हम,
सिर्फ पैकिंग बदलने को
बदलाव / परिवर्तन का नाम दे देते हैं
और खुद भी भ्रमित हो जाते हैं
शायद,
माया इसी को कहते हैं
हम,
जितना देख पाते हैं
बस वहीं समेट लेते हैं दुनिया को
और सिखाते हैं क्षितिज की परिभाषा
शायद,
नज़रिया इसी को कहते हैं
हम,
जितना जानते हैं
उससे एक इंच भी आगे बढ़े बगैर
देने लगते हैं सीख आसमान छूने की
शायद,
ज्ञान इसी को कहते हैं
-------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक १०-ऑक्टोबर-२००९ / समय : १०:१५ रात्रि / ऑफिस
मैं, पहले तो ऐसा ना था
मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009
यह वाकिया एक न्यूरोसाईकेट्रिक फिजिशियन के क्लीनिक को विजिट करने पर जो कुछ देखा था/महसूस किया था वो सब आपके सामने है। मुझे भी ऐसा लगने लगा है कि इस आपा-धापी के युग में हमारी संवेदनायें मरती जा रही हैं और हम केवल अपने में ही सिमट रहे हैं :-
वो,
लड़की अक्सर
मुझे मिल जाती है
अपनी बारी का इंतजार करते
सिमटी सिमटी सी
कुछ सहमी सहमी सी
दवा की पर्चियों को मुट्ठी में भींचे हुये
वो,
कभी कभी देखती है मुझे
कनखियों से फिर सहम जाती है
कुरेदने लगती है
हथेलियों को नाखून से
या ज़मीन में धंसी जाती है
वो,
कराहती भी है
अपनी सिसकियों के बीच
या सलवार घुटनों तक उपर कर
सहलाती है किसी चोट को
फिर भावशून्य हो जाती है
किसी बुत की तरह
और एकटक देखती है दीवार के पार
मुझे,
लगने लगता है कि
एक विषय मिल गया है
कविता लिखने के लिये
और मेरी रूचि
अब सिमटने लगती है
उसकी हरकतों को बारीकी से देखने में
शायद,
यह कविता पसंद भी आये
पढने पर या सुने जाने पर
मैं,
अपने अंतर उदास था कहीं
कि मैं पूरे समय
देखता रहा उसे / उसकी टाँगो को
उसकी हरकतों को
और लिखता रहा जो भी देखा
एकबार भी हमदर्दी से महसूस नही किया
उसके दर्द को
मैं पहले तो ऐसा नही था
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मई-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर
वो,
लड़की अक्सर
मुझे मिल जाती है
अपनी बारी का इंतजार करते
सिमटी सिमटी सी
कुछ सहमी सहमी सी
दवा की पर्चियों को मुट्ठी में भींचे हुये
वो,
कभी कभी देखती है मुझे
कनखियों से फिर सहम जाती है
कुरेदने लगती है
हथेलियों को नाखून से
या ज़मीन में धंसी जाती है
वो,
कराहती भी है
अपनी सिसकियों के बीच
या सलवार घुटनों तक उपर कर
सहलाती है किसी चोट को
फिर भावशून्य हो जाती है
किसी बुत की तरह
और एकटक देखती है दीवार के पार
मुझे,
लगने लगता है कि
एक विषय मिल गया है
कविता लिखने के लिये
और मेरी रूचि
अब सिमटने लगती है
उसकी हरकतों को बारीकी से देखने में
शायद,
यह कविता पसंद भी आये
पढने पर या सुने जाने पर
मैं,
अपने अंतर उदास था कहीं
कि मैं पूरे समय
देखता रहा उसे / उसकी टाँगो को
उसकी हरकतों को
और लिखता रहा जो भी देखा
एकबार भी हमदर्दी से महसूस नही किया
उसके दर्द को
मैं पहले तो ऐसा नही था
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मई-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर
बिस्तर में सिमटे हुये प्रश्न
बुधवार, 7 अक्टूबर 2009
क्यों?
देर रात घर लौटने के बाद भी
मन उदिग्न रहता है
और बिस्तर में भी
वो सारे प्रश्न
जिनके उत्तर मैं खोज नही पाया आजतक
दग्ध करते हैं
क्यों?
ऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं
क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले
क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
----------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-ऑक्टोबर-२००९ / सुबह : ०६:१६ / घर
देर रात घर लौटने के बाद भी
मन उदिग्न रहता है
और बिस्तर में भी
वो सारे प्रश्न
जिनके उत्तर मैं खोज नही पाया आजतक
दग्ध करते हैं
क्यों?
ऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं
क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले
क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-ऑक्टोबर-२००९ / सुबह : ०६:१६ / घर
तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
शुक्रवार, 25 सितंबर 2009
तुम,
आँखों में झांकते हुये
पढ़ लेती हो विचारों को
इसके पहले कि वो बदल सकें शब्द में
शब्दों को जैसे पहचान लेती हो
तुम्हारे कानों तक पहुँचने के पहले
और अपनी पूरी ताकत झोंक देती हो
उस शब्द को बेअसर करने के लिये
तुम,
रोक देना चाहती हो
कि शब्द बदल सकें पानी में
और बने रहे तुम्हारी आँखों में
या घुल जाये काजल में
और बहे तुम्हारे गालों पर
फिर सूखते हुये जिन्दा रहें लकीरों में
शब्दों में छिपे बादल के टुकड़े को तुम जैसे पहचान लेती हो
और बदल जाती पत्थर में
तुम,
तलाशती हो कोई कोना अपने ही अंतर
कि जहाँ तुम छिप सको पीछा करते हुये शब्दों से
जो खोज रहे हैं तुम्हें
तुम्हारे होने से लेकर आजतक
और गूंज रहे हैं अनुनाद बनकर तुम्हारे ख्वाबों में
तुम खुद को मिटा लोगी एक दिन
लेकिन शब्द तब भी गूंजेंगे /
तुम्हारा पीछा करेंगे
तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
जिसमे विलीन हो जायें तुम्हें कचोटते शब्द
और तुम महसूस कर सको
हवा को तुम्हारे कानों में सीटियाँ बजाते किसी दिन
--------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २४-सितम्बर-२००९ / समय : १०:४५ रात्रि / घर /
आँखों में झांकते हुये
पढ़ लेती हो विचारों को
इसके पहले कि वो बदल सकें शब्द में
शब्दों को जैसे पहचान लेती हो
तुम्हारे कानों तक पहुँचने के पहले
और अपनी पूरी ताकत झोंक देती हो
उस शब्द को बेअसर करने के लिये
तुम,
रोक देना चाहती हो
कि शब्द बदल सकें पानी में
और बने रहे तुम्हारी आँखों में
या घुल जाये काजल में
और बहे तुम्हारे गालों पर
फिर सूखते हुये जिन्दा रहें लकीरों में
शब्दों में छिपे बादल के टुकड़े को तुम जैसे पहचान लेती हो
और बदल जाती पत्थर में
तुम,
तलाशती हो कोई कोना अपने ही अंतर
कि जहाँ तुम छिप सको पीछा करते हुये शब्दों से
जो खोज रहे हैं तुम्हें
तुम्हारे होने से लेकर आजतक
और गूंज रहे हैं अनुनाद बनकर तुम्हारे ख्वाबों में
तुम खुद को मिटा लोगी एक दिन
लेकिन शब्द तब भी गूंजेंगे /
तुम्हारा पीछा करेंगे
तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
जिसमे विलीन हो जायें तुम्हें कचोटते शब्द
और तुम महसूस कर सको
हवा को तुम्हारे कानों में सीटियाँ बजाते किसी दिन
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २४-सितम्बर-२००९ / समय : १०:४५ रात्रि / घर /
....बने रहने के लिये
शनिवार, 12 सितंबर 2009
अपने आस-पास बनी हुई या चलती हुई व्यवस्था में, मैं कबि जब अपने को खोजता हूँ तो निरर्थक सा महसूस करता हुँ या समय से पीछे चलता हुआ एक ऐसी मौजूदगी जो गैरजरूरी रूप से मौजूद है और वही घुटन जब शब्दों के साँचे में ढलती है तो ........
मैं,
उस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ
सारा तंत्र,
अपनी असफलताओं में ही
तलाश लेता हैं मुझे इस व्यवस्था में
कहीं से भी
चाहे हाशिये पर हूँ या कबाड़ में या कूड़े में
फिर लानतों का ठीकरा फोड़ा जाता है
शायद, इतने अनुभव ने प्रासंगिक बना दिया है
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ
व्यवस्था में,
यह बात घर कर गई है कि
जब तक चिल्लाकर कुछ नही कहा जायेगा
कोई जूँ भी नही रेंगेगी मेरे कानों पर
अक्सर लोग निकाल लेते हैं गुबार
मेरे कानों को और ऊँचा बना देते हैं
और मुझे अभ्यस्त
व्यव्स्था में गैरजरूरी ढंग से मौजूद बने रहने के लिये
-------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२००९ / समय : ०६:३० सुबह / घर
मैं,
उस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ
सारा तंत्र,
अपनी असफलताओं में ही
तलाश लेता हैं मुझे इस व्यवस्था में
कहीं से भी
चाहे हाशिये पर हूँ या कबाड़ में या कूड़े में
फिर लानतों का ठीकरा फोड़ा जाता है
शायद, इतने अनुभव ने प्रासंगिक बना दिया है
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ
व्यवस्था में,
यह बात घर कर गई है कि
जब तक चिल्लाकर कुछ नही कहा जायेगा
कोई जूँ भी नही रेंगेगी मेरे कानों पर
अक्सर लोग निकाल लेते हैं गुबार
मेरे कानों को और ऊँचा बना देते हैं
और मुझे अभ्यस्त
व्यव्स्था में गैरजरूरी ढंग से मौजूद बने रहने के लिये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२००९ / समय : ०६:३० सुबह / घर
हथेलियों से गुम होती रेखाएँ
बुधवार, 9 सितंबर 2009
आगरा केवल ताज ही नही अपने पेठों के लिये भी मशहूर है, पेठे जिनकी मिठास मुँह में घुलने के बाद भी बड़ी देर तक बनी रहती है। उसी पेठे को एक दूसरी नज़र से देखने का प्रयास किया है, आशा करता हूँ कि आप पसंद करेंगे.........
मुकेश
----------------------------------
पेठा,
मीठा-मीठा
जुबान पे रखते ही घुल जाने वाला
जैसे ही याद आता है
मुँह में आने लगता है पानी
और,
जेहन में घूमने लगती हैं
आगरा की गलियाँ /
गलियों में दफ्न होती जिन्दगियाँ
इन,
गलियों में घरों के पीछे बनी
हौजों से आती चुनयाती गंध
आंगन में पकती हुई चाश्नी के काढाव
औसारी में गोदे जाते भूरे कोलों(कद्दू) का ढेर
नालियों पर धुलते मर्तबानों की भीड़
और,
याद आता है
वो बच्चा,
जिसकी किताबों के हर्फ
गर्क हो गये चूने की हौजों में
वो आदमी,
जो समय से पहले बूढा हो आया हो
जिसकी हथेलियों में
कोई भाग्यरेखा बची ही नही चूने के आगे
वो औरत,
जिसकी हंसी बदलती गई चाश्नी में
वो बूढा,
जो नही देख पाता कुछ और
मर्तबानों के सिवाय
शक्कर,
बदलती है चाश्नी में /
भूरा कोला,
बद्लता है खोखे में /
आदमी,
बदलता है भीड़ में
और, जिन्दगी,
बदलती है पेठे में
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १७-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर
मुकेश
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पेठा,
मीठा-मीठा
जुबान पे रखते ही घुल जाने वाला
जैसे ही याद आता है
मुँह में आने लगता है पानी
और,
जेहन में घूमने लगती हैं
आगरा की गलियाँ /
गलियों में दफ्न होती जिन्दगियाँ
इन,
गलियों में घरों के पीछे बनी
हौजों से आती चुनयाती गंध
आंगन में पकती हुई चाश्नी के काढाव
औसारी में गोदे जाते भूरे कोलों(कद्दू) का ढेर
नालियों पर धुलते मर्तबानों की भीड़
और,
याद आता है
वो बच्चा,
जिसकी किताबों के हर्फ
गर्क हो गये चूने की हौजों में
वो आदमी,
जो समय से पहले बूढा हो आया हो
जिसकी हथेलियों में
कोई भाग्यरेखा बची ही नही चूने के आगे
वो औरत,
जिसकी हंसी बदलती गई चाश्नी में
वो बूढा,
जो नही देख पाता कुछ और
मर्तबानों के सिवाय
शक्कर,
बदलती है चाश्नी में /
भूरा कोला,
बद्लता है खोखे में /
आदमी,
बदलता है भीड़ में
और, जिन्दगी,
बदलती है पेठे में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १७-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर
प्रतीक्षारत तुलसी
सोमवार, 31 अगस्त 2009
यह कविता ब्लॉग पर प्रकाशन के पूर्व पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के अगस्त माह के अंक में प्रकाशित हुई थी। यह पत्रिका पूज्य दीदीमाँ साध्वी ऋतुंभरा जी के आशीर्वाद से उनके संस्थान "वात्सल्य ग्राम" द्वारा किया जाता है।
यहाँ पुनर्प्रकाशन एवं पेज का डिजाईन पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के साभार सहित,
मुकेश कुमार तिवारी
-------------------------------------------------
प्रतीक्षारत तुलसी
तुलसी,
आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
आँगन में खडी़ है
प्रतीक्षारत
कि सुबह कोई पूजेगा /
अर्ध्य देगा / सुहाग लेगा
शाम कोई सुमिरन करेगा
संध्या के साथ वह भी पूजी जायेगी
अब,
सुबह से ही भूचाल आ जाता है
घर में
जो देर शाम तक
निढाल हो गिर जाता है बिस्तर में
अल्मारियों में टंगे हैंगर
इंतजार करते रह जाते है
कपड़ों का
सिर तलाशते रह जाते हैं
गोद
कोई रोता भी नही बुक्का भरके
किसी को याद नही आती
तुलसी
जो आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
किसी कोने में सूख रही है
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक: 14-जून-2009 / समय: 5:00 बजे सांय / घर
यहाँ पुनर्प्रकाशन एवं पेज का डिजाईन पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के साभार सहित,
मुकेश कुमार तिवारी
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प्रतीक्षारत तुलसी
तुलसी,
आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
आँगन में खडी़ है
प्रतीक्षारत
कि सुबह कोई पूजेगा /
अर्ध्य देगा / सुहाग लेगा
शाम कोई सुमिरन करेगा
संध्या के साथ वह भी पूजी जायेगी
अब,
सुबह से ही भूचाल आ जाता है
घर में
जो देर शाम तक
निढाल हो गिर जाता है बिस्तर में
अल्मारियों में टंगे हैंगर
इंतजार करते रह जाते है
कपड़ों का
सिर तलाशते रह जाते हैं
गोद
कोई रोता भी नही बुक्का भरके
किसी को याद नही आती
तुलसी
जो आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
किसी कोने में सूख रही है
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक: 14-जून-2009 / समय: 5:00 बजे सांय / घर

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