कभी,
सोचता हूँ कि
तुम्हें कुछ और नाम दूँ
शायद धरा
लेकिन तुम जितना सह लेती हो
अनकहे रिश्तों का दर्द /
रीते मन में सालती हो टीस /
तुम धरा तो नही हो सकती
सोचता हूँ,
तुम्हें पुकारू आकाश कभी
लेकिन देखता हूँ
तुम्हारी आँखों में
सितारों से कहीं ज्यादा आँसू हैं /
दामन में इतनी सिलवटें कि
दामिनी गुम हो जाये कहीं अपनी चमक खो कर
तुम आकाश तो नही हो सकती
जो इतराता है
अपने मुट्ठी भर सितारों पर
या चाँद के एक टुकड़े पर
सोचता हूँ,
तुम्हें वायु का नाम दूँ
तुम घुली रहती हो मेरे ख्यालों में
किसी भी आकार में ढली हुई
लेकिन तुम
अपने साथ केवल पराग ही नही ले जाती हो
हवा की तरह
और छॊड़ देती हो अपने हाल पर
तुम अपने संग लिये जाती हो
संस्कृति / संस्कारों की बेल
और पोषती हो उसे
तिल-तिल सूखते हुये
नही,
तुम वायु भी नही हो सकती
मैं,
सोचता हूँ
किसी दिन शायद तुम्हें दे पाऊं
कोई नाम
एकदम जुदा सा
जो तुम्हें परिभाषित करता हो
जैसा मैं देखता हूँ
मैं,
तुम पर नही थोपना चाहता
कोई पहचान
चाहे फिर वो मेरे नाम की ही क्यों न हो
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 03-अक्टोबर / समय : 09:30 रात्रि / घर
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17 टिप्पणियाँ
इन प्रचलित बिम्बो का यह अनूठा प्रयोग है ।
4 अक्टूबर 2010 को 1:05 am बजेसब कुछ है और कोई एक भी नहीं। रहस्यपूर्ण है जीवन के अंग।
4 अक्टूबर 2010 को 8:19 am बजेबहुत सुन्दर चित्रण ...
4 अक्टूबर 2010 को 1:47 pm बजेचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 5-10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
बेहतरीन भावाव्यक्ति……………किस करीने से भाव संजोये हैं यूं लगा जैसे हर स्त्री के दिल की बात कह दी हो...........गज़ब का चित्रण मनोभावों का।
4 अक्टूबर 2010 को 4:53 pm बजेपहली बार आपके ब्लोग पर आया और आप्की कविताये दिल को छू गई.. प्रेम मे डूब कर लिखि गई कविता है... प्रेम को धरा का ... वायु का.. आकाश का नाम देना.. और फिर कोइ पह्चान ना देने का फ़ैसला करना..उसकी पहचान को बनाये रखना... अपनी पहचान नही थोपना.. बहुत गम्भीर कविता है.... वन्दना जी का विशेष आभार आप्के ब्लोग से परिचय कर्वाने के लिये...
4 अक्टूबर 2010 को 5:06 pm बजेबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
5 अक्टूबर 2010 को 11:22 am बजेस्त्रियों का होना है आकाश , वायु, धरती
5 अक्टूबर 2010 को 1:54 pm बजेक्यों नहीं जाना उनका होना खुशबू ,हवा और धूप ...
यही तो कह दिया इस कविता ने ...!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/10/19-297.html
5 अक्टूबर 2010 को 2:08 pm बजेयहाँ भी आयें .
@@ अरुण जी ,
थोड़ा सा आभार मुझे भी दे दें :):) ,
आप यहाँ आये यही बहुत है :):)
मत बाँधो परिभाषाओं में
5 अक्टूबर 2010 को 6:02 pm बजेसुन्दर अभिव्यक्ति और बिम्ब ...
ना जाने क्यों इस रचना को पढ़ कर एक गीत याद आ गया...तुम्हे में चाँद कहता हूँ तो उस में भी दाग है...तुम्हे मैं सूरज कहता हूँ तो उस में भी आग है....
5 अक्टूबर 2010 को 8:40 pm बजेखूबसुरत कुछ ऐसी सी अभिव्यक्ति.
Lovely poem... n very unique style of writing.. loved ur ol da posts..
5 अक्टूबर 2010 को 11:45 pm बजेबहुत उम्दा...वाह!
6 अक्टूबर 2010 को 6:40 am बजेबहुत लाजवाब ... सच है कोई नाम देना आसान नही ख़ास कर उसको जो जीता है तुम्हारे लिए .. मरता है तुम्हारे लिए .....
6 अक्टूबर 2010 को 3:16 pm बजेभाई,
6 अक्टूबर 2010 को 9:44 pm बजेबात तो बड़ी गंभीर कही है, और सच भी है स्त्री अपने जीवन में इतने रूपों में ढ़ली रहती है कि शायद उसका अपनी पहचान ही गुम हो जाती है कहीं।
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
जीतेन्द्र चौहान
मुकेश जी , प्रणाम !
11 अक्टूबर 2010 को 2:27 am बजेपहली बार आपकी कोई रचना पढ़ रहा हूँ ...बहुत ही भावपूर्ण और गहरी अभिव्यक्ति है.
ह्रदय आल्हादित हो गया ....मेरे प्रयास को भी देखने की कृपा करें ....
http://pradeep-splendor.blogspot.com/
एक स्त्री का और उसकी भावनाओ को बहुत सुंदर चित्रण किया है .....वास्तव में एक स्त्री को समझ पाना आसान नही है .....
13 अक्टूबर 2010 को 11:52 am बजेबेहतरीन कविता..आपकी हमेशा की खासियत ही है..थोड़ा सा चौंकाने की..थोड़ा सा समझाने की..
17 अक्टूबर 2010 को 9:08 pm बजे..खुद मे हर कोई अधूरा है..धरती..आकाश या वायु..सबका अधूरापन उनके अस्तित्व का मल तत्व है..मगर कुछ है जो उन्हे आपस मे जोड़ता है..और हमसे भी..कुछ अव्यक्त जिसे खोजने का प्रयास आपकी कविता करती है..
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