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कविता : शहर के चेहरे के इर्द-गिर्द

शुक्रवार, 11 मई 2012

आज सुबह ही लौटा हूँ पिछले तीन दिनों से भटक रहा था कोयम्बटूर फिर बेंगलुरू। इस सफर में सिर्फ कोयम्बटूर में ही दिखे मंदिर में सिर झुकाते लोग, सड़क पर देवी की शोभा यात्रा निकालते हुए लोग यह सब देखते हुए न जाने किन ख्यालों में खो गया...........
मैं
आजतक नही समझ पाया हूँ
कि लोग
कैसे बचा लेते हैं
परपराओं को
और जीवित रखते हैं
अपने विश्वास को
जिंदगी से लड़ते हुए

वो
लोग
जिनके लिए
जिंदगी के मायने कई हद तक तो
सिर्फ एक सुबह को
एक दूसरी सुबह में बदल पाने की कोशिश के
अतिरिक्त और कुछ नही है
कैसे
वो समय निकाल पाते हैं
साँस लेने अलावा
अपनी परंपराओं के सहेजने के लिए
और भूल जाते हैं
अपने हिस्से का दुःख
भले ही कुछ पलों के लिए ही सही

ये लोग
जिनके अपने कोई वुज़ूद नही होते
राशनकार्ड से लगाकर वोटर लिस्ट तक में
कोई नाम होता है
उन्हें कोई भी कुछ भी बुला सकता है
किसी भी नाम से
एक महानगर होने के स्थाईभाव की तरह
ये बगैर वुज़ूदवाले लोग जमे होते हैं
शहर के चेहरे के इर्द-गिर्द
पोषते हैं संस्कृति को
शहर को उसकी पहचान देते हुए
बदल जाते हैं
पॅवमैंट में किसी जन्म लेती मॉल के किनारे
और खो जाते हैं कहीं
किसी दिन
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 09-मई-2012 / समय : 06:18 शाम / कोयम्बटूर एयरपोर्ट के रास्ते पर एक धार्मिक यात्रा के करीब से गुजरते हुए
 

3 टिप्पणियाँ

रविकर ने कहा…

खुबसूरत प्रस्तुति |
आभार ||

11 मई 2012 को 6:26 pm बजे
M VERMA ने कहा…

ये लोग
जिनके अपने कोई वुज़ूद नही होते
या फिर शायद न जाने कितनों को वजूद की नींव बनते बनते इनका वजूद ही खो गया होता है ...

11 मई 2012 को 6:47 pm बजे

परम्पराओं में जीवित हमारी श्रद्धा..

11 मई 2012 को 11:39 pm बजे