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कविता : उम्र के दोराह पर......

रविवार, 7 अप्रैल 2013

मेरे एक करीबी मित्र हैं वली खान और उनके साहबजादे अमन खान, बस एक दिन यूँ ही कह बैठे कि अंकल एक ऐसी कविता सुनाओ जिसमें मैं हूँ, बच्चे की अचानक की गई इस माँग से मैं पहले तो हतप्रभ था लेकिन फिर एक प्रयास से उनके ड़ाईंग रूम में ही तकरीबन आशु कविता सी जो उस बच्चे ने बहुत पसंद की और मुझे कहीं ऐसा लगा जैसे शायद मैं उसकी भावनाओं को समझ पाया, अपने प्रयास में :-

मैं
चाहता हूँ
फिर से खेलना
मिट्टी से बनाना घर
अपने सपनों का
और
रचना एक छोटी सी दुनिया......शांत
यहाँ
बहुत शोर है
और मोटी मोटी किताबें
होमवर्क / एक्जाम्स में फेल होने का खौफ़

फिर से
खो जाना चाहता हूँ
बागीचे में
तितलियों के पीछे
या जमा करते हुए चिडियों के पंख
या बहुत दूर तक भागते हुए
किसी पतंग का पीछे करते

यहाँ से
जो मैं देख रहा हूँ
तो मेरा बचपन गुम हो रहा है
और बड़ा होकर क्या करना है
सामने खड़ा है
किसी यक्ष प्रश्न सा
इतना भ्रमित होता हूँ
इस दोराहे पर

फिर से
लौट जाना चाहता हूँ
अपने बचपन में
उन्हीं सुहाने दिनों में
अपनी कॉमिक्स की दुनिया में
दादा की उंगली पकड़
फिर से घूमता रहूँ
अपनी लॉन में और सीखता रहूँ चलना
अपने कदमों पर
------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 17-नवम्बर-2012 / समय : 01:00 दोपहर / अमन खान के लिए 

कविता : कल्पवृक्ष

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

एक लम्बे अंतराल के बाद कोई पोस्ट कर पा रहा हूँ,  इसबीच अपनी नौकरी की व्यस्तताएँ, कमिटमेंट्स फिर बेटे का बीमार हो जाना और फिर एम.ई.(प्रोडक्शन इंजि एवं डिजाइन) कि परिक्षाएँ न जाने उलझने हैं कि खत्म ही नही होती। अब बाहा-२०१३ (www.bajasaeindia.org) की तैयारियों में उलझा हुआ हूँ, बहरहाल हाल में लिखा हुआ आप सबसे बाँट लेना चाहता हूँ :-


नानी की कहानियों में
अक्सर सुना था
कल्पवृक्ष
और वो
मेरे
सपनों में सवार था तभी से
किसी दिन
मैं पा जाऊंगा उसे
अपनी सारी इच्छाएँ
पूरी कर लूंगा
ऐसे न जाने कितने सपने पाले
बड़ा हो गया
एक दिन
अब न तो कल्पवृक्ष है
न नानी
लेकिन अब भी
सपने हैं
इच्छाएँ हैं
और
विकल्प
की तलाश मौजूद है
शायद इनमें ही कहीं होगा
मेरा कल्पवृक्ष
----------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 22-जनवरी-2013 / समय : रात्रि 8:00 / राजश्री हास्पिटल

कविता : तुम्हारे हिस्से का वक्त

शनिवार, 20 अक्टूबर 2012


हम
दोनों के बीच
पूरे चैबीस घंटे थे
यदि मेरे बस में होता तो लिख देता
अपने हिस्से को भी
तुम्हारे नाम
और यह जद्दोजेहद 
यहीं खत्म हो जाती
हमेशा के लिए कि
मेरे पास तुम्हारे लिए वक्त नही है

मेरे
अपने पास तो
अपनी वज़हों के लिए
खामोशियाँ ही बचती है
जिन्हें तुम अक्सर
मेरी लाचारियों का नाम दे देती हो 
और यही समझती हो
ऑफिस में
और कुछ नही होता
सिवाय लकीरों के पीटने के 
यह वक्त का साँप
न जाने कब सरक आया है
तुम्हारे पास
और मैं लौटा हूँ
तुम्हारे हिस्से का वक्त
जाया करके
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 30-जुलाई-2012 / समय : 06:10 सुबह / घर

कविता : उम्मीद

बुधवार, 19 सितंबर 2012

हमारे
बीच उम्मीदों का आस्माँ है
और हमें जोड़ता हुआ
इन्द्रधनुष
जिससे तुम चुनती हो
कोई चटक रंग अपनी पसंद का
और मेरे लिए धूसर
जिन्दगी में अब भी
शेष हैं रंग कई

हमारे
बीच नउम्मिदियों की जमीं है
और अंनत तक फैला हुआ
फासला
मैं बो देना चाहता हूँ
तुम्हारी प्रतीक्षा के बीज 
इस छोर पे
और तुम्हें देने के लिए
एक उम्मीद
जो अब भी अशेष रह आई है जिन्दगी में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 11-मार्च-2012 / समय : 04:40 दोपहर / घर

कविता : अपनी पहचान से परे

शनिवार, 11 अगस्त 2012

मैं, केवल विस्तार भर हूँ
उस अशेष-शेष का
और कुछ भी नही
इससे ज्यादा
यहाँ तक कि
मेरा होना भी
तुम्हारे होने की वज़ह का
मोहताज है

शायद,
यही हमें जोड़ता भी है
और अलहदा भी करता है
ठीक वहीं से
जहाँ तुम पाते हो
अपने विचारों को गड्ड-मड्ड होते
और छोड़ देते हो
प्रश्नों को उलझे हुए धागों सा
या सिर्फ अपने बाप होने के
अहसानों से दबा देते हो
या मुझे सीने होते हैं
होंठ अपने
और गुम हो जाना होता है
अपनी पहचान से परे
तुम्हारी परछाइयों में कहीं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 11-जुलाई-2012 / समय : 11:00 रात्रि / घर

कविता : आदमी के करीब रहते हुए

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

!, मुझे तभी तक अच्छा लगा
जब तक मैं समझता रहा कि
केवल मुझे ही हक़ है
मुँह उठा के बोल देना का
कुछ भी / किसी को भी
बगैर यह देखे कि
मेरा सच उसके दिल को चीर के निकलेगा कहीं
या तोड़ देगा उसके विश्वास को
कि सच होता है, अब भी ?
 
धीरे-धीरे
मुझे, यह समझ आने लगा कि
सच!
अक्सर तकलीफ पहुँचाता है
अब, हर खुशी में तलाशता हूँ 
झूठ पहले
या जब भी किसी ने कहा मेरे सामने
अपना सच!

ई बार
मुझे धोखा हुआ है
आईने के सामने कि
मैं जो देख रहा हूँ वो सच! है?
और हर बार
मुझे यूँ लगा कि
आईना भी सीख गया है
झूठ बोलना
आदमी के इतने करीब रहने का
कुछ तो असर हुआ होगा
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-ऒक्टोबर-2011 / समय : रात्रि 12:05 / घर

कविता : इन्सान होना चाहता हूँ

सोमवार, 11 जून 2012

अब
मुझे कोई रूचि नही होती कि
बेमतलब ही झाँकता रहूँ
आसमान में
और अपने आसपास
मंडराते बादलों से करूं बातें
ज़मीन की ज़मीन पर रहने वालों की

मुझे
इस ऊँचाई से
अब ज़मीन पर देखना
फिर खोजते रहना बस्तियों को
या दूर तक पीछा करना
सर्पिली सड़कों का
नही लुभाता है

अब
नही सुहाता है
चिकने पन्नों पर
पसरी जिंदगी की
खुरदरी कहानियाँ पढ़ना
या कुछ ऐसा जिसमें
हकीकत से कोसों दूर की दुनिया ने
रची हो एक दुनिया अपने लिए

जब
कानों में गूंज रही हों
सरसराहटें
या नसें खिंच रही चटकते हुए
तब बातें करना
उस अज़नबी से
जिसकी और मेरी दुनिया
बिल्कुल अलग है
और हम वक्त काटने के लिए
सिर्फ कर रहे हैं
बातें करना का उपक्रम

मैं
उतर आना चाहता हूँ
इस ऊँचाई से
भीगना चाहता हूँ
पसीने में
कुछ देर के लिए ही सही
फिर से इन्सान होना चाहता हूँ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 08-मई-2012 / समय : 02:30 दोपहर / इन्दौर-मुम्बई जेट एयरवेज 9W-2022