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तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

तुम,
आँखों में झांकते हुये
पढ़ लेती हो विचारों को
इसके पहले कि वो बदल सकें शब्द में
शब्दों को जैसे पहचान लेती हो
तुम्हारे कानों तक पहुँचने के पहले
और अपनी पूरी ताकत झोंक देती हो
उस शब्द को बेअसर करने के लिये

तुम,
रोक देना चाहती हो
कि शब्द बदल सकें पानी में
और बने रहे तुम्हारी आँखों में
या घुल जाये काजल में
और बहे तुम्हारे गालों पर
फिर सूखते हुये जिन्दा रहें लकीरों में
शब्दों में छिपे बादल के टुकड़े को तुम जैसे पहचान लेती हो
और बदल जाती पत्थर में

तुम,
तलाशती हो कोई कोना अपने ही अंतर
कि जहाँ तुम छिप सको पीछा करते हुये शब्दों से
जो खोज रहे हैं तुम्हें
तुम्हारे होने से लेकर आजतक
और गूंज रहे हैं अनुनाद बनकर तुम्हारे ख्वाबों में
तुम खुद को मिटा लोगी एक दिन
लेकिन शब्द तब भी गूंजेंगे /
तुम्हारा पीछा करेंगे
तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
जिसमे विलीन हो जायें तुम्हें कचोटते शब्द
और तुम महसूस कर सको
हवा को तुम्हारे कानों में सीटियाँ बजाते किसी दिन
--------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २४-सितम्बर-२००९ / समय : १०:४५ रात्रि / घर /

29 टिप्पणियाँ

ओम आर्य ने कहा…

मौन मे हूँ ................................................................................................................................
सादर
ओम आर्य

25 सितंबर 2009 को 7:03 pm बजे
M VERMA ने कहा…

लेकिन शब्द तब भी गूंजेंगे /
तुम्हारा पीछा करेंगे
तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
=======
शब्द के प्रतिउत्तर मे पैदा करो नाद,
शायद संवेदनाएँ करने लगे अनुनाद्
=====
मुकेश जी !
इन शब्दो ने नि:शब्द कर दिया है. सघन भावनाएँ
साधुवाद

25 सितंबर 2009 को 7:43 pm बजे

तुम शब्द में आपने गहराई भर दी..इतने सुंदर तरीके से आपने कविता प्रस्तुत किया मैं तो खो सा गया.
भावपूर्ण बहुत बढ़िया रचना..बधाई!!!

25 सितंबर 2009 को 9:30 pm बजे
अपूर्व ने कहा…

कि शब्द बदल सकें पानी में
और बने रहे तुम्हारी आँखों में
या घुल जाये काजल में
और बहे तुम्हारे गालों पर
फिर सूखते हुये जिन्दा रहें लकीरों में
शब्दों में छिपे बादल के टुकड़े को तुम जैसे पहचान लेती हो
और बदल जाती पत्थर में

कविता सीधी अंतस्‌ पर मार करती है..हमारा मनोवृत्ति ही हमारा अभयारण्य भी होती है और चिड़ियाघर भी..और हमारी अपनी भावनाएं ही ढ़केल देती हैं हमे किसी अंधेरी गर्त मे..
निस्संदेह आज पढी सबसे बेहतरीन रचनाओं मे से एक..आभार.

25 सितंबर 2009 को 11:55 pm बजे
Chandan Kumar Jha ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति ।

26 सितंबर 2009 को 1:13 am बजे
kshama ने कहा…

Aapne jo ek naad paida kar diya..aur kya zaroorat kisee nadkee? Is naad se nishabd kar diya..

26 सितंबर 2009 को 1:44 am बजे

तुम,
रोक देना चाहती हो
कि शब्द बदल सकें पानी में
और बने रहे तुम्हारी आँखों में
या घुल जाये काजल में
और बहे तुम्हारे गालों पर .......

बहुत लाजवाब लिखा है .......... मन में उठते दर्द को छुपाने की कोशिश को ........... उस दर्द को दबाने का प्रयास ........... कमाल का लिखा है ..

26 सितंबर 2009 को 5:18 am बजे
Randhir Singh Suman ने कहा…

कि शब्द बदल सकें पानी में .nice

26 सितंबर 2009 को 11:27 am बजे
Gyan Dutt Pandey ने कहा…

स्वीकारोक्ति: यह मैं-तुम-शब्द-संप्रेषण के समीकरण समझ नहीं आते!

26 सितंबर 2009 को 1:22 pm बजे
रंजू भाटिया ने कहा…

तुम,
तलाशती हो कोई कोना अपने ही अंतर
कि जहाँ तुम छिप सको पीछा करते हुये शब्दों से
जो खोज रहे हैं तुम्हें
तुम्हारे होने से लेकर आजतक
और गूंज रहे हैं अनुनाद बनकर तुम्हारे ख्वाबों में
तुम खुद को मिटा लोगी एक दिन
लेकिन शब्द तब भी गूंजेंगे /

मुझे यह पंकितयां बहुत पसंद आई मुकेश जी ....एक तलाश हमेशा दिल में बनी ही रहती है पर उसके होने का एहसास सिर्फ ख्वाब बना रहता है ..सच को कहती है यह सुन्दर पक्तियां ..सही में तुम मैं और जीवन बीत जाता है पर शब्द वही रह जाते हैं ..शुक्रिया इतनी सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए

26 सितंबर 2009 को 1:34 pm बजे
गुंजन ने कहा…

भाई,

निम्न पंक्तियाँ पहाड़ों की याद दिला देती है जहाँ खाली दिमाग होने पर भी हवा कान में सीटियाँ बजाती है :-

तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
जिसमे विलीन हो जायें तुम्हें कचोटते शब्द
और तुम महसूस कर सको
हवा को तुम्हारे कानों में सीटियाँ बजाते किसी दिन


जीतेन्द्र चौहान

26 सितंबर 2009 को 4:55 pm बजे
Mishra Pankaj ने कहा…

मुकेश जी आपके ब्लॉग पर देर से पहुचा माफी .
आपको दशहरा की शुभकामनाये

26 सितंबर 2009 को 5:30 pm बजे
हरकीरत ' हीर' ने कहा…

तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?


kahaan jayegi nad paida karke ....?

sunder rachna ....bhav mein gahrai ...achhi lagi ....!

26 सितंबर 2009 को 6:59 pm बजे

या घुल जायें तुम्हारे काजल मे और बहें गालों पर और जिन्दा रहें लकीर बन कर तुम्हारे गालों पर
बहुत सुन्दर और नये अंदाज़ मे पूरी रचना भावमय है बधाई नवमी और् विजय दशमी की बधाई

26 सितंबर 2009 को 9:15 pm बजे
Yogesh Verma Swapn ने कहा…

mukesh ji , aapka mere blog par aane comment karne ke liye hardik dhanyawaad.

aapki rachna adbhut lagi , bahur sunder abhivyakti. badhaai.

27 सितंबर 2009 को 5:32 am बजे

शब्द को इतने प्यारे तरीके अभिव्यक्त किया आपने की आपकी तारीफ के लिए मेरे पास शब्द नही है .

27 सितंबर 2009 को 1:51 pm बजे
BrijmohanShrivastava ने कहा…

विचारों का शब्दों में बदलने के पहले ही शब्दों को पहिचान लेना ,सुंदर भी आलंकारिक भी |पानी में शब्द बदलने के पूर्व ही रोक देना और आँखों में रहकर काजल में घुल कर गलों पर बहना,पीछा करते हुए शब्दों से छुपना और अंतिम अति सुंदर कि कोई नाद क्यों पैदा नहीं करती जिसमे कचोटते शब्द विलीन हो जाएँ वकौल के शायर ""हंसो आज इतना कि इस शोर में सदा सिसकियों की सुनाई न दे ""

27 सितंबर 2009 को 10:47 pm बजे

तिवारीजी,
निःसंदेह, यह आपकी श्रेष्ठ कविताओं में से एक सिद्ध होगी ! बात कहने का आपका तौर निराला है, पहले भी लिख चुका हूँ; लेकिन इस कविता में छोटे-से तत्त्व को आपने जिस कुशलता से विराट से जोड़ दिया है, वह काव्य-कला का अनुपम उदाहरण है! अपनी बात के प्रमाण में मैं कई पंक्तियाँ उधृत कर सकता हूँ इस कविता से; लेकिन मेरे कथन का आशय आप समझ गए होंगे, इसका विश्वास है मुझे ! सप्रीत... आ.

28 सितंबर 2009 को 12:58 am बजे

इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.

28 सितंबर 2009 को 10:47 am बजे
ज्योति सिंह ने कहा…

लेकिन शब्द तब भी गूंजेंगे /
तुम्हारा पीछा करेंगे
तुम क्यों नही पैदा करती कोई नाद?
=======
शब्द के प्रतिउत्तर मे पैदा करो नाद,
शायद संवेदनाएँ करने लगे अनुनाद्.
bahut sundar .happy dashhara .

28 सितंबर 2009 को 1:36 pm बजे
Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

अब समझ गया की शब्द से पीछा छुदन कोई आसन कम नहीं, इतिहास गवाह है की शब्द-वेधी बाण ने क्या कुछ कर दिया था......

सुन्दर गहरे भाव से सराबोर आपकी यह रचना ह्रदय को छू गई.
हार्दिक बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

28 सितंबर 2009 को 3:41 pm बजे
shikha varshney ने कहा…
Vinay ने कहा…

दशहरे की शुभकामनाएँ, बहुत सुन्दर काव्य है

29 सितंबर 2009 को 7:59 pm बजे
Prem Farukhabadi ने कहा…

मुकेश जी ,
आपका जीवन दर्शन बहुत ही बेहतरीन कविता में खो जाने कोमन करता है . भाव बड़े गंभीर हैं .दिल से बधाई!!

30 सितंबर 2009 को 9:29 am बजे

"एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म, जहाँ ज़रुरते ज़ेब से बड़ी और समझदारी उम्र से बड़ी होती है. उस पर चार भाई-बहनों में बड़ा होने के नाते कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारियों का बोझ ढोते ज़वान हो जाना. जिन्दगी को करीब से लगभग सभी रंगो में देखा, जहाँ अभावो ने सदा हौसला बढ़ाया कि हासिल करने को और भी मुकाम है सा सब़क हर कदम पर याद रहा. कविता मुझे उर्जा देती है और अपनी मुश्किलों से जूझने का हौसला भी "

तिवारी जी कविताएं तो आपकी सुन्दर होती ही है मगर सच कहू तो मुझे आपके ये अपने बारे में कहे "दो शब्द " बहुत ही अच्छे लगे, बधाई !

30 सितंबर 2009 को 10:47 am बजे

आप सभी का दिल से आभारी हूँ, आपकी टिप्पणियों ने सदा मेरा मार्गदर्शन किया है और अच्छा करने की प्रेरणा दी है।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

30 सितंबर 2009 को 7:49 pm बजे
Urmi ने कहा…

बहुत ही सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये शानदार रचना बहुत अच्छी लगी! विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें!

1 अक्तूबर 2009 को 6:52 am बजे