी / हवा /
मिट्टी और आकाश से ड़रने के बाद
जब आदमी आदिम से अवतरित हो रहा होगा
तब कल्पना ने अपनी पैठ बनायी होगी
आकाश के पार
स्वर्ग और नर्क की रचना के बाद
वैतरणी अवतरित हुई होगी
गरूड़ पुराण के साथ


वैतरणी,
धरती पर जीवन के बाद की
सबसे बड़ी अवधारणा रही होगी
जिसे समझ के विकसित होने की प्रक्रिया में
और भी ज्यादा
भयावह बनाया होगा क्रमशः
कोई भी अनुसंधान लक्षित नही कर पाया
क्या वाकई वैतरणी जैसी कोई नदी भी है?
या हम यूँ ही ड़र रहे हैं?


जबसे,
बच्चे पैदा होने लगे हैं
चूजों की तरह प्रयोगशालाओं में अपने मनमाकिफ़ /
या कपास सीधे ही पहना जाने लगा है फ़ाहों की तरह /
या आदमी हो आया है चाँद पर
और समझने लगा है
हकीकत और कल्पना में भेद
कि स्वर्ग और नर्क जो भी यहीं हैं
पृथ्वी पर
तब से वैतरणी सिमट आयी है आकार में
ढ़ाई बाय पाँच या तीन बाय साढ़े पाँच के टेबल टॉप के बराबर
और आदमी जिन्दा ही
टेबल के इस पार से उस पार की यात्रा में
महसूस करता है
वैतरणी पार करने के सारे सुःख (दुःख मैं कहना नही चाहता)
अकेला ही /
किसी भी कीमत पर
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 20-अगस्त-2010 / समय : 05:30 सुबह / घर

कविता : रात नही होती तो

बुधवार, 18 अगस्त 2010

मुझे,

यह लगता है कि
रात नही होती तो
मैं,
दिन को खींचकर लम्बा कर लेता
शाम के मुहाने से
और खो जाता कहीं उस भीड़ में
जो, घर से निकलती तो है
और लौटने के पहले
बदल जाती है कहानियों में
घर के मुहाने पर

मुझे,

यह लगता है कि
रात नही होती तो
मैं,
कैद कर लेता सपनों को पलकों में
आँसुओं में बदलने से पहले
और ढ़ल जाता किसी गीत में
जिसे गुनगुनाया जा सकता है
मौन रहकर भी
और जिसकी अनुगूंज को किया जा सकता हो महसूस
दीवारों पर दरार बनाते हुये
जिनके पार दुनिया को देखा जा सकता है
बिना किसी चष्में के
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 17-अगस्त-2010 / समय : 10:17 साँय / ऑफिस

पतों के बीच लापता होते हुये

रविवार, 8 अगस्त 2010

दिन, जैसे आग में झुलस रहे हों
रातें,
पक रही हों अलाव की धीमी आँच पर
अब न भोर सुहाती है
न शाम सुहानी लगती है
सुकून,
जरूर किसी चिड़िया का नाम होगा
आजकल तो
शहर में इतनी भीड़ है कि
कभीकभी खुद परछांई को भी मुश्किल होता है
तलाश लेना ज़मीन अपने लिये
इंसानों से बचते हुये


दीवारों,
पर तनी हुई छत को
भले ही पहचाना लिया जाये
एक घर के नाम से
लेकिन वह छटपटाता रहता है
अपनी पहचान से
पूरी जिन्दगी एक पते से चिपके हुये
और
दीवारों के बाद
या तो जरूरतें बिखरी होती हैं
या रिश्ते तने हुये होते हैं
या आदमी गुम हुये होते हैं खुद की तलाश में
घर अब भी मौजूद होता है वहीं
पतों के बीच लापता होते हुये
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-अगस्त-२०१० / घर / समय : ०२:५३ दोपहर

इन्सान के करीब से गुजरते हुये

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

साँप,

यदि अब भी साँप की तरह ही होते
तो अब तक उग आते पँख उनके
और दादी की किस्सों की तरह उड़ने लगते
आसमान में

जब से,
परियाँ आसमान से
नही उतरी ज़मीन पर
और मेरे पास वक्त नही बचा
न दादी के लिये और न अपने लिये
साँप,
पहनने लगे हैं इन्सानी चेहरा
और बस्तियों में रहने लगे हैं
बड़ा खौफ बना रहता है
किसी इन्सान के करीब से गुजरते हुये
---------------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १७-जुलाई-२०१० / समय : ०५:४५ सुबह / घर

नजदीकियों के चाक पर

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

तुम,
जब मेरे कंधे पर रखते हो
अपना हाथ
तो, मैं महसूस करता हूँ
कि कोई दबा देना चाहता है
मेरा हर वो हिस्सा
जो तलाश लेता है अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम
बिना झुके हुये
और दे देना चाहता है
अपनी पसंद का आकार मुझे
नजदीकियों के चाक पर

तुम,
जब मुस्कुराते हुये
पूछते हो मुझसे मेरा हाल
तो, मैं मह्सूस करता हूँ
तुम्हारी मुस्कुराहटों को दिल के पार गुजरते हुये
जैसे कोई बाँट देना चाहता है
मुझे दो हिस्सों में
एक वो जिसे मैं ढो रहा हूँ
और, एक वो जिसे तुम खरीदना चाहते हो
अपनी मुस्कुरहाटों के मोल पर

तुम,
जब मुझस बातें करते हों
मेरी आँखों में आँखें डालकर
तो, मैं महसूस करता हूँ
कि कोई मुझसे ही छीन रहा है
मेरी निजता
और थोप रहा है अपने शब्दों को मेरे जे़हन में
कि वह नाच सकें
तुम्हारे ईशारों पर किसी कठपुतली की तरह
अपनी पहचान खोते हुये
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०५-जुलाई-२०१० / समय : ०७:१० शाम / ऑफिस से लौटते

जंगली होता आदमी

सोमवार, 14 जून 2010

शायद,
अब बकरियाँ सीख लें
अपने दाँतों को पैना करना
और काट लें सड़कों पे भागते आदमी को


शायद,
अब मुर्गें भी सीख लें
अपने पंजों में जान डालना
और पकड़ बनाना मजबूत नाखूनों के सहारे
कुछ ऐसी की
नोंच सके आदमी का चेहरा


जंगल,
तो पहले भी महफूज नही था बिल्कुल
शायद इसिलिये ही
इन्होंने पसंद किया होगा
किसी खूंटे से बंधना /
तलाश लेना अपने लिये दड़बा कोई
लेकिन,
यह पालतू अब ड़रने लगे हैं
घरों में जंगली होते आदमी से
आखिर जान तो सभी को प्यारी होती है
फिर,
वो चाहे कोई चौपाया ले या दोपाया
-------------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १०-जून-२०१० / समय : ०३:०० दोपहर

पर्यावरण दिवस विशेष : पेड़ तब भी नही सुखाता

शुक्रवार, 4 जून 2010

कल ०५ जून विश्व पर्यावरण दिवस है, खूब शोर होगा, अपीले होंगी, पौधे रोपे जायेंगे, तस्वीरे खिंचेगी लोग जबरिया मुस्कुराते हुये न जाने क्या भाषण पेलेंगे और हो जायेगा इस बार भी पर्यावरण दिवस..........


चिडियों,
ने जब बदल लिया हो
अपना आशियाना /
छांव ने तलाश लिया हो
कोई और ठौर /
न किसी डाल पे
कोई झूलते याद करता हो किसी को /
न तले गुड़गुड़ाते हों हुक्का बूढ़े
सुबह से शाम तक
पेड़,
तब भी नही सुखाता


पेड़,
जब सूखता है तो,
केवल पत्ते नही झरते,
न ही दरारें झाँकने लगती है डालों से
या उसके तने को ठोंककर पूछा जा सकता हो हाल
जब,
जड़ों में सूखने लगती है
आशा की नमी
कि, किसी शाम
कोई गायेगा गीत जी भरके /
कोई रोयेगा बुक्का भरके /
कोई सुखायेगा पसीना
पेड़ सूख जाता है
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १६-अप्रैल-२०१० / समय : ०८:१० रात्रि / ऑफिस से लौटते

रात और मेरे बीच

रविवार, 9 मई 2010

रात,
से एक अजीब सा रिश्ता है मेरा
वह रखती है सहेजकर
गलियों में बिखरे शब्दों को मेरे लिये
जो लोग अपनी कहानी
पूरा करने के पहले छोड़ गये थे
और
उंड़ेल देती है मेरे सामने उस प्रहर
जब कोई नही होता हमारे बीच / साथ


मैं,
उन्ही शब्दों से लिखता हूँ
जब गीत कोई
तो महसूस करता हूँ
उन शब्दों को गंधाते
उसी बू से जो आती है जांघों के आस-पास
अंतर्वस्त्रों से लिपटी हुई


मैं,
उन्ही शब्दों से लिखता हूँ
जब कविता कोई
तो महसूस करता हूँ
उन शब्दों में खारापन
वही खारापन जो हम गालों पर महसूस करते हैं
आँसुओं के सूख जाने के बाद


उन्हीं,
शब्दों के ढेर में होते हैं
कई विषय मेरे लिये
जिनसे लिखी जा सकती हैं
हजारों लघुकथायें या कई बड़ी कहानियाँ
यह तीखे से शब्द
महकते हैं सस्ते परफ़्यूम की तरह
जो बाजार में औरतें लगाती हैं


कोई,
उपन्यास या खण्डकाव्य लिखना
तो मेरे धैर्य की सीमा से बाहर है
हाँ, यदि आप चाहें तो
मैनें बचाकर रक्खें है
ना जाने ऐसे कितने विषय
किसी रूमाल की तरह अपने पास
जो कॉलगर्ल्स अक्सर छोड़ जाती हैं हड़बड़ी में
या लिपस्टिक के उन निशानों की तरह
जो तकिये पर से
हमारा मुँह बा रहे होते हैं
पसीने से तर-ब-तर
-----------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-मार्च-२०१० / समय : ०३:२५ दोपहर / ऑफिस

फिर भी ड़र तो लगता ही है न ?

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

मैंने,
सीखा वक्त के साथ
दीवार के पार देखना/
देख लेना चेहरे के पीछे चेहरा
सूरज, जहाँ डूबता प्रतीत होता है
वहाँ की गहराई नाप लेना


मैंने,
यह भी सीखा कि
जिंदा रहने के लिये
जो जरूरी है
कैसे किया जाये?
जिन्दा बने रहने के लिये
जो भी जरूरी हो


सीखा,
तो यह भी था कि
जब जिन्दा रहना ही एक सवाल हो
तो कैसे बचाये रखना है
अपनेआप को
लेकिन
फिर भी ड़र तो लगता ही है न ?
आखिरकार,
जिन्दा बचे रहना
केवल अपने हाथ में ही तो नही होता
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २६-मार्च-२०१० / समय : १०:५६ रात्रि / घर

नींद को थपकियाँ देते हुये

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

मुझे,
यह भ्रम अक्सर होता है कि
कोई मेरे दरवाजे पर
दे रहा है दस्तक
या कभी रात यह भी महसूस होता है कि
पुकारा है किसी ने मेरा नाम लेकर
या
कोई मेरा पीछा कर रहा है
बड़ी देर से
मुझे सुनायी देती हैं
अन्जानी आहटें रह रहकर
या
किसी मोड़ पर
ठिठक जाते हैं कदम मुड़ने से पहले
लगता है कोई मेरी ताक में बैठा है छिपकर

मुझपे,
सवार हो यह भ्रम
उतर आता है मेरे बेड़रूम में
मैं महसूस करता हूँ
किसी साये की गर्मी को
बड़ी देर से यूँ ही बिछी हुई चादर पर
फिर,
वही भ्रम दौड़ने लगता है
मेरी रगों में
और
चुहचुहाने लगता है पेशानी पर
लगता है
आज फिर जागना पड़ेगा सारी रात
नींद को थपकियाँ देते हुये
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०६-अप्रैल-२०१० / समय : ०७:४५ सायं / ऑफिस से लौटते

आग, के साथ रहते हुये

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

आग,

जब छटपटा रही थी
पत्त्थरों में कैद
तब आदमी अपने तलुओं में महसूस करता था
जलन / खुजली
और मान लेता था आग को
आग होने के लिये


जिस दिन,
आग ने दहलीज लांघी
हवा से आवारापन सीखा
उतर आयी आदमी की जिन्दगी में
तब से आदमी नही जानता है कि
क्यों उसकी बगलों में बढ़ते हैं बाल?
क्यों उसके पसीने से आती है बू?
क्यों उसकी आँखों में नही ठहरते हैं सपनें?
क्यों उसे सूरज की रोशनी में होती है घुटन?
लेकिन वह तपन अब भी महसूस करता है


हालांकि,
अब वह पहचानता है आग को
उसके नाम से
लेकिन,
अब भी यह नही समझ पाया है कि
उसके साथ रहते हुये भी कि
वह क्यों मौजूद है?
उसकी जिन्दगी में अपनी सारी तपन के साथ
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०४-मार्च-२०१० / समय : रात्रि ११:२९ / घर

मेरा तुम्हारा क्षितिज

बुधवार, 27 जनवरी 2010

मेरी,
कुछ अपनी क्षमता थी /
कुछ अपना नज़रिया /
और कुछ आकलन
तुमसे जुड़ने के बाद मुझे लगा था कि
मैं,
कर पाऊंगा विस्तार अपनी सीमाओं का
और व्यापक / पैनी / समग्र

तु
मेरे विचारों को मार रहे हो
गर्भ में ही
जहाँ वो आकार लेते रहे थे
और
अपने नज़रिये को थोप रहे हो
मैं,
यह महसूस कर रहा हूँ कि
कोई बदल रहा है किसी मशीन में मुझे
न कोई विचार आते हैं कोई /
न स्पंदन होता है /
न नज़रिया बचा है

तुम भी,
शायद उन ऊँचाईयों से
उतना ही देख पा रहे हो
जितना कि देख सकते थे
उसके आगे तुम्हारी दुनिया सिमट रही है
और,
जहाँ मैं मदद कर सकता था
अपने नज़रिये से
क्षितिज को पीछे धकेलने में
कि बढ़ा सकें दुनिया अपने हिस्से की
मैं भी उतना ही देख पा रहा हूँ
जितना कि तुम
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २७-जनवरी-२०१० / ऑफिस / समय ०१:३० दोपहर

ज़मीन से कटा हुआ आदमी

बुधवार, 6 जनवरी 2010

हवा,


जिसे हम महसूस कर लेते हैं

बहते हुये /

शरीर को छूकर गुजरते हुये

या कभी सूखते हुये पसीने की ठण्डक में



ना,

तो मैंने उसे देखा है

ना ही आपने देखा होगा

वही हवा,

जब भर जाती है इन्सान में

तो नज़र आती है

उनकी बातों में

जो ज़मीन के ऊपर ही उतराते हुये

ना किसी के दिमाग में जाती हैं /

ना काम आती हैं

अलबत्ता,

हम जरूर देख पाते हैं इन्सान को

हवा में तैरते हुये

चारदीवारी में कैद ज़मीन से कटा हुआ

-----------------

मुकेश कुमार तिवारी

दिनाँक : ०६-जनवरी-२०१० / समय : ०५:०० शाम / ऑफिस