यह वाकिया एक न्यूरोसाईकेट्रिक फिजिशियन के क्लीनिक को विजिट करने पर जो कुछ देखा था/महसूस किया था वो सब आपके सामने है। मुझे भी ऐसा लगने लगा है कि इस आपा-धापी के युग में हमारी संवेदनायें मरती जा रही हैं और हम केवल अपने में ही सिमट रहे हैं :-
वो,
लड़की अक्सर
मुझे मिल जाती है
अपनी बारी का इंतजार करते
सिमटी सिमटी सी
कुछ सहमी सहमी सी
दवा की पर्चियों को मुट्ठी में भींचे हुये
वो,
कभी कभी देखती है मुझे
कनखियों से फिर सहम जाती है
कुरेदने लगती है
हथेलियों को नाखून से
या ज़मीन में धंसी जाती है
वो,
कराहती भी है
अपनी सिसकियों के बीच
या सलवार घुटनों तक उपर कर
सहलाती है किसी चोट को
फिर भावशून्य हो जाती है
किसी बुत की तरह
और एकटक देखती है दीवार के पार
मुझे,
लगने लगता है कि
एक विषय मिल गया है
कविता लिखने के लिये
और मेरी रूचि
अब सिमटने लगती है
उसकी हरकतों को बारीकी से देखने में
शायद,
यह कविता पसंद भी आये
पढने पर या सुने जाने पर
मैं,
अपने अंतर उदास था कहीं
कि मैं पूरे समय
देखता रहा उसे / उसकी टाँगो को
उसकी हरकतों को
और लिखता रहा जो भी देखा
एकबार भी हमदर्दी से महसूस नही किया
उसके दर्द को
मैं पहले तो ऐसा नही था
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मई-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर
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28 टिप्पणियाँ
कभी अस्पतालों में ऐसे अनुभव हुआ करते हैं ।
13 अक्तूबर 2009 को 1:03 pm बजेकविता लिखने की प्रेरणा तो बहुत बढ़िया जगह से मिली..सुंदर कविता ..बधाई
13 अक्तूबर 2009 को 1:35 pm बजेbahut hi achchi kavita....
13 अक्तूबर 2009 को 1:44 pm बजेmaarmik ...
एक बार दुखडा पूछ लेते तो शायद इस अहसास से न गुजरना पड़ता !!सुंदर कविता !
13 अक्तूबर 2009 को 2:01 pm बजेuska dukh aap apne sath le aaye...dil me gahre baitth gyee apki kavita....
13 अक्तूबर 2009 को 2:27 pm बजेBEHAD GAHARE BHAW LIYE HUYE KAWITA .....KAWITA SACHA ME AISEE HI HONI CHAHAIYE JISASE SAMWEDANA KA JANM HO SAKE ......BAHUT HI SUNDAR RACHANA
13 अक्तूबर 2009 को 3:38 pm बजेSAADAR
OM
आपकी सम्वेदना ने यह महसूसना शुरू किया यह क्या कम है ।
13 अक्तूबर 2009 को 3:55 pm बजेachhi rachna
13 अक्तूबर 2009 को 5:15 pm बजेमुकेश जी
13 अक्तूबर 2009 को 5:27 pm बजेआपका अवलोकन शायद सही नही है.
कविता लिखने की प्रेरणा उसके दर्द ने ही दिया होगा. संवेदनाए मरती नही है उनका स्थानांतरण हो जाता है.
क्षमा चाहूँगा पर मेरा मानना यही है.
किसी के दर्द को यूँ महसूस करना भी आज कल के समय में कम बात नहीं है मुकेश जी ..वह लफ्ज़ इस तरह से उतर गए बहुत अच्छा लगा इसको पढना शुक्रिया
13 अक्तूबर 2009 को 5:43 pm बजेजो दर्द कविता लिखने को कलम उठवा दे ....... वो संवेदन हीन कैसे हो सकता है ........... आपकी सार्थक रचना है ........ सुन्दर लिखा हैं
13 अक्तूबर 2009 को 5:51 pm बजेजो दर्द कविता लिखने को कलम उठवा दे ....... वो संवेदन हीन कैसे हो सकता है ........... आपकी सार्थक रचना है ........ सुन्दर लिखा हैं
13 अक्तूबर 2009 को 5:51 pm बजेकविता तो पूरी कर ली न भाई.
13 अक्तूबर 2009 को 7:50 pm बजेचलो लड़की ने न सही
कविता तो आपको
आपकी संवेदनाओं का अहसास करा गई,
कोरे कागज़ पर
आपके हस्ताक्षर करा गई
क्या ये कम है.
कविता में वस्तुतः बहुत दम है.
कविता में दम है.
आपको ही नहीं
हम सब को भी
संवेदनाओं का अहसास करा रही है
इस कविता से नतमस्तक हम हैं.
हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
Dil dard se karah utha..kaash! kuchh karna apne vash me hota!
13 अक्तूबर 2009 को 9:16 pm बजेमैं,
13 अक्तूबर 2009 को 9:45 pm बजेअपने अंतर उदास था कहीं
कि मैं पूरे समय
देखता रहा उसे / उसकी टाँगो को
उसकी हरकतों को
और लिखता रहा जो भी देखा
एकबार भी हमदर्दी से महसूस नही किया
उसके दर्द को
मैं पहले तो ऐसा नही था
सुंदर कविता ..बधाई
आज के युग में किसी के दर्द के आपकी संवेदना ही कम नहीं .. अपनी छोटी मोटी बीमारियों के लिए अस्पताल जाने पर गंभीर रूप से पीडित मरीजों को देखकर अपना दर्द कम हो जाता है .. अच्छी अभिव्यक्ति !!
14 अक्तूबर 2009 को 1:04 pm बजेप्रियवर,
14 अक्तूबर 2009 को 11:37 pm बजेअज्ञेयजी के संस्मरण के लिए समाधि में था, फिर पत्रिकाके सम्पादन के सिलसिले में पटना जाना पड़ा; वहां तो सर उठाने की फुर्सत नहीं मिलती; आपकी टिपण्णी से अभिभूत था; लेकिन इससे पहले प्रतिउत्तर लिख न सका; क्षमा चाहता हूँ ! मैं तो नितांत अकिंचन, अपदार्थ हूँ, आपकी काव्य-प्रतिभा का कायल और प्रेमी भी हूँ--निःसंदेह, आपसे मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी ! आप दिल्ली आयें, तो मुझे फ़ोन भर कर दें, पता ठिकाना दें तो स्वयं हाज़िर हो जाऊँगा. विलंब से उत्तर देने के लिए सच्चा खेद है; लेकिन परिस्थितियों ने अवश कर रखा था, विश्वास करें ! मेरा सेल फ़ोन नंबर है : ०९३३४०८४६१६.
--सप्रीत, आ.
पुनः
15 अक्तूबर 2009 को 12:44 am बजेदर्द जब हद से गुज़र जाता है, बेअसर हो जाता है; आपकी इस कविता में भी 'दर्द का हद से गुज़र जाना, दवा होना है--मैं इसे इसी रूप में ले पा रहा हूँ ! आपकी संवेदना ने ही 'पहले मैं ऐसा तो न था...' जैसी कविता को जन्म दिया है ! संवेदनहीन होना भी अगर मानूं, तो भी ये संवेदनहीनता अंतर को झकझोरती है ! सुन्दर अभिव्यक्ति !! बधाई !!! --आ.
सम्वेदनाओं को इससे बेहतर क्या कहा जा सकता है...हम स्वीकारने लगें कि हम असम्वेदनशील होते जा रहे है.पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ और प्रशंसक बन गया हूँ ..बधाई.
15 अक्तूबर 2009 को 7:47 pm बजेदीपावली कि हार्दिक बधाई और शुभ कामनाएं,!
बढ़ा दो अपनी लौ
16 अक्तूबर 2009 को 11:38 am बजेकि पकड़ लूँ उसे मैं अपनी लौ से,
इससे पहले कि फकफका कर
बुझ जाए ये रिश्ता
आओ मिल के फ़िर से मना लें दिवाली !
दीपावली की हार्दिक शुभकामना के साथ
ओम आर्य
साल की सबसे अंधेरी रात में
17 अक्तूबर 2009 को 5:53 am बजेदीप इक जलता हुआ बस हाथ में
लेकर चलें करने धरा ज्योतिर्मयी
कड़वाहटों को छोड़ कर पीछे कहीं
अपना-पराया भूल कर झगडे सभी
झटकें सभी तकरार ज्यों आयी-गयी
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
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मुकेश जी मुझे अपनी एक पोस्ट याद आ गई - न्यूरोलॉजिस्ट के पास एक विजिट
17 अक्तूबर 2009 को 4:15 pm बजेएक दीप मोहब्बत का ऐसा भी जला दो कि ,
17 अक्तूबर 2009 को 5:49 pm बजेरूह रौशन हो सके, घर में उजाला भी रहे !
दीपावली की मंगल-कामनाएं !!
विनीत--
आनंद वर्धन ओझा.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
18 अक्तूबर 2009 को 7:09 pm बजेशुक्रिया अनूप जी का जो उन्होंने . मानवीय संवेदना के एक पल के पास से गुजर कर उसे दोबारा महसूस करने का मौका दिया ...ऐसे अहसास हमें अपने भीतर जिलाये रखने होगे ताकि हम इस समाज को ओर बेहतर बनाये रखने में किसी न किसी रूप में अपना योगदान देते रहे .छोटा ही सही...
19 अक्तूबर 2009 को 12:42 pm बजेdivali ki goodwishes,kavita ke bhav man ko chute hain .
20 अक्तूबर 2009 को 11:03 am बजेभाई,
21 अक्तूबर 2009 को 8:35 am बजेदर्द का चित्रण मर्म को छू लेता है।
जीतेन्द्र चौहान
आप सभी का धन्यावद और आभार!!!
21 अक्तूबर 2009 को 11:54 am बजेसादर,
मुकेश कुमार तिवारी
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