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जंगली होता आदमी

सोमवार, 14 जून 2010

शायद,
अब बकरियाँ सीख लें
अपने दाँतों को पैना करना
और काट लें सड़कों पे भागते आदमी को


शायद,
अब मुर्गें भी सीख लें
अपने पंजों में जान डालना
और पकड़ बनाना मजबूत नाखूनों के सहारे
कुछ ऐसी की
नोंच सके आदमी का चेहरा


जंगल,
तो पहले भी महफूज नही था बिल्कुल
शायद इसिलिये ही
इन्होंने पसंद किया होगा
किसी खूंटे से बंधना /
तलाश लेना अपने लिये दड़बा कोई
लेकिन,
यह पालतू अब ड़रने लगे हैं
घरों में जंगली होते आदमी से
आखिर जान तो सभी को प्यारी होती है
फिर,
वो चाहे कोई चौपाया ले या दोपाया
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १०-जून-२०१० / समय : ०३:०० दोपहर

पर्यावरण दिवस विशेष : पेड़ तब भी नही सुखाता

शुक्रवार, 4 जून 2010

कल ०५ जून विश्व पर्यावरण दिवस है, खूब शोर होगा, अपीले होंगी, पौधे रोपे जायेंगे, तस्वीरे खिंचेगी लोग जबरिया मुस्कुराते हुये न जाने क्या भाषण पेलेंगे और हो जायेगा इस बार भी पर्यावरण दिवस..........


चिडियों,
ने जब बदल लिया हो
अपना आशियाना /
छांव ने तलाश लिया हो
कोई और ठौर /
न किसी डाल पे
कोई झूलते याद करता हो किसी को /
न तले गुड़गुड़ाते हों हुक्का बूढ़े
सुबह से शाम तक
पेड़,
तब भी नही सुखाता


पेड़,
जब सूखता है तो,
केवल पत्ते नही झरते,
न ही दरारें झाँकने लगती है डालों से
या उसके तने को ठोंककर पूछा जा सकता हो हाल
जब,
जड़ों में सूखने लगती है
आशा की नमी
कि, किसी शाम
कोई गायेगा गीत जी भरके /
कोई रोयेगा बुक्का भरके /
कोई सुखायेगा पसीना
पेड़ सूख जाता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १६-अप्रैल-२०१० / समय : ०८:१० रात्रि / ऑफिस से लौटते

रात और मेरे बीच

रविवार, 9 मई 2010

रात,
से एक अजीब सा रिश्ता है मेरा
वह रखती है सहेजकर
गलियों में बिखरे शब्दों को मेरे लिये
जो लोग अपनी कहानी
पूरा करने के पहले छोड़ गये थे
और
उंड़ेल देती है मेरे सामने उस प्रहर
जब कोई नही होता हमारे बीच / साथ


मैं,
उन्ही शब्दों से लिखता हूँ
जब गीत कोई
तो महसूस करता हूँ
उन शब्दों को गंधाते
उसी बू से जो आती है जांघों के आस-पास
अंतर्वस्त्रों से लिपटी हुई


मैं,
उन्ही शब्दों से लिखता हूँ
जब कविता कोई
तो महसूस करता हूँ
उन शब्दों में खारापन
वही खारापन जो हम गालों पर महसूस करते हैं
आँसुओं के सूख जाने के बाद


उन्हीं,
शब्दों के ढेर में होते हैं
कई विषय मेरे लिये
जिनसे लिखी जा सकती हैं
हजारों लघुकथायें या कई बड़ी कहानियाँ
यह तीखे से शब्द
महकते हैं सस्ते परफ़्यूम की तरह
जो बाजार में औरतें लगाती हैं


कोई,
उपन्यास या खण्डकाव्य लिखना
तो मेरे धैर्य की सीमा से बाहर है
हाँ, यदि आप चाहें तो
मैनें बचाकर रक्खें है
ना जाने ऐसे कितने विषय
किसी रूमाल की तरह अपने पास
जो कॉलगर्ल्स अक्सर छोड़ जाती हैं हड़बड़ी में
या लिपस्टिक के उन निशानों की तरह
जो तकिये पर से
हमारा मुँह बा रहे होते हैं
पसीने से तर-ब-तर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-मार्च-२०१० / समय : ०३:२५ दोपहर / ऑफिस

फिर भी ड़र तो लगता ही है न ?

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

मैंने,
सीखा वक्त के साथ
दीवार के पार देखना/
देख लेना चेहरे के पीछे चेहरा
सूरज, जहाँ डूबता प्रतीत होता है
वहाँ की गहराई नाप लेना


मैंने,
यह भी सीखा कि
जिंदा रहने के लिये
जो जरूरी है
कैसे किया जाये?
जिन्दा बने रहने के लिये
जो भी जरूरी हो


सीखा,
तो यह भी था कि
जब जिन्दा रहना ही एक सवाल हो
तो कैसे बचाये रखना है
अपनेआप को
लेकिन
फिर भी ड़र तो लगता ही है न ?
आखिरकार,
जिन्दा बचे रहना
केवल अपने हाथ में ही तो नही होता
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २६-मार्च-२०१० / समय : १०:५६ रात्रि / घर

नींद को थपकियाँ देते हुये

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

मुझे,
यह भ्रम अक्सर होता है कि
कोई मेरे दरवाजे पर
दे रहा है दस्तक
या कभी रात यह भी महसूस होता है कि
पुकारा है किसी ने मेरा नाम लेकर
या
कोई मेरा पीछा कर रहा है
बड़ी देर से
मुझे सुनायी देती हैं
अन्जानी आहटें रह रहकर
या
किसी मोड़ पर
ठिठक जाते हैं कदम मुड़ने से पहले
लगता है कोई मेरी ताक में बैठा है छिपकर

मुझपे,
सवार हो यह भ्रम
उतर आता है मेरे बेड़रूम में
मैं महसूस करता हूँ
किसी साये की गर्मी को
बड़ी देर से यूँ ही बिछी हुई चादर पर
फिर,
वही भ्रम दौड़ने लगता है
मेरी रगों में
और
चुहचुहाने लगता है पेशानी पर
लगता है
आज फिर जागना पड़ेगा सारी रात
नींद को थपकियाँ देते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०६-अप्रैल-२०१० / समय : ०७:४५ सायं / ऑफिस से लौटते

आग, के साथ रहते हुये

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

आग,

जब छटपटा रही थी
पत्त्थरों में कैद
तब आदमी अपने तलुओं में महसूस करता था
जलन / खुजली
और मान लेता था आग को
आग होने के लिये


जिस दिन,
आग ने दहलीज लांघी
हवा से आवारापन सीखा
उतर आयी आदमी की जिन्दगी में
तब से आदमी नही जानता है कि
क्यों उसकी बगलों में बढ़ते हैं बाल?
क्यों उसके पसीने से आती है बू?
क्यों उसकी आँखों में नही ठहरते हैं सपनें?
क्यों उसे सूरज की रोशनी में होती है घुटन?
लेकिन वह तपन अब भी महसूस करता है


हालांकि,
अब वह पहचानता है आग को
उसके नाम से
लेकिन,
अब भी यह नही समझ पाया है कि
उसके साथ रहते हुये भी कि
वह क्यों मौजूद है?
उसकी जिन्दगी में अपनी सारी तपन के साथ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०४-मार्च-२०१० / समय : रात्रि ११:२९ / घर

मेरा तुम्हारा क्षितिज

बुधवार, 27 जनवरी 2010

मेरी,
कुछ अपनी क्षमता थी /
कुछ अपना नज़रिया /
और कुछ आकलन
तुमसे जुड़ने के बाद मुझे लगा था कि
मैं,
कर पाऊंगा विस्तार अपनी सीमाओं का
और व्यापक / पैनी / समग्र

तु
मेरे विचारों को मार रहे हो
गर्भ में ही
जहाँ वो आकार लेते रहे थे
और
अपने नज़रिये को थोप रहे हो
मैं,
यह महसूस कर रहा हूँ कि
कोई बदल रहा है किसी मशीन में मुझे
न कोई विचार आते हैं कोई /
न स्पंदन होता है /
न नज़रिया बचा है

तुम भी,
शायद उन ऊँचाईयों से
उतना ही देख पा रहे हो
जितना कि देख सकते थे
उसके आगे तुम्हारी दुनिया सिमट रही है
और,
जहाँ मैं मदद कर सकता था
अपने नज़रिये से
क्षितिज को पीछे धकेलने में
कि बढ़ा सकें दुनिया अपने हिस्से की
मैं भी उतना ही देख पा रहा हूँ
जितना कि तुम
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २७-जनवरी-२०१० / ऑफिस / समय ०१:३० दोपहर