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भाग्य की तलाश

बुधवार, 24 जून 2009

भाग्य,
को तलाशा मैंने अपनी हथेलियों पर
फिर उन रेखाओं में खोजा
जो मेरे बचपन की किसी तस्वीर में तो हैं
फिलहाल नदारद
शायद घिस आई हैं

भाग्य,
को फिर तलाशा मैंने पेशानी पर
सलवटों में छिपी परेशानियाँ मिली
उलझनों की इबारत में दर्ज चिंतायें मिली
वो लकीरें जो दिख जाती थी
भौंहे सिकोड़ने पर कभी
फिलहाल नदारद
शायद बालों के साथ उड़ गई हैं

भाग्य,
को अंततः तलाशा मैंने कुंड़ली के खानों में
ग्रहों-नक्षत्रों का रचा जाल मिला
हर घड़ी बदलता पंचांग मिला
वह जैसे देवताओं के किसी षड़यंत्र का शिकार हो गया हो
विश्वामित्र की तरह
और, मैं नाहक ही खोज रहा हूँ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २३-जून-२००९ / समय : १०:०२ रात्रि / घर

21 टिप्पणियाँ

tiwari ji
bhagya to unka bhi hota hai jinke hath nahi hote. khair mujhe nahi lagta ki aapki talash puri ho payegi bhagya ml jaye to batabna jarur apka hi hamnam
bebkoof.blogspot.com

24 जून 2009 को 8:03 pm बजे

tivariji, kavita me tathy he, arth he aour uske nepathya me saar he/ jo saar aapne ant me pesh kiya usakaa bhi antarman socha jaa saktaa he, kavita ka yahi mazaa he/
vese bhagy jesa kuchh bhi ho, hamesha talasha hi jaataa he/ aour hamehsa vah nadarad hi hota he/

bahut khoob likha he aapne/

(-aa gaya hoo me, ab blog par bhi saath dunga)

24 जून 2009 को 8:16 pm बजे
vandana gupta ने कहा…

bhagya ka zindgi ke sath choli daman ka sath rahta hai........insaan bhagya ke peeche umra bhar bhagta rahta hai aur kuch hath nhi aata.insaan talashta hi rahata hai magar apne karm ki ore nhi dekhta agar us ore dekhne lage to bhagya ke peeche bhagne ki jaroorat hi na pade.

24 जून 2009 को 8:27 pm बजे
BrijmohanShrivastava ने कहा…

कुछ तो मजबूरियां रही होंगी /आदमी यूं बेवफा नहीं होता / बहुत दिन आपको पढ़ सका /हाथ की रेखाओं में भाग्य की तलाश "" अपने हाथों की लकीरें तो दिखा दूं लेकिन ,क्या पढेगा कोई किस्मत में लिखा ही क्या है Iभोंहें सिकोड़ने पर जो लकीरें बन जाती हैं उनका बालों के साथ उड़ जाना :; कुंडली में ग्रह नक्षत्रों का जाल; देवताओ के षड़यंत्र का शिकार Iइतनी करारी चोट मारी है की क्या निवेदन करुँ I

24 जून 2009 को 8:28 pm बजे
Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सुन्दरता से उकेरा है बदलते परिवेश में मानव की स्थितियों को...बेहतरीन रचना!

25 जून 2009 को 6:07 am बजे
Vinay ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति मन की भावनाएँ तस्वीरों सी खींचती है

25 जून 2009 को 3:41 pm बजे

तिवारी जी आपने बहुत बढ़िया तरीके से भाग्य को परिभाषित किया है ... मैं अब ब्लॉग जगत मैं वापिस आ गया हूँ
आपके महत्वपूर्ण कमेंट्स प्राप्त होते रहेंगे

25 जून 2009 को 4:44 pm बजे

भाग्य को तलाशती सुन्दर रचना है........... भाग्य तो अपनी मुट्ठी में कैद है......... बस खोलने की जरूरत है.......

25 जून 2009 को 6:16 pm बजे

भाग्य,
को अंततः तलाशा मैंने कुंड़ली के खानों में
ग्रहों-नक्षत्रों का रचा जाल मिला
हर घड़ी बदलता पंचांग मिला
वह जैसे देवताओं के किसी षड़यंत्र का शिकार हो गया हो
विश्वामित्र की तरह
और, मैं नाहक ही खोज रहा हूँ
और इस नाहक तलाश मे ही जिन्दगी नाहक बीत जाती है----- बहुत सुन्दर रचना के लिये शुभकामनायें आभार््

25 जून 2009 को 6:29 pm बजे
रंजू भाटिया ने कहा…

भाग्य,
को अंततः तलाशा मैंने कुंड़ली के खानों में
ग्रहों-नक्षत्रों का रचा जाल मिला
हर घड़ी बदलता पंचांग मिला
वह जैसे देवताओं के किसी षड़यंत्र का शिकार हो गया हो
विश्वामित्र की तरह
और, मैं नाहक ही खोज रहा हूँ

बहुत बढ़िया मुकेश जी ...खुद को दिलासा देने का एक बेहतर तरीका कह सकते हैं ..

26 जून 2009 को 7:56 pm बजे
हरकीरत ' हीर' ने कहा…

.....वाह....बहुत खूब ....! ये कमबख्त भाग्य ही तो लकीरें मिटा तमाशा देखता हैं .....!!

26 जून 2009 को 9:40 pm बजे
सदा ने कहा…

भाग्‍य को तलाशती आपकी यह रचना, बहुत ही सुन्‍दर भावों को प्रस्‍तुत करने में सार्थक, बधाई

27 जून 2009 को 11:42 am बजे

भाग्य को नयी परिभाषा देती उत्कृष्ट रचना !

सार्थक पोस्ट

आज की आवाज

27 जून 2009 को 3:28 pm बजे

achhi koshish..magar baghaye ko koun badal paya hai....achhi or alag c kavita...

27 जून 2009 को 10:59 pm बजे
Smart Indian ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति. सही कहा है, "अपना हाथ जगन्नाथ!"

28 जून 2009 को 6:25 pm बजे
Pritishi ने कहा…

Not as impressive as previous one but impressive and very interesting! Wondering what thought/incident must have triggered a Poem like that ...!

God bless
RC

29 जून 2009 को 12:45 am बजे
ओम आर्य ने कहा…

बहुत ही गहरी बात कही है...............या यो कहे की भाग्य की तलाश ही जिन्दगी है ..........जिसमे हथेलियो की रेखाये,पेशानी के सलवटे,या कुंड्ली के खाने सब के सब एक भुलावा है ...........जिसमे आदमी जिन्दगी जीता चला जाता है इन सभी चिजो की खोज मे..................बहुत बहुत बहुत बढिया लगी आपकी रचना.............धन्यावाद

29 जून 2009 को 2:32 pm बजे
आशा जोगळेकर ने कहा…

वो लकीरें जो दिख जाती थी
भौंहे सिकोड़ने पर कभी
फिलहाल नदारद
शायद बालों के साथ उड़ गई हैं
सही कहा ।

2 जुलाई 2009 को 4:03 am बजे
neera ने कहा…

बहूत सुंदर रचना!

14 जुलाई 2009 को 2:52 pm बजे