हम
दोनों के बीच पूरे चैबीस घंटे थे
यदि मेरे बस में होता तो लिख देता
अपने हिस्से को भी
तुम्हारे नाम
और यह जद्दोजेहद
यहीं खत्म हो जाती
हमेशा के लिए कि
मेरे पास तुम्हारे लिए वक्त नही है
मेरे
अपने पास तो अपनी वज़हों के लिए
खामोशियाँ ही बचती है
जिन्हें तुम अक्सर
मेरी लाचारियों का नाम दे देती हो
और यही समझती हो
ऑफिस में
और कुछ नही होता
सिवाय लकीरों के पीटने के
यह वक्त का साँप
न जाने कब सरक आया है
तुम्हारे पास
और मैं लौटा हूँ
तुम्हारे हिस्से का वक्त
जाया करके
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 30-जुलाई-2012 / समय : 06:10 सुबह / घर
8 टिप्पणियाँ
bahut khoob!
20 अक्टूबर 2012 को 6:21 pm बजेWaqt ka saanp....kya gazab kee upma hai.....waqt saanp kee tarah sarke to waqayee kitna darawna lage....aur lagta hee hai kayee baar!
20 अक्टूबर 2012 को 7:33 pm बजेbahot achchi lagi.....
20 अक्टूबर 2012 को 10:15 pm बजेआज कल सबके पास वक्त की बहुत कमी है .... सुंदर रचना
20 अक्टूबर 2012 को 11:05 pm बजेकौन समय है, किसका हिस्सा,
21 अक्टूबर 2012 को 12:40 am बजेकौन लुभाया, किसका सिसका।
बढ़िया कविता है
21 अक्टूबर 2012 को 10:21 am बजेआपका ब्लॉग यहाँ शामिल किया गया है । समय मिलने पर अवश्य पधारें और अपनी राय से अवगत कराएँ ।
28 नवंबर 2012 को 12:04 pm बजेब्लॉग"दीप"
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ... आशा है नया वर्ष न्याय वर्ष नव युग के रूप में जाना जायेगा।
31 दिसंबर 2012 को 9:41 pm बजेब्लॉग: गुलाबी कोंपलें - जाते रहना...
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