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कविता : संवाद में ढ़लते हुये

गुरुवार, 24 मार्च 2011

विचार,
जब उठते हैं
मन में ज्वार की तरह
तो अपनी अनुगूंज से पैदा करते हैं
शब्द!
और विलीन हो जाते हैं
मन की गहराईयों में कहीं
छटपटाते हुये

शब्द!
जब जन्म लेता है तो
कुलबुलाता है दिमाग की तह में
और मचलता है
पैर पसारने को
अकेला शब्द जब कुछ नही कर पाता है तो
अपने ही हिस्से से पैदा करता है
शब्द कई टूटते-जुड़ते हुये ढ़ल जाता है
संवाद में
और तौड़ देता है
सारे मौन को
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 24-मार्च-2011 / समय : 02:20 दोपहर / लंच ब्रेक में

12 टिप्पणियाँ

सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

24 मार्च 2011 को 6:19 pm बजे

अपने ही हिस्से से पैदा करता है
शब्द कई टूटते-जुड़ते हुये ढ़ल जाता है
............सार्थक और भावप्रवण रचना।

24 मार्च 2011 को 6:19 pm बजे
ZEAL ने कहा…

शब्दों का , टूटना , जुड़ना , ढलना और फिर संवाद बनकर मौन को तोडना ...वाह ...बेहतरीन अभिव्यक्ति !

24 मार्च 2011 को 6:26 pm बजे
Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

दोनों कविताओं में बहुत ही गहरे भाव हैं!....
हार्दिक बधाई !

24 मार्च 2011 को 8:53 pm बजे

मौन, शब्द, संवाद और विचार, एक अनसुलझा सामञ्जस्य।

24 मार्च 2011 को 9:02 pm बजे

दोनों रचनाएँ बहुत सुन्दर ...शब्दों का जुडना और टूटना यही संवाद बन जाता है

24 मार्च 2011 को 11:16 pm बजे
vandana gupta ने कहा…

शब्द और विचार का सुन्दर चित्रण किया है।

25 मार्च 2011 को 11:30 am बजे
Kailash Sharma ने कहा…
रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत खुबसूरत रचना ...कुछ ऐसा ही आज मैंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया है ...:)

25 मार्च 2011 को 5:57 pm बजे

हर विचार को शब्द नहीं मिल पाते
और हर शब्द व्याख्यायित नहीं हो पाता है कभी-कभी :)
मन में उठी एक वैचारिक तरंग का अच्छा चित्रण है
बधाई!

25 मार्च 2011 को 9:39 pm बजे

आप सभी का आभार !!!

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

1 अप्रैल 2011 को 9:13 am बजे