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जब जिन्दगी लगी दाँव पर

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

अपनी सौंवी पोस्ट के बाद एक नये स्ट्रांस के साथ पारी की प्रारंभ कर रहा हूँ इस आशा के साथ कि एकाग्रचित्त रह सकूं और आपके स्नेह का पात्र भी।


सादर,


मुकेश कुमार तिवारी
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संभावनायें,
जब भी लौटी निराश
जेब के मुहाने से
मैंने,
खुदको सिमटा पाया
किसी खोटे सिक्के की तरह
अनचाहा गैरजरूरी सा

प्रत्याशायें,
केवल आशा भर रही
जब भी जिन्दगी लगी दाँव पर
द्यूत,
केवल विनोद भर नही था
कुछ और भी था अंतर्निहित
मैंने,
खुदको हारता पाया
सभी बाजी पर युधिष्ठर की तरह
सत्यनिष्ठ होने की सजा भोगता, बेबस लाचार सा

आशायें,
विश्वास देती रहीं कि
कुछ भी अशेष-शेष नही होता
खाली हाथों में
बहुत जगह होती है कि
वो,
कैद कर सके हवा को /
मोड़ सके हवा का रूख अपनी ओर /
सपनों की पतंग को दे सके आसमानी उड़ंची
और,
मैं महसूस करता हूँ
जेब में मचलते पाँसों को /
हाथों में हो रही खुज़ली को
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०६-दिसम्बर-२००९ / समय : ११:४१ दोपहर / घर

25 टिप्पणियाँ

खुदको सिमटा पाया
किसी खोटे सिक्के की तरह
अनचाहा गैरजरूरी सा



यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं.........

खूबसूरत कविता.........

7 दिसंबर 2009 को 11:16 am बजे

खुदको सिमटा पाया
किसी खोटे सिक्के की तरह
अनचाहा गैरजरूरी सा
बहुत सही है आम आदमी की भावनाओं को बहुत सुन्दर शब्द दिये हैं 100वीं पोस्ट के लिये बहुत बहुत बधाई

7 दिसंबर 2009 को 11:19 am बजे
रंजू भाटिया ने कहा…

आशायें,
विश्वास देती रहीं कि
कुछ भी अशेष-शेष नही होता
खाली हाथों में
बहुत जगह होती है...यह पंक्तियाँ सच को उजागर कर रही है ..बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना शुक्रिया मुकेश जी

7 दिसंबर 2009 को 11:32 am बजे

जब भी जिन्दगी लगी दाँव पर
द्यूत,
केवल विनोद भर नही था
कुछ और भी था अंतर्निहित ....

सच कहा है ........ धूत युधिष्ठर ने भी बस विनोद के लिए नही खेला था ...... बहुत कुछ दाव पर लगा था .... प्रतिष्ठा, गर्व ........ आज के दौर में बस कारण बदल गये हैं .........
बहुत ही शशक्त रचना है मुकेश जी .........

7 दिसंबर 2009 को 12:32 pm बजे

आपकी रचनाओं का विस्तार सोच को एक अद्भुत दिशा देता है

7 दिसंबर 2009 को 2:49 pm बजे
M VERMA ने कहा…

खुदको हारता पाया
सभी बाजी पर युधिष्ठर की तरह
सत्यनिष्ठ होने की सजा भोगता, बेबस लाचार सा
खुद को हारना और फिर एहसास कर लेना यही तो युधिष्ठरत्व है शायद.
बेहतरीन,गम्भीर रचना

7 दिसंबर 2009 को 5:18 pm बजे
मनोज कुमार ने कहा…

अच्छी रचना। बधाई।

7 दिसंबर 2009 को 5:37 pm बजे
Yogesh Verma Swapn ने कहा…
Chandan Kumar Jha ने कहा…

रचना एक आशापूर्ण उर्जा भर गयी ।

8 दिसंबर 2009 को 12:45 am बजे

ek aur shaandaar kavita... sir maine aapki ek kavita ke baare mein yahan likha hai..

http://pupadhyay.blogspot.com/2009/12/blog-post.html

us kavita ne sach mein hilakar rakh diya hai mujhe...kya bhaav the..waaah..just superb

8 दिसंबर 2009 को 11:52 am बजे
kshama ने कहा…

Sundar sakaratmak rachna...apne bareme saty likhna himmat ka kaam hota hai...

8 दिसंबर 2009 को 2:06 pm बजे

खुदको सिमटा पाया
किसी खोटे सिक्के की तरह
अनचाहा गैरजरूरी सा
सर जी आप कैसे खोटे सिक्के हो सकते हैं। आप तो निकले खरा सोना । अच्छी प्रस्तुति बधाई स्वीकारें ।

8 दिसंबर 2009 को 2:12 pm बजे
रंजना ने कहा…

Bahut bahut sundar bhavabhivyakti !!!

Galat ko jeette dekh saty ke shakti par jab man aashankit ho jaya karta hai to isi prakaar ke manobhaav man me utha karte hain jise aapne bade hi sundar shabdon me abhivyakti dee hai...

8 दिसंबर 2009 को 3:12 pm बजे
36solutions ने कहा…

सुन्‍दर कविता.

8 दिसंबर 2009 को 4:15 pm बजे
कविता रावत ने कहा…

संभावनायें,
जब भी लौटी निराश
जेब के मुहाने से
मैंने,
खुदको सिमटा पाया
किसी खोटे सिक्के की तरह
अनचाहा गैरजरूरी सा
Gambhir, saarthaka rachana ke liye shubhkamnayen.

8 दिसंबर 2009 को 4:36 pm बजे
गौतम राजऋषि ने कहा…

सौवीं पोस्ट के लिये बधाई मुकेश जी...

बड़ा मुश्किल है इस सौ पोस्ट का सफर और उसपर हर पोस्ट पे अपनी चमक को बरकरार रखते हुए इतनी खूबसूरत कवितायें कहना।

बधाई!

9 दिसंबर 2009 को 10:15 am बजे
Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

कविता वक़्त की बेबसी का सच्चा
भावमय चित्र प्रस्तुत कर रही है ..

9 दिसंबर 2009 को 6:05 pm बजे
Pushpendra Singh "Pushp" ने कहा…

बहुत खूब
बहुत -२ आभार

12 दिसंबर 2009 को 11:14 am बजे
BrijmohanShrivastava ने कहा…

वाकई ,बेवस और लाचार होकर सजा झेलना पड्ता है सत्यनिष्ठ होने की ।आशाये तो कुछ भी आश्वासन दे सकती है सब्ज़ बाग दिखला सकती है ।
तिवारी जी । बाराह पैड पर ड और ढ के नीचे बिन्दी नही लग पारही है ,की बोर्ड के किस अक्षर से लगेगी ?

14 दिसंबर 2009 को 9:27 pm बजे
अर्कजेश ने कहा…

बधाई और इतनी सुंदर कविताऍं लिखने के लिए धन्‍यवाद और शुभकामनाऍ ।

14 दिसंबर 2009 को 11:17 pm बजे
गुंजन ने कहा…

भाई,

सुना तो यही था सत्य परेशान हो सकता है पराजित नही लेकिन यह विडम्बना युधिष्ठर के भाग्य में भी थी और हम सब भी कहीं ना कहीं भोगते हैं।

बात अच्छी कही है दिल तक पहुँचती है।

जितेन्द्र चौहान

15 दिसंबर 2009 को 6:04 pm बजे
Asha Joglekar ने कहा…

आशायें,
विश्वास देती रहीं कि
कुछ भी अशेष-शेष नही होता
खाली हाथों में
बहुत जगह होती है

सुंदर ।

16 दिसंबर 2009 को 5:27 pm बजे

आप सभी का आभार!

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

18 दिसंबर 2009 को 8:42 am बजे
Pritishi ने कहा…

Pehla verse hi bahut zabardast hai ! Kavita bahut badhiya !
Copy paste karna chaha comment kar sakoon apni pasandeeda panktiyaan ..... shayad disabled hai. Achchi baat hai :)

God bless

26 दिसंबर 2009 को 10:32 pm बजे

सौवीं पोस्ट के लिये बधाई मुकेश जी..

16 अप्रैल 2010 को 6:28 am बजे