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इंसानों के बारे में

शनिवार, 22 अगस्त 2009

मुझे,
यह लगता था कि
इंसान बातों को समझता है
और अपने तर्कों को औज़ार बनाया था
उनसे बातें करने को

मुझे,
यह भी लगता था कि
सभी इंसान दिल से अच्छे होतें हैं
केवल परिस्थितियाँ उन्हें
बद, बुरा या नेता बनाती हैं
और मैं सबसे दिल खोल के मिलना चाहता था

मैनें,
यही सीखा था कि
इंसान जब समूह में रहते हैं तो
समाज का निर्माण होता है
और मैं सबको साथ लेके चलना चाहता था

मैं,
यह सीख पाया कि
धीरे-धीरे समाज विघटित होता है
यूनियनों में
और बिखरने लगता है
गाली, गलौच, माँगों और नारों के साथ

मैनें,
देखा और झेला भी है कि
वही इंसान अपनी केंचुली बदल
किसी निगोसियेशन में आता है तो
मुझमें देखता है किसी कसाई को
और खरोंचे मारने लगता है

मैं,
कन्फ्यूज हो जाता हूँ कि
मैंने जो सीखा था अब तक
इंसानों के बारे में
क्या सब बकवास था?
------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १९-अगस्त-२००९ / समय : ५:१५ सायं / ऑफिस में वर्कर्स वेज निगोसियेशन के दौरान

22 टिप्पणियाँ

सदा ने कहा…

बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति, आभार्

22 अगस्त 2009 को 12:55 pm बजे
Vinay ने कहा…

अभिव्यक्ति और दर्शन के दर्शन होते हैं।
---
1. चाँद, बादल और शाम
2. विज्ञान । HASH OUT SCIENCE

22 अगस्त 2009 को 1:41 pm बजे
ज्योति सिंह ने कहा…

sachmuch bahut sundar abhivyakti aur sachhi tasvir .aadmi ki fitrat kab kahan kaise nazar aaye ,kahan nahi jaaye .

22 अगस्त 2009 को 2:09 pm बजे
ओम आर्य ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति तो है साथ ही यह समझ मे आता है कि अनुभव जो बवंडर पैदा कर दिया है जिसमे सब्कुछ कही टुट सा गया है यही है संसारिक कसौटी जहा कुछ भी कायम नही रहता है ......क्योकि आज के तारिख मे नित्य प्रतिदिन हर एक कसौटी टुट जाती है आपने ही सांचे मे .............बहुत ही सुन्दर

22 अगस्त 2009 को 4:16 pm बजे
M VERMA ने कहा…

वही इंसान अपनी केंचुली बदल
किसी निगोसियेशन में आता है तो
मुझमें देखता है किसी कसाई को
और खरोंचे मारने लगता है
कितने गहरे भाव है पूरी कविता मे. कविता मज़बूर कर देती है अपने परिवेश के पुनरावलोकन के लिये और उस परिवेश मे खुद के वज़ूद को परखने के लिये.

22 अगस्त 2009 को 4:40 pm बजे
श्यामल सुमन ने कहा…

सभी इन्सान दिल के अच्छे होते हैं
केवल परिस्थितयाँ ही उन्हें
बद, बुरा या नेता बनातीं हैं

बहुत कुछ कह गए मुकेश भाई। सुन्दर अभिव्यक्ति।

22 अगस्त 2009 को 4:42 pm बजे
kshama ने कहा…

हर युग में , हर सदी में और दुनिया में हर जगह ,इंसानी ज़हनियत एक जैसी होती है ...तभी तो दुनिया भरकी भाषाओँ में एक जैसी कहावतें , मुहावरे प्रचलित हैं ..
इंसान सिर्फ़ इंसान बनके रहे तो काफ़ी है ....अपनी खामियों और खूबियों के साथ ...!

बड़ा ही सरल लेखन है आपका ...कई बार आती हूँ आपके blog पे आती हूँ, और पढ़ते ,पढ़ते खो जाती हूँ ..

22 अगस्त 2009 को 4:50 pm बजे

बहुत सुन्दर व बेहतरीन रचना है।बधाई स्वीकारें।

22 अगस्त 2009 को 7:50 pm बजे

बंधुवर,
एक-दो शब्द में कहूँ तो--अप्रतिम, असाधारण अभिव्यक्ति ! इंसानों की बदलती शक्ल हतबुद्ध कर देती है, मेरा अनुभव भी यही कहता है. सप्रीत, आ.

23 अगस्त 2009 को 1:58 pm बजे
Ria Sharma ने कहा…

सभी इंसान दिल से अच्छे होतें हैं
केवल परिस्थितियाँ उन्हें
बद, बुरा या नेता बनाती हैं
और मैं सबसे दिल खोल के मिलना चाहता था

Great !!!

23 अगस्त 2009 को 8:49 pm बजे
हरकीरत ' हीर' ने कहा…

मुकेश जी ,

बड़ा मुश्किल है इन इंसानों के चेहरों को पढ़ पाना
हर इक चेहरे ने कई - कई नकाब पहन रखे हैं ..

23 अगस्त 2009 को 11:01 pm बजे
Urmi ने कहा…

बहुत ही गहरे भाव के साथ लिखी हुई आपकी ये शानदार रचना मुझे बेहद पसंद आया! श्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें!

24 अगस्त 2009 को 9:09 am बजे
vikram7 ने कहा…

मैं,
कन्फ्यूज हो जाता हूँ कि
मैंने जो सीखा था अब तक
इंसानों के बारे में
क्या सब बकवास था?
सुन्दर रचना

24 अगस्त 2009 को 2:23 pm बजे

कन्फ्यूज हो जाता हूँ कि
मैंने जो सीखा था अब तक
इंसानों के बारे में
क्या सब बकवास था
कितनी सहजता से बदलते हुये इन्सान के बारे मे अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है बहुत सुन्दर शुभकामनायें

24 अगस्त 2009 को 6:14 pm बजे
neera ने कहा…

वही इंसान अपनी केंचुली बदल
किसी निगोसियेशन में आता है तो
मुझमें देखता है किसी कसाई को
और खरोंचे मारने लगता है

बहूत बढ़िया लिखा है!

25 अगस्त 2009 को 2:09 am बजे

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ई-मेल पर प्राप्त फ़ीड़बैक_श्री बृजमोहन श्रीवास्तव साहब
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प्रिय तिवारी जी,

पहला पद आपको सही लगता था ||दूसरा पद भी लगभग ठीक ही है ""कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी .,आदमी यूं बेवफा नहीं होता ||तीसरा पद सही सीखा था ||चौथा पद ""इब्तदा इश्क है रोता है क्या ,आगे आगे देखिये होता है क्या ||पांचवे पद पर कुछ नहीं कह पाऊंगा ||छटा पद आप ही क्या हर व्यक्ति भ्रमित है |आपको शायद याद हो श्री गीत चतुर्वेदी युवा कवि और कथाकार ने एक जगह यूं लिखा है """मैं डायनासोरों से बच निकला , मई इगुआना छिपकलियों से दूर रहा , मैंने ड्रेगनों की मुखाग्नि को छका दिया पर जिन्होने मुझे दौडाया 'वे कुत्ते थे ' yh tippnee post nahin ho parahee hai kuchh galtee batlaraha hai |
brijmohan shrivastava

25 अगस्त 2009 को 8:36 am बजे
गुंजन ने कहा…

भाई,

खूब सीखा और हमें बताया इंसानों के बारे में, कुछ और नस्लें भी हैं जिन पर तुम्हारी दृष्टी नही पड़ी है। अगली मुलाकात पर बातें करेंगे।

जीतेन्द्र चौहान

25 अगस्त 2009 को 8:42 am बजे
रंजू भाटिया ने कहा…

मैं,
कन्फ्यूज हो जाता हूँ कि
मैंने जो सीखा था अब तक
इंसानों के बारे में
क्या सब बकवास था?
यह कनफूजन तो अक्सर हो जाता है ,,बहुत गहरे भाव लिए हुए हैं आपकी यह रचना मुकेश जी .

25 अगस्त 2009 को 10:26 am बजे
Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

दिल से निकली गहरे अनुभवों की एक झलक ने हमें भी कुछ ऐसा ही सोचने पर मजबूर कर दिया......
बधाई एक सुन्दर भावव्यक्ति पर.

25 अगस्त 2009 को 7:53 pm बजे

मैं,
कन्फ्यूज हो जाता हूँ कि
मैंने जो सीखा था अब तक
इंसानों के बारे में
क्या सब बकवास था?.........
बकवास...??अजी निहायत ही बकवास....अजी महा-बकवास....आपको एक बात आज पते की बताये देता हूँ....कि इंसान के बारे अब कुछ भी अच्छा सोचना महा-मूर्खता है...बस ये जान लीजिये कि इंसान अगरचे जो कुछ अच्छा कर दे तो उसे बोनस समझ लीजिये....और अगर बुरा ही करता रहे तो उसे उसकी या कहूँ कि हम सबकी फितरत....!!

25 अगस्त 2009 को 9:32 pm बजे
शोभना चौरे ने कहा…

bahut steek abhivykti .hmari dharna bnne bhi nhi pati aur insan ki bhavnao ke rang bdlne lgte hai girgit ki tarh .aur ham mook bankar sirf dekhte hi rh jate hai .

26 अगस्त 2009 को 12:59 am बजे