दीवारों से घिरी चौहद्दी, जिसके ऊपर छत भी होती है एक मकान की शक्ल इख्तियार कर लेती है। जिसके तले सपने बुने जाते हैं.... तामीर होते हैं...... पराये अपने हो जाते हैं......परिवार बढता है......बचपन चहकता है......जवानी आती है......यह एक अदद मकान क्रमशः घर में बदल जाता है।
फिर एक दिन वो आता है जब यह मकान को बदलना होता है, एक-एक कर सारा सामान पैक हो चुका है। एक नज़र से फिर मुआयना होता है पूरे खाली मकान का कहीं कुछ रह तो नही गया है तब मैं किसी कोने में कोई कहता है मेरे कानों में :-
भीतर,
की ओर खुलने वाले
दरवाजों के बाद
दीवारें बदल जाती हैं
दालान में
जहाँ आज भी मेरा बचपन झांकता है
फिर शुरू होता है
आँगन जिसमें
गुनगुनी धूप बिछी रहती है
मखमल सी
चांदनी भी छिटकती है
जैसे हरसिंगार झरा हो झूमके
जहाँ मेरे जवान होते सपने भी
मिल जाते हैं
अक्सर रातों में तारे गिनते
खेतों,
की ओर खुलते रास्ते पर
मेरा कमरा
बाहर की ओर खुलती खिड़की
जिससे ताजा हवा झोंका
अब भी लगता है
लेकर आयेगा तुम्हारी खुश्बू
और मैं भीग जाऊंगा
झरोखे में कैद तुम्हारा अक्स
अब भी लगता है
बातें करेगा सुबह तक
मेरे सिर में उंगलियाँ फिराते हुये
क्या,
यह सब मैं
ले जा सकूंगा अपने साथ?
---------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १५-जून-२००९ / समय : १०;४८ रात्रि / घर
जड़, होने के पहले
मंगलवार, 16 जून 2009
जब,
भूख नही लगती
पेट रोटियों से भरा रहता है
और नींद नही आती
गोलियाँ खाने के बाद भी
तब,
चेतना खोजने लगती है
जीवन के पर्याय
हथेलियों,
पर बनते बिगड़ते समीकरणों में
चेतन और अचेतन के बीच की रेखा
मिटने लगती है ललाट पर
जड़ होने की हद से
थोड़ा पहले ही चेतना
बदलने लगती है अतिविश्वास में
ज्ञान को उग आते हैं पर
च्यूंटियों की तरह
और आत्मा शरीर के अंदर ही
विलीन हो रही होती है
----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-जून-२००९ / समय : ११:५२ रात्रि / घर
भूख नही लगती
पेट रोटियों से भरा रहता है
और नींद नही आती
गोलियाँ खाने के बाद भी
तब,
चेतना खोजने लगती है
जीवन के पर्याय
हथेलियों,
पर बनते बिगड़ते समीकरणों में
चेतन और अचेतन के बीच की रेखा
मिटने लगती है ललाट पर
जड़ होने की हद से
थोड़ा पहले ही चेतना
बदलने लगती है अतिविश्वास में
ज्ञान को उग आते हैं पर
च्यूंटियों की तरह
और आत्मा शरीर के अंदर ही
विलीन हो रही होती है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-जून-२००९ / समय : ११:५२ रात्रि / घर
क्षितिज के पार
सोमवार, 8 जून 2009
शब्द,
बस दम घोंटे हुये
चुपचाप वहीं बैठे रहे
बाट जोहते अपनी बारी की
विचार,
छटपटाते हुये
ढूंढते रहे रास्ता बस
किसी तरह बह निकलने का
मैं,
दोनों के बीच
हाशिये पर टंगा
तलाश रहा था वुजूद अपना
त्रिशंकु सा
और,
क्षितिज पर
केवल तुम थी,
सत्य की तरह
शाश्वत
----------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जून-२००९ / समय : ११:१८ रात्रि / घर
बस दम घोंटे हुये
चुपचाप वहीं बैठे रहे
बाट जोहते अपनी बारी की
विचार,
छटपटाते हुये
ढूंढते रहे रास्ता बस
किसी तरह बह निकलने का
मैं,
दोनों के बीच
हाशिये पर टंगा
तलाश रहा था वुजूद अपना
त्रिशंकु सा
और,
क्षितिज पर
केवल तुम थी,
सत्य की तरह
शाश्वत
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जून-२००९ / समय : ११:१८ रात्रि / घर
नवसृष्टी का प्रारंभ.......
शुक्रवार, 29 मई 2009
जब,
मुझे छोड़ना था
जीवन के इस पड़ाव पर
वो सब जो, सारी जिन्दगी जमा किया था
फिर किसी एक को साथ रख
तय करना हो शेष सफ़र
बड़ा,
मुश्किल था
चुनना किसे रखना है साथ
या किसे छोड़ देना है
धीरे-धीरे,
मुझमें साहस आया कि
मैं चुन सकूं
अपने विवेक बल पर
सबसे,
पहले वह छूटा
जो मुझे प्रिय था
शायद मैं त्याग की शुरूआत यहीं से करना चाहता था
इक इक को चुनने छोड़ने के बाद
मेरे लिये शेष बचा रहा
शून्य!
मैं,
स्तब्ध, अचंभित दुविधा में
कि जब सभी छूट गया है तो
फिर क्यों पकड़ना है
शून्य
और ढोना है शेष बचे सफ़र में
शून्य,
पैदा करता है विरक्ती
वैराग्य के चरम पर
फिर, जन्म लेता है मोह
और
शून्य के अमृतकुंभ से जन्म लेने लगते हैं
वो सब जिन्हें मैं त्याग आया था
जैसे नवसृष्टी के प्रारंभ की संध्यावेला हो
और मुझे निभानी हो भूमिका
"नूह" की
--------------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-मई-२००९ / समय : ११:२५ रात्रि / घर
मुझे छोड़ना था
जीवन के इस पड़ाव पर
वो सब जो, सारी जिन्दगी जमा किया था
फिर किसी एक को साथ रख
तय करना हो शेष सफ़र
बड़ा,
मुश्किल था
चुनना किसे रखना है साथ
या किसे छोड़ देना है
धीरे-धीरे,
मुझमें साहस आया कि
मैं चुन सकूं
अपने विवेक बल पर
सबसे,
पहले वह छूटा
जो मुझे प्रिय था
शायद मैं त्याग की शुरूआत यहीं से करना चाहता था
इक इक को चुनने छोड़ने के बाद
मेरे लिये शेष बचा रहा
शून्य!
मैं,
स्तब्ध, अचंभित दुविधा में
कि जब सभी छूट गया है तो
फिर क्यों पकड़ना है
शून्य
और ढोना है शेष बचे सफ़र में
शून्य,
पैदा करता है विरक्ती
वैराग्य के चरम पर
फिर, जन्म लेता है मोह
और
शून्य के अमृतकुंभ से जन्म लेने लगते हैं
वो सब जिन्हें मैं त्याग आया था
जैसे नवसृष्टी के प्रारंभ की संध्यावेला हो
और मुझे निभानी हो भूमिका
"नूह" की
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-मई-२००९ / समय : ११:२५ रात्रि / घर
और, बर्फ पिघल जायेगी
शुक्रवार, 22 मई 2009
तुम्हें,
शायद मेरी बातों पर
यकीन नही हुआ होगा
तुम,
हमेशा कि तरह ही
सोच रही होओगी कि
मुझे इस बात से कोई
फर्क नही पड़ेगा
जब कोई तुम्हें कुछ कहता होगा
फिर, कुछ देर बाद
मैं खुद को उलझा लूंगा
कभी ना खत्म होने वाली
उलझनों में
और, तुमसे उम्मीद भी रखूंगा कि
भूल जाओ, जो भी हुआ है
केवल,
तुम अकेली ही लड़ती रहोगी
अपने-आप से
तुम्हें,
यह भी लगता होगा कि
ज़हर केवल तुम्हें पीना है
और जैसे बाकी सब
या तो तमाशाई हैं
या हँस रहे होंगे तुम पर
यहाँ तक की
मैं भी शायद
तुम्हारे दर्द को महसूस नही कर पाऊंगा
या कुछ हद तक
मेरा दिलासा तुम्हें
फिर खींच लायेगा मेरे बिस्तर पर
और बर्फ पिघल जायेगी
----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २६-मार्च-२००९ / समय : ११:१० रात्रि / घर
शायद मेरी बातों पर
यकीन नही हुआ होगा
तुम,
हमेशा कि तरह ही
सोच रही होओगी कि
मुझे इस बात से कोई
फर्क नही पड़ेगा
जब कोई तुम्हें कुछ कहता होगा
फिर, कुछ देर बाद
मैं खुद को उलझा लूंगा
कभी ना खत्म होने वाली
उलझनों में
और, तुमसे उम्मीद भी रखूंगा कि
भूल जाओ, जो भी हुआ है
केवल,
तुम अकेली ही लड़ती रहोगी
अपने-आप से
तुम्हें,
यह भी लगता होगा कि
ज़हर केवल तुम्हें पीना है
और जैसे बाकी सब
या तो तमाशाई हैं
या हँस रहे होंगे तुम पर
यहाँ तक की
मैं भी शायद
तुम्हारे दर्द को महसूस नही कर पाऊंगा
या कुछ हद तक
मेरा दिलासा तुम्हें
फिर खींच लायेगा मेरे बिस्तर पर
और बर्फ पिघल जायेगी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २६-मार्च-२००९ / समय : ११:१० रात्रि / घर
जब, गुम हो जाये लिपियाँ
गुरुवार, 14 मई 2009
मैनें,
कभी नही चाहा कि
जोड़कर अंजुरि भर लूँ
अपने हिस्से की धूप
और अपने सपनों को बदलने की
कोशिश करूं हकीकत में
मैनें,
कभी नही चाहा कि
आकाश मेरे लिये सहेज कर रक्खे
एक टुकड़ा छांव सुख भरी
सुकून बाँटती
जब मेरी पीठ से उतरती हुई
पसीने की बूंद
गुम हो जाये दोनों पैरों के बीच कहीं
और सामने पड़ी हो दूरियाँ नापने को
मैनें,
कभी नही चाहा कि
मेरे आस-पास आभामंडल बने
और मुझे पहचाना जाये
पास बिखरी चमक दमक से
जब मैं अपनी ही खोज में किसी कतार में खड़ा
आरंभ कर रहा हूँ सीखना
रोशनी कैसा पैदा की जा सकती है
खून को जलाते हुये हाड़ की बत्ती से
मैनें,
कभी नही चाहा कि
मेरा नाम उकेरा जाये दीवारों पर
या पत्त्थर के सीने पर
और वर्षों बाद भी जब गुम हो जायें लिपियाँ
मैं अपने नाम के साथ जिन्दा रहूँ
अंजानी पहचान के साथ
जबकि, मैं चाहता रहा
मेरा नाम किसी दिल के हिस्से पर
बना सके अपने लिये कोई जगह
और धड़कता रहे
किसी दिन शून्य में विलीन होने से पहले
-----------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-मई-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर
कभी नही चाहा कि
जोड़कर अंजुरि भर लूँ
अपने हिस्से की धूप
और अपने सपनों को बदलने की
कोशिश करूं हकीकत में
मैनें,
कभी नही चाहा कि
आकाश मेरे लिये सहेज कर रक्खे
एक टुकड़ा छांव सुख भरी
सुकून बाँटती
जब मेरी पीठ से उतरती हुई
पसीने की बूंद
गुम हो जाये दोनों पैरों के बीच कहीं
और सामने पड़ी हो दूरियाँ नापने को
मैनें,
कभी नही चाहा कि
मेरे आस-पास आभामंडल बने
और मुझे पहचाना जाये
पास बिखरी चमक दमक से
जब मैं अपनी ही खोज में किसी कतार में खड़ा
आरंभ कर रहा हूँ सीखना
रोशनी कैसा पैदा की जा सकती है
खून को जलाते हुये हाड़ की बत्ती से
मैनें,
कभी नही चाहा कि
मेरा नाम उकेरा जाये दीवारों पर
या पत्त्थर के सीने पर
और वर्षों बाद भी जब गुम हो जायें लिपियाँ
मैं अपने नाम के साथ जिन्दा रहूँ
अंजानी पहचान के साथ
जबकि, मैं चाहता रहा
मेरा नाम किसी दिल के हिस्से पर
बना सके अपने लिये कोई जगह
और धड़कता रहे
किसी दिन शून्य में विलीन होने से पहले
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-मई-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर
सोयी सुबह - जागी रातें
गुरुवार, 7 मई 2009
आज,
सुबह उठते ही
मैनें महसूस किया कि
मन खिन्न है
वैसे कोई कारण सीधे सीधे नजर नही आता
पर उदासी छाई हुई है
ऐसा भी नही है
कि रात किसी ख्वाब ने लुभाया हो
और हकीकत के खर्राटों ने जगाते हुये
ला पटका हो अपनी औकात पर
ऐसा भी नही कि
भीगी यादों की खुश्बू से सजा बिस्तर
भर गया हो जागती सिलवटों से
और नींद उचट गई हो
ऐसा भी नही हुआ कि
सारी रात तेरी जुम्बिश से
चिपका रहा बिस्तर पर
और भोर में जागा हूँ भीगा भीगा सा
अब,
कुछ कहा नही जाता कि
क्यों सुबह में कुछ नया नही लग रहा है?
क्यों सुबह बिस्तर छोड़ने में लगता है ड़र?
क्यों ऐसा लगता है कि
चादर ओढ़ कर और सोया जाये
या यूँ ही जागते हुये
बुने जायें कुछ ख्वाब लुभावने से /
बुनी जाये दुनिया अपनी सी /
और भूल जायें कुछ देर के लिये ही सही
वो सोयी-सोयी सुबह /
वो जागी-जागी रातें
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ३०-अप्रैल-२००९ / समय : ११:२२ रात्रि / घर
सुबह उठते ही
मैनें महसूस किया कि
मन खिन्न है
वैसे कोई कारण सीधे सीधे नजर नही आता
पर उदासी छाई हुई है
ऐसा भी नही है
कि रात किसी ख्वाब ने लुभाया हो
और हकीकत के खर्राटों ने जगाते हुये
ला पटका हो अपनी औकात पर
ऐसा भी नही कि
भीगी यादों की खुश्बू से सजा बिस्तर
भर गया हो जागती सिलवटों से
और नींद उचट गई हो
ऐसा भी नही हुआ कि
सारी रात तेरी जुम्बिश से
चिपका रहा बिस्तर पर
और भोर में जागा हूँ भीगा भीगा सा
अब,
कुछ कहा नही जाता कि
क्यों सुबह में कुछ नया नही लग रहा है?
क्यों सुबह बिस्तर छोड़ने में लगता है ड़र?
क्यों ऐसा लगता है कि
चादर ओढ़ कर और सोया जाये
या यूँ ही जागते हुये
बुने जायें कुछ ख्वाब लुभावने से /
बुनी जाये दुनिया अपनी सी /
और भूल जायें कुछ देर के लिये ही सही
वो सोयी-सोयी सुबह /
वो जागी-जागी रातें
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ३०-अप्रैल-२००९ / समय : ११:२२ रात्रि / घर
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