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कोई अकेला तो नही बूढ़ा होता

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

हमारे

बीच वो सब था
जो कि होना चाहिये
जिससे किसी रिश्ते को
कोई नाम दिया जा सकता है


वो,
सब भी था
जो बांधे रखता है
एक डोर में
उलहानों की लालिमा में
सजी सुबह से लेकर
नाराजियों की उबासियाँ लेती
अलसाई दोपहरी /
तानों से बोझिल उदास शाम तक
और इन सबके बावजूद
जो है / जैसा है स्वीकारते हुये
एकसाथ बने रहने की अदम्य इच्छा


मैं,
कभी महसूस करता हूँ कि
हम एकसाथ ना होते तो भी
जिन्दगी के किसी मोड़ पर
जरूर मिले होते
किसी भी वज़ह से या बिलावज़ह भी
लेकिन जरूर मिले होते
कोई अकेला तो नही बूढ़ा होता


हमारे
बीच सभी कुछ
भाग रहा हो हड़बड़ी में
जैसे दीवारें मचलती है
मुँह बाये नये रंगों के लिये
या बाल धकेल रहे हों
खिज़ाब को अपने से परे
केवल एक उम्र का फासला स्थिर है
और हम बुढ़ा रहे हैं
एकसाथ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १६-दिसम्बर-२००९ / समय : ११:१८ रात्रि / घर

जब जिन्दगी लगी दाँव पर

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

अपनी सौंवी पोस्ट के बाद एक नये स्ट्रांस के साथ पारी की प्रारंभ कर रहा हूँ इस आशा के साथ कि एकाग्रचित्त रह सकूं और आपके स्नेह का पात्र भी।


सादर,


मुकेश कुमार तिवारी
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संभावनायें,
जब भी लौटी निराश
जेब के मुहाने से
मैंने,
खुदको सिमटा पाया
किसी खोटे सिक्के की तरह
अनचाहा गैरजरूरी सा

प्रत्याशायें,
केवल आशा भर रही
जब भी जिन्दगी लगी दाँव पर
द्यूत,
केवल विनोद भर नही था
कुछ और भी था अंतर्निहित
मैंने,
खुदको हारता पाया
सभी बाजी पर युधिष्ठर की तरह
सत्यनिष्ठ होने की सजा भोगता, बेबस लाचार सा

आशायें,
विश्वास देती रहीं कि
कुछ भी अशेष-शेष नही होता
खाली हाथों में
बहुत जगह होती है कि
वो,
कैद कर सके हवा को /
मोड़ सके हवा का रूख अपनी ओर /
सपनों की पतंग को दे सके आसमानी उड़ंची
और,
मैं महसूस करता हूँ
जेब में मचलते पाँसों को /
हाथों में हो रही खुज़ली को
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०६-दिसम्बर-२००९ / समय : ११:४१ दोपहर / घर

अपनी सौंवी पोस्ट पर

सोमवार, 30 नवंबर 2009

शतक / सैकड़ा / शतांक केवल लुभाता भर नही है बल्कि एकाग्रता बढ़ाता है, जिम्मेदारियों को महसूसना सिखाता है, निरन्तरता बनाये रखने की प्रेरणा देता है। अपनी सौंवी पोस्ट पर मैं सभी ब्लॉग साथियों का शुक्रगुजार हूँ कि आपकी सुलभ प्रेरणा, प्रतिक्रियायें मेरा मार्गदर्शन करती रहीं अन्यथा मैं तो अपनी आदत के मुताबिक कुछ भी स्थायी नही रख पाता हूँ मात्र एक उलझा-उलझा जिन्दगी की मुश्किलों की सुलझाने की कोशिश में खुद को ही भूल बैठता हूँ कभी।

आज मैं अपनी एक पुरानी कविता "मैं, तुम, बेटा और दीवारें" प्रस्तुत कर रहा हूँ इस कविता ने मेरे बहुत से साथियों को श्रोताओं को गोष्ठियों में करीब से छुआ है।

सादर,

आपका स्नेहाकांक्षी



मुकेश कुमार तिवारी
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मैं, तुम, बेटा और दीवारें



अक्सर,
रातों को
मैं, तुम, बेटा और दीवारें
बस इतना ही बड़ा संसार होता है
बेटे की अपनी दुनिया है / उसके अपने सपने
दीवारें कभी बोलती नही
और हमारे बीच अबोला
बस इतना ही बड़ा संसार होता है


तुम्हारे पास है
अपने ना होने का अहसास /
बेरंग हुये सपने /
और दिनभर की खीज
मेरे पास है
दिनभर की थकान /
पसीने की बू
और वक्त से पीछे चल रहे माँ-बाप


ना,
तुमने मुझे समझने की कोशिश की
ना मैं समझ पाया तुम्हें कभी
तुम्हारे पास हैं थके-थके से प्रश्न
मेरे पास हारे हुये जवाब
अब हर शाम गुजर जाती है
तुम्हारे चेहरे पर टंगी चुप्पी पढ़ने में
रात फिर बँट जाती है
मेरे, तुम्हारे, बेटे और दीवारों के बीच
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मुकेश कुमार तिवारी

शर्ट पर ठहरी हुई सिलवट

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

उस,

भीड़ भरी गली जिसमें
मैं यूँ ही ठेला जा रहा था
जैसे हम अक्सर गुजार देते हैं जिन्दगी
ना कुछ अपनी /
ना अपना कोई कन्ट्रोल
बस बहाव के साथ चलते
रहने की मजबूरी

तुम,
उस दिन मुझे फिर दिखायी दिये थे
उसी भीड़ भरे रैले में
फिसलते हुये उंगलियों से छूटती गई
तुम्हारी कलाई
तुम ठहर गये मेरे शर्ट पर
किसी सलवट की तरह
और तुम्हारे पलटे हुये कॉलर ने
पूछा था मेरा हाल
कानों में फुसफुसाते हुये

मैंने,
महसूस किया था उस दिन भी
तुम्हारी साँसों में
बची रह गई गर्मी को /
तुम्हारे पसीने की गंध में
महकती अधपकी रोटियों को /
उस भीड़ के सीने पर
तुम्हारे जमे हुये कदमों को
और,
अपने उखड़ते हुये कदमों पर
तरस भी आया था

शायद,
तुम अब भी
उसी चूल्हे से चिपके हुये हो
बिल्कुल नही बदले
हालांकि,
मैंने अपनी पाठशाला में पढ़ा था
कि सदाचार के चूल्हे पर
नैतिकता की आँच से रोटियाँ नही सिंकती
और तुम तो जानते ही हो कि
कि अधपकी रोटियाँ कच्च-कच्च करती हैं दाँतों में
मुझे,
अधपकी रोटियों से आती है
आटे की गंध
मैं,
कच्ची रोटियाँ नही खा सकता
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १५-नवम्बर-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर

कविता : पहला सौदा

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

मेरी पहली बैंगलोर यात्रा का एक वाकिया जिसने जिन्दगी के प्रति मेरे नज़रिये को काफी प्रभावित किया था, आज बस यूँ ही बाँटना चाहता हूँ आप सबसे, होन सकता है कि ऐसे ही किसी दौर से आप भी गुजरे हों?




मुकेश कुमार तिवारी
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रेल्वे स्टेशन,
से मेजेस्टिक सर्कल पर आती हूई सड़क पर
बस स्टैण्ड से गुजरते हुये
नासपातियों के ठेलों के बीच से गुजर
सड़क पर बिखरे कोलाहल में
कोई मेरे कान पर रेंगता है धीरे से
लेडिस!



यही,
कोई पन्द्रह सोलह की उमर का लड़का
मूछों का वजन भी नही महसूस किया हो जिसने
पहली नज़र में तो यह लगे
शायद, लिफ्ट माँग रहा है
या टिकिट के पैसे
वह फिर दोहराता है
मरी सी आवाज में
लेडिस!
सड़्क भाग रही है
और वह मेरे साथ सटा हुआ है



वह,
सकपकाता है इस बार
और बोलने लगता है धाराप्रवाह किसी दक्षिणी भाषा में
फिर अटक जाता है रूआंसा अंग्रेजी में
लेडिस! पर
शायद, यह उसका पहला सौदा था
मैं पहला ग्राहक
और इन सबसे गुजरना मेरा पहला अनुभव
रहा सवाल लेडिस का तो?
उसे तो कोई भी बेच सकता है
किसी भी उम्र में / कहीं भी सरे बाज़ार
बस भूख लगनी चाहिये
जरूरी बेशर्मी खुद-ब-खुद आ जाती है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २१-जून-२००९ / समय : ११;१५ रात्रि / घर

छांव के पैबंद

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2009

खजूर,

सीधे, तने हुये धरती के सीने पर

या मुड़े हुये बेतरतीब अलसाये से

जब भी मैनें देखा उन्हें

उनींदे अधूरे ख्वाबों सा लगे

आसमानी बुलंदी को छूने के पहले /

ठिठके हुये हौंसले से

जलती दुपहरी में छांव के पैबंद से लगे



जब से,

ख्वाब जागने लगे हैं रातों में

बैचेनियाँ सवार हो आई हैं नींद पर

आदमी उलझकर कंघी में टूट रहा है जड़ों से

और फेंका जा रहा है

शहरों में कूड़े के साथ



खजूर,

अब नही दिखाई देता है

खेतों की मेड़ पर / ताल के किनारें

गाँव के मुहाने पर / खपरैले घरों में

बदले हुये चटाईयों में

डुलिया में / छबड़ियों में / सूपे में

या झाडूओं में

सभी जगह उग रही हैं

गाजर घांस

ना आदमी में कुछ बचा

ना खजूर में

दोनों ही नज़र नही आते

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मुकेश कुमार तिवारी

दिनाँक : २८-ऑक्टोबर-२००९ / समय : ११:०९ रात्रि / घर

माया, नज़रिया और ज्ञान

बुधवार, 21 अक्टूबर 2009

हम,
सिर्फ पैकिंग बदलने को
बदलाव / परिवर्तन का नाम दे देते हैं
और खुद भी भ्रमित हो जाते हैं
शायद,
माया इसी को कहते हैं

हम,
जितना देख पाते हैं
बस वहीं समेट लेते हैं दुनिया को
और सिखाते हैं क्षितिज की परिभाषा
शायद,
नज़रिया इसी को कहते हैं

हम,
जितना जानते हैं
उससे एक इंच भी आगे बढ़े बगैर
देने लगते हैं सीख आसमान छूने की
शायद,
ज्ञान इसी को कहते हैं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक १०-ऑक्टोबर-२००९ / समय : १०:१५ रात्रि / ऑफिस