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कविता : तुम्हारे हिस्से का वक्त

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012


हम
दोनों के बीच
पूरे चैबीस घंटे थे
यदि मेरे बस में होता तो लिख देता
अपने हिस्से को भी
तुम्हारे नाम
और यह जद्दोजेहद 
यहीं खत्म हो जाती
हमेशा के लिए कि
मेरे पास तुम्हारे लिए वक्त नही है

मेरे
अपने पास तो
अपनी वज़हों के लिए
खामोशियाँ ही बचती है
जिन्हें तुम अक्सर
मेरी लाचारियों का नाम दे देती हो 
और यही समझती हो
ऑफिस में
और कुछ नही होता
सिवाय लकीरों के पीटने के 
यह वक्त का साँप
न जाने कब सरक आया है
तुम्हारे पास
और मैं लौटा हूँ
तुम्हारे हिस्से का वक्त
जाया करके
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 30-जुलाई-2012 / समय : 06:10 सुबह / घर

कविता : उम्मीद

बुधवार, 19 सितंबर 2012

हमारे
बीच उम्मीदों का आस्माँ है
और हमें जोड़ता हुआ
इन्द्रधनुष
जिससे तुम चुनती हो
कोई चटक रंग अपनी पसंद का
और मेरे लिए धूसर
जिन्दगी में अब भी
शेष हैं रंग कई

हमारे
बीच नउम्मिदियों की जमीं है
और अंनत तक फैला हुआ
फासला
मैं बो देना चाहता हूँ
तुम्हारी प्रतीक्षा के बीज 
इस छोर पे
और तुम्हें देने के लिए
एक उम्मीद
जो अब भी अशेष रह आई है जिन्दगी में
-------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 11-मार्च-2012 / समय : 04:40 दोपहर / घर

कविता : अपनी पहचान से परे

शनिवार, 11 अगस्त 2012

मैं, केवल विस्तार भर हूँ
उस अशेष-शेष का
और कुछ भी नही
इससे ज्यादा
यहाँ तक कि
मेरा होना भी
तुम्हारे होने की वज़ह का
मोहताज है

शायद,
यही हमें जोड़ता भी है
और अलहदा भी करता है
ठीक वहीं से
जहाँ तुम पाते हो
अपने विचारों को गड्ड-मड्ड होते
और छोड़ देते हो
प्रश्नों को उलझे हुए धागों सा
या सिर्फ अपने बाप होने के
अहसानों से दबा देते हो
या मुझे सीने होते हैं
होंठ अपने
और गुम हो जाना होता है
अपनी पहचान से परे
तुम्हारी परछाइयों में कहीं
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 11-जुलाई-2012 / समय : 11:00 रात्रि / घर

कविता : आदमी के करीब रहते हुए

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

!, मुझे तभी तक अच्छा लगा
जब तक मैं समझता रहा कि
केवल मुझे ही हक़ है
मुँह उठा के बोल देना का
कुछ भी / किसी को भी
बगैर यह देखे कि
मेरा सच उसके दिल को चीर के निकलेगा कहीं
या तोड़ देगा उसके विश्वास को
कि सच होता है, अब भी ?
 
धीरे-धीरे
मुझे, यह समझ आने लगा कि
सच!
अक्सर तकलीफ पहुँचाता है
अब, हर खुशी में तलाशता हूँ 
झूठ पहले
या जब भी किसी ने कहा मेरे सामने
अपना सच!

ई बार
मुझे धोखा हुआ है
आईने के सामने कि
मैं जो देख रहा हूँ वो सच! है?
और हर बार
मुझे यूँ लगा कि
आईना भी सीख गया है
झूठ बोलना
आदमी के इतने करीब रहने का
कुछ तो असर हुआ होगा
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-ऒक्टोबर-2011 / समय : रात्रि 12:05 / घर

कविता : इन्सान होना चाहता हूँ

सोमवार, 11 जून 2012

अब
मुझे कोई रूचि नही होती कि
बेमतलब ही झाँकता रहूँ
आसमान में
और अपने आसपास
मंडराते बादलों से करूं बातें
ज़मीन की ज़मीन पर रहने वालों की

मुझे
इस ऊँचाई से
अब ज़मीन पर देखना
फिर खोजते रहना बस्तियों को
या दूर तक पीछा करना
सर्पिली सड़कों का
नही लुभाता है

अब
नही सुहाता है
चिकने पन्नों पर
पसरी जिंदगी की
खुरदरी कहानियाँ पढ़ना
या कुछ ऐसा जिसमें
हकीकत से कोसों दूर की दुनिया ने
रची हो एक दुनिया अपने लिए

जब
कानों में गूंज रही हों
सरसराहटें
या नसें खिंच रही चटकते हुए
तब बातें करना
उस अज़नबी से
जिसकी और मेरी दुनिया
बिल्कुल अलग है
और हम वक्त काटने के लिए
सिर्फ कर रहे हैं
बातें करना का उपक्रम

मैं
उतर आना चाहता हूँ
इस ऊँचाई से
भीगना चाहता हूँ
पसीने में
कुछ देर के लिए ही सही
फिर से इन्सान होना चाहता हूँ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 08-मई-2012 / समय : 02:30 दोपहर / इन्दौर-मुम्बई जेट एयरवेज 9W-2022

कविता : शहर के चेहरे के इर्द-गिर्द

शुक्रवार, 11 मई 2012

आज सुबह ही लौटा हूँ पिछले तीन दिनों से भटक रहा था कोयम्बटूर फिर बेंगलुरू। इस सफर में सिर्फ कोयम्बटूर में ही दिखे मंदिर में सिर झुकाते लोग, सड़क पर देवी की शोभा यात्रा निकालते हुए लोग यह सब देखते हुए न जाने किन ख्यालों में खो गया...........
मैं
आजतक नही समझ पाया हूँ
कि लोग
कैसे बचा लेते हैं
परपराओं को
और जीवित रखते हैं
अपने विश्वास को
जिंदगी से लड़ते हुए

वो
लोग
जिनके लिए
जिंदगी के मायने कई हद तक तो
सिर्फ एक सुबह को
एक दूसरी सुबह में बदल पाने की कोशिश के
अतिरिक्त और कुछ नही है
कैसे
वो समय निकाल पाते हैं
साँस लेने अलावा
अपनी परंपराओं के सहेजने के लिए
और भूल जाते हैं
अपने हिस्से का दुःख
भले ही कुछ पलों के लिए ही सही

ये लोग
जिनके अपने कोई वुज़ूद नही होते
राशनकार्ड से लगाकर वोटर लिस्ट तक में
कोई नाम होता है
उन्हें कोई भी कुछ भी बुला सकता है
किसी भी नाम से
एक महानगर होने के स्थाईभाव की तरह
ये बगैर वुज़ूदवाले लोग जमे होते हैं
शहर के चेहरे के इर्द-गिर्द
पोषते हैं संस्कृति को
शहर को उसकी पहचान देते हुए
बदल जाते हैं
पॅवमैंट में किसी जन्म लेती मॉल के किनारे
और खो जाते हैं कहीं
किसी दिन
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 09-मई-2012 / समय : 06:18 शाम / कोयम्बटूर एयरपोर्ट के रास्ते पर एक धार्मिक यात्रा के करीब से गुजरते हुए
 

कविता : तुम्हारी खुश्बू से भीगते हुए

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

होली हो जाने के बावजूद भी न जाने क्यों आजतक वो रंगों की महक घुली हुई है मेरे इर्दगिर्द और मैं हर पल बस भीगता जाता हूँ और इन्हीं भीगे हुए पलों को जब आपसे बाँटना चाहा तो :-

रंग
थे यहाँ वहाँ फैले हुए
जैसे किसी बच्चे ने कैनवास
के साथ खेली हो होली ?
हर एक रंग खो रहा था
अपनी पहचान
दूसरे रंग में मिलते हुए

तुम
मुझे झाँकती मिली
हर एक रंग की ओट से
जैसे तुम्हें पसंद हो
एकीकार हो जाना /
गुम हो जाना कहीं
अपने भौतिक स्वरूप से ओझल होते हुए
और बदल जाना खुश्बू में
अपनी मौजूदगी के अहसास के साथ

मैं
तुम्हें महसूस कर लेता हूँ
अपने आस-पास
जब भी कोई झोंका छूकर गुजरता है
और फैली रहती है
तुम्हारी खुश्बू मेरे चारों ओर
आजकल, मैं नहाता नही हूँ
बस
भीगा रहता हूँ
तुम्हारी खुश्बू से
तर--तर
-------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 18-मार्च-2012 / समय : 10:15 रात्रि / घर
 

कविता : बेमानी रात के ख्वाब

बुधवार, 21 मार्च 2012

तुम्हारे पसीने की बू
मुझे अच्छी लगती है
किसी रूम फ्रेशनर से भी बेहतर
और चाहता हूँ कि
तुम यूँ ही
मेरे तेज होती साँसों में समा जाओ

स बात का
कोई मतलब नही होता
कि हमारे बीच लाख नासमझियाँ हों
लेकिन फिर भी मैं
गुम हो जाना चाहता हूँ
तुम्हारी बाहों के दायरे में
अपने पूरे अस्तित्व के साथ
लेकिन
तुम्हारे होने के बावजूद भी जब महकता है
कमरा किसी रुम फ्रेशनर से
और तुम
दूसरी ओर मुँह करके सो जाती हो
रात बेमानी हो जाती है
सुबह तक ख्वाब
बैचेनियों का सुरमा लगाये रह जाते हैं
मेरा अपना
पसीना गंधाने लगता है
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 20-मार्च-2012 / समय : 10:28 रात्रि / घर

कविता : बाज़ार का दखल

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

जबसे, दिखने और बिकने के संबंधों को 
गणित ने परिभाषित किया
और अर्थशास्त्र के 
सिद्धाँतों ने समझाया कि
बिकने के लिए दिखना सम्पूरक है
कपड़े छोटे होने लगे

पहले,
पतलून ऊँची हुई तो
ज़ुराबें झाँकने लगी पाँयचों से बाहर
फिर ज़ुराबों पे
लिखा जाने लगा ब्राण्ड
अब सिर्फ ज़ुराबें ही पहनी जाती है
और पतलून
खोने लगी है अपनी उपयोगिता

अंतर्वस्त्रों,
पर सजे लेबल
अब बाहर झाँकने लगे है
मैं डरने लगा हूँ
बाज़ार के बढ़ते हुए दखल से
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 05-फरवरी-2012 / समय : 10:40 रात्रि / घर 


कविता : प्रेम

बुधवार, 25 जनवरी 2012

प्रे,
अपने को व्यक्त करने के लिए
केवल सौन्दर्य को ही
नही खोजता
वह किसी भी रूप में
तलाश लेता है
स्वयं को अभिव्यक्त करने का रास्ता


प्रे
की विशुद्ध अभिव्यक्ती
मैंने महसूस की है
निश्छल झरनों में
अन्जान पहाड़ी के किसी निर्झर कोने से
जब,
कोई नदी
प्रकृति के मोह में
छलाँग लगा देती है
किसी अनछुई बियाबाँ तलहटी में
खुद धुंध में बदलते हुए विलीन हो जाती है
मिस्ट में बदलकर हवा में कहीं 
और
पत्थरों के सीने पर
फूटने लगती हैं कोंपलें
वादियों में ध्वनित होने लगता है संगीत
बस,
प्रे अंकुरित हो जाता है
---------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 07-जनवरी-2012 / ऑफिस / समय : 12:35 दोपहर