क्यों?
देर रात घर लौटने के बाद भी
मन उदिग्न रहता है
और बिस्तर में भी
वो सारे प्रश्न
जिनके उत्तर मैं खोज नही पाया आजतक
दग्ध करते हैं
क्यों?
ऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं
क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले
क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
----------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-ऑक्टोबर-२००९ / सुबह : ०६:१६ / घर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
21 टिप्पणियाँ
mukesh ji
7 अक्टूबर 2009 को 2:07 pm बजेbahut hi jalti hui tasweer ko pesh kiya hai aapne is kavita me . ye har aam aadmi ki zindagi ki hai .. aur sach to yehi hai ki hum sab bahut se uttaro ki talassh jivan bhar karte rahte hai ..
meri badhai sweekar kare..
dhanywad
vijay
www.poemofvijay.blogspot.com
बहुत सुन्दर,
7 अक्टूबर 2009 को 2:53 pm बजेयही तो निरंतरता है, अनबुझे मानसिक हलचलों की !
अजीब से प्रश्न हैं ये और उत्तर क्या होगा……
7 अक्टूबर 2009 को 3:12 pm बजेसुन्दर रचना ।
क्यों?
7 अक्टूबर 2009 को 3:19 pm बजेसुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
ज़िन्दगी में अक्सर ऐसा क्यों हो जाता है यही तो समझ नहीं आता है ..अजीब से प्रश्न है यह ज़िन्दगी के और जवाब भी हम खुद ही बना लेते हैं ..भूख तो लगती है अब भी ..यह पंक्ति बहुत कुछ कहती है ..सुन्दर रचना लिखी है आपने मुकेश जी बधाई
kuch prashnon ke jawab sari zindagi khojo ..........nhi milte aur zindagi yun hi gujar jati hai......kuch prashna prashna hi rahte hain .bahut badhiya likha aapne
7 अक्टूबर 2009 को 3:33 pm बजेmukesh ji
7 अक्टूबर 2009 को 4:00 pm बजेaapaki rachanaye yatharth ke karib hoti hai ,jo padhane ke bad ek ajib si sakoon de jati hai ...
क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
bilkul sahi hai ye panktiyaa sabhi chijo ke baawjood bhookh to lagati hai ........kafi gaharai hai in panktiyo me.
saadar
om arya
mann ki anginat ankahi udwignta se bhara vyakti yun hi nirantar dagdh rahta hai......
7 अक्टूबर 2009 को 5:08 pm बजेbahut achhi rachna
सपने नही आते / नींद नही आती /
7 अक्टूबर 2009 को 5:59 pm बजेलेकिन, भूख लगती है अब भी
जीवन की आपाधापी मे सपने भी तो अपने नही रहे. बिस्तर अब नींद का पर्यायवाची नही रहा.
बेहतरीन रचना, बेहतरीन भाव, बेहतरीन ढंग से व्यक्त संत्रास
मन का यह भूख ही तो जीने का आधार भी है .....
7 अक्टूबर 2009 को 6:33 pm बजेबहुत बहुत बहुत ही सुन्दर रचना....आभार.
क्यों?
7 अक्टूबर 2009 को 7:42 pm बजेसुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले
सुन्दर रचना
Har kisee ke ehsaason ko zubaan dedee aapne!
7 अक्टूबर 2009 को 11:35 pm बजेmann ki es uthalputhal ka kya karen,ek sunde rachana ke liye badhai.
7 अक्टूबर 2009 को 11:58 pm बजेसीधी सी बात है मोहब्बत हो गई है ।
8 अक्टूबर 2009 को 12:13 am बजेक्यों?
8 अक्टूबर 2009 को 12:15 am बजेसुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द ......
कुछ सवाल ऐसे होते हैं जो पूरी उम्र हमारे इर्दगिर्द घुमते रहते हैं ...... जिनका सवाल शायद कभी नहीं मिलता ......... बहुत ही कमल का लिखा है मुकेश जी .......... क्यों .......... सच में क्यों होता है ऐसा ........
क्यों?
8 अक्टूबर 2009 को 10:58 am बजेसुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
शायद ये सब के मन के प्रश्न हैं जिन्हें समझ पाना मुश्किल है बहुत सुन्दर मन की अम्तरवेदना को समेटे ये रचना ।अभार व शुभकामनायें
भाई,
10 अक्टूबर 2009 को 2:11 pm बजेरोज जिन्दगी जिस तरह खटती है वही सब चित्रवत गुजर जाता है आँखों के सामने से।
एक अच्छी कविता।
जीतेन्द्र चौहान
क्यों?
10 अक्टूबर 2009 को 9:28 pm बजेऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं
सीधी सी बात है मोहब्बत हो गई है ....हा....हा....हा.....शरद जी अच्छा जवाब दिया ......!!
हरि नाम का जाप कर गंगा जल पी लीजियेगा .....!!
क्यों?
12 अक्टूबर 2009 को 12:08 am बजेसुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द ......
bahut sahi tasvir .sundar rachna
अच्छी कविता के लिये साधुवाद स्वीकारें....
12 अक्टूबर 2009 को 7:27 pm बजेआप सभी का आभार!
13 अक्टूबर 2009 को 12:08 pm बजे:)
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
maza aa gaya...bahut achcha likhte hain
21 अक्टूबर 2009 को 5:31 pm बजेएक टिप्पणी भेजें