नये साल की पूर्व रात्रि, जो भी मन में था उसे निम्न पंक्तियों के माध्यम से आप सभी तक पहुँचा रहा हूँ।
तुम्हारे,शब्द मुझे व्यापार से लगते हैं
अक्सर चढ़े हुए
या गिरे-गिरे से
और हरबार
तुम आदमी का मोल-भाव करते नज़र आते हो
तुम्हारे,
शब्द गंधाते हैं मेरी साँसों में
ताजे माँस की तरह
जैसे अभी-अभी किसीने मछली को चीरा हो
हंसिये के सहारे
और तौल दिया हो
जरूरतों को रुपये में बदलते हुए
तुम अपने शब्दों से जाल बुनते नज़र आते हो
तुम्हारे,
शब्द खट्टाते हैं मुँह में
पीले-पीले केलों की तरह
जिन्हें समय से पूर्व ही पकाया गया हो कार्बाइड से
तुम्हें बड़ी होती लड़कियाँ
लगती हैं केले की भारियों की तरह
तुम्हारी आँखों का पीलापन बढ़ता जाता है
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 31-दिसम्बर-2011 / समय : 10:50 रात्रि / घर
तुम्हारे,शब्द मुझे व्यापार से लगते हैं
अक्सर चढ़े हुए
या गिरे-गिरे से
और हरबार
तुम आदमी का मोल-भाव करते नज़र आते हो
तुम्हारे,
शब्द गंधाते हैं मेरी साँसों में
ताजे माँस की तरह
जैसे अभी-अभी किसीने मछली को चीरा हो
हंसिये के सहारे
और तौल दिया हो
जरूरतों को रुपये में बदलते हुए
तुम अपने शब्दों से जाल बुनते नज़र आते हो
तुम्हारे,
शब्द खट्टाते हैं मुँह में
पीले-पीले केलों की तरह
जिन्हें समय से पूर्व ही पकाया गया हो कार्बाइड से
तुम्हें बड़ी होती लड़कियाँ
लगती हैं केले की भारियों की तरह
तुम्हारी आँखों का पीलापन बढ़ता जाता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 31-दिसम्बर-2011 / समय : 10:50 रात्रि / घर
10 टिप्पणियाँ
सुंदर शब्दों के संयोजन से रची रचना अच्छी लगी आभार
5 जनवरी 2012 को 7:10 am बजेकाश कृत्रिमता सहजता को राह दे।
5 जनवरी 2012 को 8:14 am बजेसुन्दर बिम्बात्मक और शब्दात्मक रचना
5 जनवरी 2012 को 9:34 am बजेAksar log aise hee hote hain!
5 जनवरी 2012 को 4:09 pm बजेNaya saal bahut mubarak ho!
Bahut sundar!
5 जनवरी 2012 को 10:24 pm बजेआपके शब्दों में दुनिया बोल पड़ी है ! अनेक बिम्ब उभरे हैं--स्पष्ट होकर; समय को अभिव्यक्त करते हुए... चिंतन को ढोते हुए ! हर टुकडा दृष्टि देता-सा आई-सर्जन लगता है !!
11 जनवरी 2012 को 4:11 pm बजेअति-उत्तम ! सप्रीत--आ.
मुकेश जी नमस्ते !
11 जनवरी 2012 को 7:10 pm बजेसमाज के स्वार्थपरक सरोकार और आंतरिक दीनता को शब्दों में खूब पिरोया है आपने ...
मकर सक्रांति पर्व की अग्रिम शुभकामनाएं ... प्रदीप
प्रिय मुकेश जी
23 जनवरी 2012 को 11:47 am बजेरचना के माध्यम से पता चला की कवि की सोच कहाँ तक जा सकती है.... शब्दों को महसूस करना, उनका स्वाद चखना कोई साधारण व्यक्ति नहीं कर सकता. अच्छी रचना.
आप सभी सुधिजनों का धन्यवाद।
25 जनवरी 2012 को 5:07 pm बजेसादर,
मुकेश कुमार तिवारी
bhai,
25 जनवरी 2012 को 5:13 pm बजेachhi rachanaa hai.
jitenra
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