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सुबह का इंतजार

मंगलवार, 30 जून 2009

रात,
के बाद सुबह आती है
यह मेरा भी विश्वास था
अपने हिस्से की रात को किसी भी तरह
मैं बदल देना चाहता था सुबह में


सूरज,
को अपने आँगन में उगाने के लिये
नींद के चाक पर
मैंने गढे सपनें सुबह के
अंधेरे को सारी रात जगाया
सूरज जैसे निकलना ही नही चाहता हो अपनी माँद से
ना कोई भ्रम ना कोई संशय
ना कोई नर ना कोई कुंजर
यहाँ तक कि कृष्ण भी मेरे साथ नही कि फूंके पाञ्चजन्य
और सूरज को मेरे पक्ष में खड़ा कर दे आधी रात में
बस इंतजार का काज़ल आँखों में लगाये
जागना है सुबह तक
सूरज का इंतजार करते
-------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २५-जून-२००९ / समय : ११;३१ रात्रि / घर

25 टिप्पणियाँ

वाह बहुत gahri kalpanaa है ....... आपके शब्द आज कुछ कहते हुए लगते हैं............apnaa sooraj ugaane का इंतज़ार अजीब सा एहसास जगह देता हैं

30 जून 2009 को 4:26 pm बजे

bahut sundar
aapki rachanaon me ek saahs aur
ummid ki khushbu aati hai,

dhanywaad

30 जून 2009 को 4:35 pm बजे
M VERMA ने कहा…

यहाँ तक कि कृष्ण भी मेरे साथ नही कि फूंके पाञ्चजन्य
और सूरज को मेरे पक्ष में खड़ा कर दे आधी रात में
===============================
अन्दाज़ अलग. बहुत खूबसूरती से सूरज का आह्वान किया आपने. सूरज ज़रूर उगेगा आपके आंगन मे.
बहुत खूबसूरत रचना

30 जून 2009 को 5:02 pm बजे
ओम आर्य ने कहा…

बहुत ही गहरी बात आपने कह दी है जिन्दगी के बारे मे .................मुझे ऐसा लगता है कि ऐसे सुरज का इंतजार हममे से हर एक को है ...........बहुत ही सुन्दर शब्दो से आपने अपनी कल्पना को पिरोया है .......सादर

30 जून 2009 को 5:55 pm बजे
Vinay ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत रचना है/
आपका पत्र प्राप्त हो गया शीघ्र ही उत्तर लिखूँगा।

30 जून 2009 को 6:13 pm बजे
Gyan Dutt Pandey ने कहा…

ओह, रात साढ़े इग्यारह बजे लिखी कविता!
कविता भी क्या चीज है - अभिव्यक्त होने को समय नहीं देखती। बेचैन करती है!

30 जून 2009 को 8:55 pm बजे
Udan Tashtari ने कहा…

बहुत गहरी रचना..डुबा ले गई. बधाई.

30 जून 2009 को 10:19 pm बजे
रंजू भाटिया ने कहा…

जागना है सुबह तक
सूरज का इंतजार करते

इसी सूरज का इन्तजार हर दिल को रहता है ..बहुत गहरे भाव लिए हैं यह कविता ..

1 जुलाई 2009 को 10:22 am बजे
MANVINDER BHIMBER ने कहा…

कविता हमारे रोज-मर्रा में होने वाले छोटे-छोटे हादसो की ओर इंगित कर रही है जो, कि जख्मों की गांठ खोल तो देते है फिर उन्हें भरने के लिये लंबा इंतजार करना पड़ता है।

1 जुलाई 2009 को 11:07 am बजे
सदा ने कहा…

वाह ! बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति । आभार्

1 जुलाई 2009 को 11:40 am बजे

बहुत गहरे भाव अभिव्यक्त किये हैं आपने. शुभकामनाएं.

रमराम.

1 जुलाई 2009 को 12:47 pm बजे
गौतम राजऋषि ने कहा…

"सूरज,
को अपने आँगन में उगाने के लिये
नींद के चाक पर
मैंने गढे सपनें सुबह के
अंधेरे को सारी रात जगाया..."

एक बहुत ही अच्छी कविता, सर!

1 जुलाई 2009 को 1:38 pm बजे
Prem Farukhabadi ने कहा…

aap ki har rachna ek visheshata liye hoti hai. bahut hi behtar bhav. badhai.

1 जुलाई 2009 को 9:18 pm बजे
Urmi ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत और दिल की गहराई से लिखी हुई आपकी ये रचना मुझे बहुत पसंद आया! आपकी हर एक कविता इतना सुंदर है कि आपकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है! एक बेहतरीन रचना के लिए बहुत बहुत बधाई!

2 जुलाई 2009 को 6:53 am बजे
Pritishi ने कहा…

आपकी फिर एक खूबसूरत रचना !! बधाई! नए ख़याल खूबसूरती से शब्दों में बंधे हैं; पढने में लुत्फ़ आया | अपनी रात को सुबह में बदलने कि हर कोशिश आपने बड़े असरदार तरीके से शब्दों में पिरोई है | ज़रा अजीब सा लगता है "न कोई नर न कोई या कुंजर" पढ़कर ... अच्छी पंक्ति है मगर लगा के महाभारत का वाक्य कहाँ से आ गया फिर आगे पढो तो समझ आता है के कविता में महाभारत कि पार्श्वभूमी है | इस पार्श्वभूमी का कविता से बंधन बेहतर (smoother, little earlier) हो सकता है क्योंकि उससे सम्बंधित ख़याल है और बहुत सुन्दर है |

God bless
RC

2 जुलाई 2009 को 11:17 am बजे

"सूरज,
को अपने आँगन में उगाने के लिये
नींद के चाक पर
मैंने गढे सपनें सुबह के
अंधेरे को सारी रात जगाया..."
बहुत ही सुन्दर भावमय अभिव्यक्ति है

2 जुलाई 2009 को 12:18 pm बजे
sandhyagupta ने कहा…

अपने हिस्से की रात को किसी भी तरह
मैं बदल देना चाहता था सुबह में

Is bhavpurn rachna ke liye badhai.

3 जुलाई 2009 को 12:39 pm बजे
Ria Sharma ने कहा…

सूरज,
को अपने आँगन में उगाने के लिये
नींद के चाक पर
मैंने गढे सपनें सुबह के

गहरे अद्भुत ,आशावादी भाव !!!
उत्तम !!

4 जुलाई 2009 को 9:03 am बजे

बहुत खूब सूरत रचना

5 जुलाई 2009 को 9:45 am बजे
दर्पण साह ने कहा…

wah....

सूरज,
को अपने आँगन में उगाने के लिये
नींद के चाक पर
मैंने गढे सपनें सुबह के
अंधेरे को सारी रात जगाया
सूरज जैसे निकलना ही नही चाहता हो अपनी माँद से
ना कोई भ्रम ना कोई संशय
ना कोई नर ना कोई कुंजर


acchi kriti hetu badhai sweekerien....

5 जुलाई 2009 को 4:06 pm बजे

"रात,
के बाद सुबह आती है
यह मेरा भी विश्वास था
अपने हिस्से की रात को किसी भी तरह
मैं बदल देना चाहता था सुबह में"
"बस इंतजार का काज़ल आँखों में लगाये
जागना है सुबह तक
सूरज का इंतजार करते"
ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगी....
इस सुन्दर रचना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद...

5 जुलाई 2009 को 6:50 pm बजे
Jitendra Dave ने कहा…

वैसे तो आपके ब्लॉग पे एक से बढ़कर एक कवितायें हैं लेकिन..खास पसंद आई यह कविता..'सुबह का इन्तेजार'.

आपका परिचय ही अपने-आप में एक कविता है. शायद आग जैसी मुश्किल कसौटियों से तपकर निकलने के बाद ही ऐसी सोने सी खरी कवितायें उपजती हैं. आपके संघर्ष और लेखनी दोनों को प्रणाम.

7 जुलाई 2009 को 5:33 pm बजे
shama ने कहा…

Kya kabhi hame apna hissa chhod, kuchh aur mila hai..?
Maa bhee aulad kee qismat me likhe andheron ko raushanee me nahee badal sakti..na apne hissekaa aasman use de sakti..!

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Apki ye rachna padhee,to laga aapko,meree "Aakashneem" kahanee padhnekee bintee karun? kya padhenge aap use?

10 जुलाई 2009 को 4:04 pm बजे