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कविता : कुछ रिश्तों के बहाने से

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

रिश्तों को,
जिन्दगी की इस हद्द के बाद
मैं समझने लगा हूँ कि
यहाँ अपना-पराया
कुछ नही होता है
यह केवल एक भ्रम है
और जिसमें
केवल मैं,
तुम
हम सभी घिरे हैं कमोबेश

केवल
सन्दर्भ बदलते हैं
वक्त के साथ
और हम तुम वहीं होते हैं
घिरे हुए
और कुछ नही बदलता है यहाँ
अलबत्ता
कुछ देर मैं तुम्हारी भूमिका निभा लेता हूँ
या तुम मेरी
लेकिन नियति ने
इससे ज्यादा नही छोड़ी है
गिरह अपनी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 12-दिसम्बर-2011 / समय : 10:53 रात्रि / घर

9 टिप्पणियाँ

vandana gupta ने कहा…

बेहद गहन भावो का समावेश्।

14 दिसंबर 2011 को 12:32 pm बजे
kshama ने कहा…

Hummm sach hai, waqt ke saath kewal sandarbh badal jatee hain...

14 दिसंबर 2011 को 1:39 pm बजे
रविकर ने कहा…

आपकी इस सुन्दर प्रस्तुति पर हमारी बधाई ||

terahsatrah.blogspot.com

14 दिसंबर 2011 को 5:16 pm बजे

लगभग सबकुछ एक भ्रम है ...

15 दिसंबर 2011 को 9:04 am बजे

रिश्तों के बैंक में किश्त भरते भरते जीवन कट जाता है, कभी मूल नहीं पट पाता है।

15 दिसंबर 2011 को 9:22 am बजे
prerna argal ने कहा…

bahut badiyaa prastuti.badhaai aapko.

आपकी पोस्ट आज की ब्लोगर्स मीट वीकली (२२) में शामिल की गई है /कृपया आप वहां आइये .और अपने विचारों से हमें अवगत करिए /आपका सहयोग हमेशा इसी तरह हमको मिलता रहे यही कामना है /लिंक है

http://hbfint.blogspot.com/2011/12/22-ramayana.html

19 दिसंबर 2011 को 11:02 am बजे
***Punam*** ने कहा…

सुन्दर यथार्थ....

23 दिसंबर 2011 को 11:20 pm बजे

http://urvija.parikalpnaa.com/2011/12/blog-post_27.html

28 दिसंबर 2011 को 10:59 am बजे
Pritishi ने कहा…

bahut khoob .. sachmuch bahut badhiya. Badhai.

4 जनवरी 2012 को 9:41 pm बजे